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छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

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15 March 2010

हमारे दरमिया ऐसा कोइ रिश्ता नहीं था .....

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परवीन शाकिर...गर आज़ाद नज़्म को बेबाकी से कहना भी एक हुनर है ... तो यकीन मानिये इस हुनर में इनका जवाब नहीं.....
हमारे  दरमिया  ऐसा कोइ  रिश्ता नहीं  था 
तेरे  शानो  पे  कोई चाहत   नहीं थी  
मेरे  जिम्मे  कोई  आँगन  नहीं  था 
कोई  वादा  तेरी ज़ंजीर -ए -पा  बनने  नहीं पाया 
किसी  इक़रार  ने  मेरी कलाई  को  नहीं  थामा  
हवा -ए -दश्त  की  मानिंद  
तू  आज़ाद  था 
रास्ते  तेरी  मर्जी  के  तबे  थे  
मुझे  भी  अपनी  तन्हाई  पे  
देखा  जाए  तो  
पूरा  तसर्रुफ़  था  
मगर  जब  आज  तू  ने  
रास्ता  बदला  
तो  कुछ ऐसा  लगा मुझ  को  
के  जैसे  तू  ने  मुझ  से  बेवफाई  की 
 
 
2) 
खलिश 

अजीब  तर्ज़ -ए -मुलाक़ात  अब  के  बार  रही  

तुम्ही  थे  बदले  हुए  या  मेरी  निगाहें  थी  
तुम्हारी  नज़रो . से  लगता  था  जैसे  मेरी  बजाये  
तुम्हारे  घर  में . कोई  और  शख्स  आया  है  
तुम्हारे  ओहदे  की  देने . तुम्हें  मुबारक  

सो  तुम  ने  मेरा  स्वागत  उसी  तरह  से  किया  
जो  अफसरान -ए -हुकूमत  के  ऐताकाद  में . है  
तकल्लुफ़ान  मेरे  नज़दीक  आ  के  बैठ   गए  
फिर  एहतमाम  से  मौसम  का  ज़िक्र   छेड़   दिया  

कुछ  उस  के  बाद  सियासत  की  बात  भी  निकली  
अदब  पर  भी  कोई  दो  चार  तबसरे  फरमाए  
मगर  न  तुम  ने  हमेशा  की  तरह  ये  पूछा  
क्या  वक़्त  कैसा  गुज़रता  है  तेरा  जान -ए -हयात  

पहाड़  दिन  की  अज़ीयत  में . कितनी  शिद्दत  है  
उजाड़  रात  की  तन्हाई  क्या  क़यामत  है  
शबो  की  सुस्त  रवी  का  तुझे  भी  शिकवा  है  
गम -ए -फ़िराक  के  किस्से  निशात -ए -वस्ल  का  ज़िक्र  
रवायातन  ही  सही  कोई  बात  तो  करते  

3)
पूरा  दुःख  और  आधा  चाँद  
हिज्र  की  शब्  और  ऐसा  चाँद  

 इतने  घने  बादल  के  पीछे  
कितना  तनहा  होगा  चाँद  

मेरी  करवट  पर  जाग  उठे  
नींद  का  कितना  कच्चा  चाँद  

सेहरा  सेहरा  भटक  रहा  है  
अपने  इश्क  में . सच्चा  चाँद  

रात  के  शायद  एक  बजे  है . 
सोता  होगा  मेरा  चाँद  


4)

सब्ज़  मद्धम  रोशनी  में  सुर्ख  आँचल  की  धनक  
सर्द  कमरे  में  मचलती  गर्म  साँसों  की  महक  

बाजूओं  के  सख्त  हल्के  में . कोई  नाज़ुक  बदन  
सिलवटें  मलबूस  पर  आँचल  भी  कुछ  ढलका  हुआ  

गरमी -ए -रुखसार  से  दहकी  हुई  थांडी  हवा 
नर्म  जुल्फों  से  मुलायम  उँगलियों  की  छेड़  छाड़ 

सुर्ख  होंठो  पर  शरारत  के  किसी  लम्हे  का  अक्स  
रेशमी  बाहों  में  चूड़ी  की  कभी  मद्धम  धनक  

शर्मगी . लहजो .में . धीरे  से  कभी  चाहत  की  बात  
दो  दिलो  की  धडकनों  में  गूँजती  थी  एक  सदा  

कांपते  होंठो पे  थी  अल्लाह  से  सिर्फ  एक   दुआ  
काश  ये  लम्हे  ठहर  जाए . ठहर  जाए  ज़रा  

 5)
गुमान 

मै  कच्ची नींद  में  हूँ  
और  अपने  नीम _ख्वाबीदा  तनफ्फुस   में . उतरती  
चाँदनी  की  चाप    सुनती हूँ  
गुमान  है  
आज  भी  शायद  
मेरे  माथे  पे  तेरे  लब  
सितारे  सबात  करते  है .


6)एक उलझन-

रात अभी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूँ
इनको थामूँ
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहखानों में उतरूँ
या अपने कमरों में ठहरूँ
चाँद मिरी खिड़की पे दस्तक देता है

7)जान-पहचान-
शोर मचाती मौज-ए-आब
साहिल से टकरा के जब वापस लौटी तो
पाँव के नीचे जमी हुई चमकीली सुनहरी रेत
अचानक सरक गई
कुछ-कुछ गहरे पानी में
खड़ी हुई लड़की ने सोचा
ये लम्हा कितना जाना-पहचाना लगता है

8)इस्म-

बहुत प्यार से
बाद मुद्दत के
जब से किसी शख़्स ने चाँद कहकर बुलाया है
तब से
अंधेरों की खूगर निगाहों को
हर रोशनी अच्छी लगने लगी है
9)एक मुश्किल-
टाट के परदों के पीछे से
एक तरह बारह-तेरह साला चेहरा झाँका
वो चेहरा
बहार के फूल की तरह शफ़्फ़ाफ़
लेकिन उसके हाथ में
तरकारी काटते रहने की लकीरें थीं
और उन लकीरों में
बर्तन मांझने वाली राख जमी थी
उसके हाथ
उसके चेहरे से बीस साल बड़े थे

इससे आगे

13 March 2010

एक आंतकी का पति ओर बुद्ध की मुस्कान -उदय प्रकाश.

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उदय प्रकाश...... नाम लिखना जैसे शब्दों के कई रेखा चित्रों के बण्डल को एक साथ संभालना है...उन्ही का ..एक रेखा चित्र यहाँ भी है....


सत्ताओं ने एक ऐसा समय रचा है हमारे इर्द-गिर्द कि सारे दुस्वप्न और आशंकाएं एक-एक कर सच होने लगती हैं।
उस रोज़ जब पोखरण में परमाणु के धमाके हुए उसके बाद के पंद्रह दिन पाकिस्तान में उथल-पुथल के थे। अगर सियासत के खिलाड़ी सरहद के इस पार अपनी हिंसा की ताकत का परीक्षण कर रहे थे तो सरहद के उस पार के खिलाड़ी इसे अपने लिए एक सुनहरा मौका मान रहे थे।
निर्वासन में रह रहीं बेनज़ीर भुट्टो ने तुरत बयान दिया: ''हिंदुस्तान के परमाणु केंद्रों को खत्म करने के लिए फौरन आकस्मिक हमला (preemptive action) कर देना चाहिए।''
२४ साल पहले, १९७४ में जब इसी पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण 'बुद्ध की मुस्कान' हुआ था, तब बेनज़ीर के पिता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने कहा था:''पाकिस्तान हज़ार साल तक घास खा कर रह लेगा लेकिन परमाणु बम ज़रूर बनाएगा।'' उस वक्त तक पेंटागन के शोध-सैन्य-बौद्धिक प्रयोगशालाओं में से कोई सैम्युएल हंटिंग्टन नहीं निकला था, लेकिन 'सभ्यताओं' की मुठभेड़ और कबीलाई टकराहट की बात इन सियासत के खूनी खिलाड़ियों के दिमाग में तब भी पैदा हो रही थी।
तब तक पाकिस्तान में सत्ता की कुर्सी के भूखे ज़िया उल हक ने बेनज़ीर भुट्टो के पिता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी पर नहीं लटकाया था। वे ज़िंदा थे और १९७१ के युद्ध में भारत के हाथों ऐतिहासिक हार के घावों को जेल में सहलाते हुए किसी मज़हबी फ़ैनेटिक या ओसामा बिन लादेन की ज़ुबान में बोल रहे थे : ''अब ईसाइयों के पास बम है, यहूदियों के पास बम है..! और अब हिंदुओं के पास भी हो गया है..। पाकिस्तान को इस्लाम का पहला बम बनाने के लिए सब कुछ कुर्बान कर देना चाहिए।''
(कई बार सभ्यताओं का इतिहास अशक्त और निहत्थे मनुष्यों और प्रकृति के विरुद्ध विनाश का षड़यंत्र रचने वाले पात्रों की नियति के साथ भी वैसा ही व्यवहार करता है। आज आप खुद सरहद के इधर और उधर के इन सभी पात्रों के जीवन के अंत के दहशतनाक दृश्यों को याद करिए। भुट्टो, ज़िया-उल-हक, इंदिरा गांधी, बेनज़ीर की ज़िंदगियों के आखिरी दृश्य ? ..उफ़...! क्या निर्दोष मनुष्यता और समूची प्रकृति के विरुद्ध विनाश के काम में लगे सत्ताओं के उन्मादी कोई पाठ कभी सीखेंगे ?
..... शायद अहिंसा और करुणा के जीवन और उत्तर-जीवन के प्रतीक बुद्ध के चेहरे में भी, उनके जीवन का वैसा हौलनाक अंत देख कर मुसकान नहीं, आंखों में आंसू ही रहे होंगे...!)

बहरहाल, १९९८ की उस तपती मई की दोपहर, जब भिंड-मुरैना के बीहड़ में, सड़क से कुछ हट कर एक 'मारुति-८००' खड़ी थी और एक पेड़ की वत्सल छांह के नीचे, आग की लपटों वाली लू से बचते हुए, एक दर-ब-दर परिवार आलू-पूरी और अचार खा रहा था।
उस दिन आलू और पूरी में अनोखा-अपूर्व स्वाद था।
आम के अचार का एक टुकड़ा कुतरते ही, बचपन में, अतीत की धुंधली होती स्मृतियों में कहीं बहुत दूर छूट गयी अमराइयों का स्वाद और गंध देह के भीतर तक भर जाती थी...।
वहां से कुछ ही हट कर, झाड़ियों के पास एक खरगोश, जिसका नाम चकमक और एक पामरेनियन, जिसका नाम लाइका था, लुका-छिपी या चोर-सिपाही खेल रहे थे....
और जहां से कुछ सौ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में, दो देशों के सरहद पर बमों के धमाके हो रहे थे...
और वहां से कई समुद्र पार अमेरिका के किसी किसी उत्तरी शहर मे एक घबराहट औ बेचैनी से भरे सेमिनार के खत्म हो जाने के बाद, एक डरी हुई सुंदर उदास लड़की, एक डरे हुए, चिंतित और परेशान खूबसूरत लड़के का हाथ थामे प्रेस कांफ़्रेंस में कह रही थी :
''हां, यह सच है कि हम एक दूसरे को बेइंतेहा प्यार करते हैं।..और आज की तारीख में इसे दुनिया के सामने ज़ाहिर करते हैं।..और हमारा यह प्यार बमों और विनाश के खिलाफ़ है...!''
यह लड़की और यह लड़का उन दो देशों के थे, जिन्हें राजनीति ने एक ही शरीर को चीर कर अलग किया था। जैसे दो गुर्दों, आंखों या कलेजों के बीच एक सरहद की कांटेदार दीवार खड़ी कर दी गयी हो।
यह लड़की और वह लड़का उन दो अलग-अलग धर्मों के थे, जिन्हें एक-दूसरे का दुश्मन और खून का प्यासा बनाने में दोनों तरफ़ की सियासत और मीडिया और कार्पोरेट कंपनियां दिन रात लगी हुईं थीं।

बस वही हुआ।
मुश्किल से एक पखवाड़ा बीता और अमेरिका के एक टोही सैटेलाइट ने पाकिस्तान की चगाई की पहाड़ियों वाले इलाकों में कुछ रहस्य भरी गतिविधियों के इमेज दर्ज किये।
हिंदुस्तान में सांप्रदायिक राजनीतिक षडयंत्रों से दो सांसदों की ताकत को बढा़ते हुए संसद में बहुमत और सरकार बना लेने वाली पार्टी का प्रधानमंत्री अपनी विरोधी पार्टी के १९७१-७४ के इतिहास को दुहराते हुए इतिहास में अपने कमज़ोर घुटनों लेकिन हिंसा और उन्माद से भरी महत्वाकांक्षा की हिंसा के बल पर प्रवेश करना चाहता था।
इसके लिए जिस अंधराष्ट्रवाद को सामूहिक हिस्टीरिया की तरह मीडिया, अखबार और सरकार द्वारा फैलाया जा रहा था, उसकी शुरुआत सरहद के उस पार भी हो गयी।
पाकिस्तान के विदेशमंत्री अयूब खान ने घोषणा की :''कैबिनेट की बैठक ने फैसला लिया है कि पाकिस्तान को भी बम विस्फोट करना होगा। बस अब तारीख तय करना बाकी है।''
१८ मई को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के दफ़्तर में बीस आला लोग इकट्ठा थे। इनमें प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, विदेशमंत्री के अलावा तीनों फौज़ों के मुखिया और परमाणु वैग्यानिक शामिल थे।
जिस तरह हिंदुस्तान का बालीवुड 'खान-स्टार्स' के दम पर अपना धंधा चलाता है, पाकिस्तान के इस न्यूक्लियर ताकत के पीछे भी असली वैग्यानिक सितारे 'खान' ही थे। डाक्टर अब्दुल कादिर खान और डाक्टर मुनीर खान।
डाक्टर अब्दुल कादिर खान ने बयान दिया :'' हम १० दिन के भीतर हिंदुस्तान को दिखा देंगे कि हम क्या कर सकते हैं।''
..और २८ मई को तड़के अचानक पाकिस्तान ने अपने सारे संपर्क संसार से तोड़ लिए। उसके सारे फौज़ी हवाई अड्डों में एफ़-१६ और एफ़-७ एम.पी. लडाकू जहाज़ों को पायलेट के साथ मुस्तैद कर दिया गया कि बस सिग्नल मिलते ही वे टेक आफ़ करें।
चगाई की पहाड़ियों मे वह एक साफ़-शफ़्फ़ाफ़ सुबह थी। धूप खिली हुई थी और चमक रही थी। रात में उस इलाके में रहने वाले लोगों को वहां से हटा दिया गया था। सिर्फ़ बीस लोग उस 'शून्य-क्षेत्र' (ज़ीरो-ज़ोन) में मौज़ूद थे। इन बीस लोगों में सबसे युवा था मोहम्मद अरशद। वह वैग्यानिक, जिसकी विशेष्यग्यता 'ट्रिगर-टेक्नालाजी' यानी 'लिब-लिबी तकनीक' के लिए जानी जाती थी।
उसी मोहम्मद अरशद को आदेश दिया गया।
३ बज कर १६ मिनट पर उसने 'या इलाहा-इल्ललाह ...' की फ़ुसफ़ुसाहट के साथ मशीन की 'लिब-लिबी' दबाई और वह पाकिस्तान के इतिहास में दाखिल हो गया।
विस्फोट हो चुका था। रास कोह के काले ग्रेनाइट के पहाड़ सफ़ेद हो गये थे और थर्रा रहे थे। धरती कांप रही थी। धूल और धुएं के गुबारों ने आसमान को ढंक लिया था। एक के बाद एक पांच धमाके। विनाश की ताकत के परीक्षण के सबूत। बीस मुस्कुराती आंखें उन्हें संतोष के साथ घूर रही थीं।
उनके लिए यह पाकिस्तान के तवारीख के सबसे सुनहरे और सबसे महान पल थे। पाकिस्तान पहला दुनिया के 'न्यूक्लियर क्लब' का सातवां सदस्य बन गया था।
हिंदू, ईसाई, यहूदी, बौद्ध बमों के बाद पहला इस्लामी बम बनाने वाला देश।
प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने टेलीविज़न के प्रसारण में घोषणा की: ''आज हमने हिसाब बराबर कर लिया। हिंदुस्तान की मौज़ूदा सरकार के हाथों हमें यह कदम उठाने को मज़बूर होना पड़ा। हमारी सुरक्षा और अस्तित्व के सामने बहुत बड़ा खतरा मौज़ूद था। हम अपने वैग्यानिकों खासतौर पर डाक्टर अब्दुल कादिर......!''
इस घोषणा के ठीक पांच घंटे बाद इस्लामाबाद में भारत के राजदूत को बुला कर कहा गया : हमारे पास पक्की सूचना है कि हिंदुस्तान हमारे पर परमाणु केंद्रों पर हमला करने की बड़ी तैयारी में है। ऐसी हरकत वह ना करे वर्ना फ़ौरन तबाह्कून जवाबी कार्रवाई की जाएगी।''

इसके बाद पाकिस्तान में इमर्जेंसी लगा दी गयी और वहां की जनता के सारे अधिकार रद्द कर दिये गये।

हिंदुस्तान की डरी हुई अंग्रेज़ी की लेखिका अरुंधती राय ने किसी की भी स्मृतियों में हमेशा अमिट हो जाने वाले विलक्षण शब्दों में 'कल्पना का अंत' इन्हीं परमाणु विध्वंसों की संभावनाओं के बारे में लिखा। 'कल्पना का अंत' के हर वाक्य और उसके हर शब्द डर, दुस्वप्न और आशंकाओं में डुबे हुए थे।

यही वह डर और दुस्वप्न था जिसे अमेरिका में दो दुश्मन बनाए जाते देशों और कौमों के एक लड़के और लड़की की डरी हुई आंखों ने देखा था।
दोनों ने एक दूसरे का हाथ और ज़ोरों से थाम लिया।
दोनों की आंखों में डरी हुई मनुष्यता का प्यार लगातार गहरा और ठोस होता जा रहा था।
दोनों ने धीरे से एक दूसरे से, जैसे एक दूसरे को भरोसा दिलाते हुए, साफ़ साफ़ कहा :
'We have really..truly..fallen in LOVE ! Forever....!'

और वहां बुद्ध धीरे से हंसे होंगे, जिसे दोनों ने ज़रूर सुना होगा।

फिर इसके एक साल बाद, इन्हीं ता्रीखों में शुरू किया गया 'कारगिल यु्द्ध'। संसार के युद्धों के इतिहास में सबसे उंचाइयों में लड़ा जाने वाला यह एक ऐसा युद्ध था, जिसमें सरहद के दोनों तरफ़ के लोग, जिन्होंने दो अलग-अलग देशों की फौज़ों की बर्दियां पहन रखी थीं, बहुत बड़ी संख्या में मारे गये। कहा जाता है कि १९६९ में जब एक ही विचारधारा का दम भरने वाले सोवियत रूस और चीन के बीच सीमा विवाद हुआ था, तो जैसा भय सारी एशियाई देशों के ऊपर मंडरा रहा था, कारगिल युद्ध के दौरान भी वह भय और आशंका पैदा हो गई थी। वजह यह कि उस समय के रूस और चीन की तरह इस समय पाकिस्तान और हिंदुस्तान, दोनों के पास भी परमाणु बम मौज़ूद थे। इसका इस्तेमाल कोई भी किसी के खिलाफ़ कभी भी कर सकता था।
यही वजह थी कि कारगिल की लड़ाई ज़्यादातर ज़मीनी रही और इसमें बहुत बड़ी तादाद में सैनिकों को जान गंवान पड़ी।
गांव-गांव, शहर-शहर 'शहीदों' के ताबूत पहुंच रहे थे और मरने वालों के पिताओं, विधवाओं, बच्चों को 'पेट्रोल पंप' और कभी कुछ और ईनाम दिया जा रहा था। अश्विनी चौधरी ने हरियाणा के एक ऐसे ही 'शहीद' के परिजनों की त्रासदी पर एक औसत लेकिन मार्मिक फिल्म 'धूप' बनाई थी।

तो यही वे तारीखें भी थीं, जो भले ही किसी राष्ट्र-राज्य के इतिहास में दर्ज़ न हों, लेकिन जिसकी कहानी अमितावा कुमार की सांस बांध लेने वाली किताब 'एक आतंकी का पति' (Husband of a Fanatic) में कही गयी है। एक ओर बेहद निजी ज़िंदगी की घटनाएं और दूसरी तरफ़ दक्षिणी एशिया के दो पड़ोसी देशों के बीच की हिंसा और घृणा की राजनीति के आर-पार यात्रा करता यह आख्यानात्मक वृत्तांत अपने आप में एक अपूर्व मानवीय दस्तावेज़ है। सत्ताकेंद्रित राजनीति के मनुष्यता-विरोधी चेहरे को सार्वजनिक रूप से विखंडित करता हुआ।

तो..आइये अब उस लड़की और उस लड़के की ओर लौटें, जिन्होंने एक साल पहले अपने-अपने देशों की सरहद पर परमाणु बमों के विस्फोटों के विनाश के खिलाफ़ सारी दुनिया के सामने अपने प्यार का इज़हार किया था।
वह उदास, सुंदर और डरी हुई लड़की का नाम था - मोना अहमद।
और उस चिंतित, सुंदर, प्रतिभाशाली लड़के का नाम था.....अमितावा कुमार।
वही, जो खुद यह किताब लिख रहा था।
मोना अगर पाकिस्तान के लाहौर या कराची या किसीऐसे दूसरे शहर से आयी थी तो अमितावा भी हिंदुस्तान के बिहार या झारखंड या दिल्ली या पटना जैसे किसी इलाके से वहां आये थे।
दोनों अपने-अपने देशों और कौमों के साधारण, आम इंसानों की भावनाओं और ज़िंदगियों के यथार्थ को समझते थे। दोनों उस सियासत को जानते थे, जिसकी जड़ें ही दो मानव समुदायों के बीच के संदेह, घृणा और हिंसक टकराहटों के बीच होती हैं।
इसीलिए जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ और संसार की दुर्गम ऊंचाइयों में, हड्डियों तक को जमा देने वाली बर्फ़ में सांप्रदायिक राष्ट्रवादों के युद्ध में हर रोज़ अनमोल इंसानी ज़िंदगियां ताबूतों में कैद होने लगीं या बर्फ़ में जमने लगीं, तो उन दोनों ने फिर एक प्रेस कांफ़्रेंस किया।
उस प्रेस कांफ़्रेंस में उन दो उदास प्यार करने वाले पक्षियों ने कहा : 'हम एक दूसरे से बेइंतेहा प्यार करते रहे हैं और हम आज एक दूसरे से शादी करने का फ़ैसला करते हैं।'

कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने बहुत धीमी आवाज़ मे जोड़ा :'' और हमारा यह विवाह दो देशों के युद्ध के विरोध में है।''

उस दिन भी, मुझे पूरा यकीन है, बुद्ध मुस्कुराए होंगे। ..आह! ऐसा जीवन, जिसमें निजी और सामाजिक के बीच कोई दूरी नहीं। कोई फांक नहीं। Personal is Political....!

लेकिन कानून तो किसी भी विवाह को तभी स्वीकार करता है, जब उस पर किसी धर्म या मज़हब की मुहर लगी हो। इसीलिए निकाह के लिए जब लड़का और लड़की मौलवी के पास पहुंचे तो मौलवी ने लड़के से कहा -'निकाह के लिए तुम्हें मज़हब बदलना होगा।'
लड़के ने कहा:'' मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। क्योंकि प्यार से बड़ा कोई मज़हब या रिलीज़न नहीं होता।''
''तो तुम इस्लाम कुबूल करते हो? अपना ईमान इस पर लाते हो?''
''जी हां! मैं पूरी ईमानदा्री से कहता हूं कि मेरा ईमान हर उस मज़हब पर आता है जो लोगों के बीच मोहब्बत की सीख देता है। इस्लाम भी ऐसा ही मज़हब है।''
''तुम्हें अपना नाम बदलना पड़ेगा। ... तैयार हो?''
''जी हां!''
''कौन-सा नाम तुम अपने लिए पसंद करोगे?'' मौलवी ने मुस्कुराते हुए पूछा। उस लड़के और उस लड़की के प्यार को देख कर उसे खुद कुछ बहुत अच्छा-सा लग रहा था।
(अब आज जब मैं आपके लिए, यह लिख रहा हूं तो मुझे यह ठीक-ठीक याद नहीं है कि मेरे प्रिय लेखक और एक बेह्तरीन इंसान अमितावा कुमार ने अपने लिए कौन-सा नाम चुना क्योंकि यह किताब पढे़ हुए आज कई साल हो गये। चलिये मान लेते हैं कि उस लड़के ने कहा होगा -'सफ़दर !'
यह नाम मेरे दिमाग मे इसलिए आया कि मेरे दोस्त सफ़दर के दिल में भी दूसरों के लिए प्यार के सिवा कुछ नहीं था। और शायद इसी गुनाह की कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी।)

.....तो उस दिन जब दक्षिण एशिया में दो पड़ोसी देशों के बीच युद्ध और हिंसा का विनाश सरहद पर लाशें बिछा रहा था, उन्हीं दो देशों के एक लड़के और लड़की के बीच निकाह हुआ।

मुझे पूरा विश्वास है, उस रोज़, आकाश में बुद्ध ही नहीं..सारे के सारे पैगंबर मुस्कुराए होंगे।

कारगिल युद्ध खत्म होने के बाद, हमेशा खेले जाने वाले घिसे-पिटे सियासी नाटक की तरह, दोनों देशों के शासकों ने फिर 'सदभावना' और 'शांति' का दौर शुरू किया। साम्राज्यवादी देशों के बहु-राष्ट्रीय हथियार विक्रेता कंपनियों के लिए युद्ध के बाद यह व्यापार और मुनाफे का चैप्टर शुरू हो रहा था। राजनीति और व्यापार दोनों के लिए युद्ध और शांति दोनों खपत और मुनाफ़े के लिए ज़रूरी होते हैं और वे अपनी मर्ज़ी से दोनों के पन्ने पारी-पारी पलटते रहते हैं।

जीटी करनाल रोड से दिल्ली से लाहौर जाने वाली 'सदभावना बस' चलाई गयी। इसमें पहले मुसाफ़िर वही सांप्रदायिक और हिंसक सियासी शतरंज के खिलाड़ी थे जिहोंने परमाणु बमों के धमाके किये थे और हज़ारों निर्दोषों को एक व्यर्थ के युद्ध में झोंक दिया था। अब नये दृश्य में वे एक-दूसरे को लड्डू-पेड़े खिलाते हुए, गले मिल रहे थे।
हर कोई सहमा हुआ यह सब देख रहा था।
बालीवुड, जो 'बार्डर' जैसी फ़िल्मों को बाक्स आफिस में हिट करा चुकी थी, अब 'वीरजारा' बनाने लगी थी। मीडिया और अखबार, जो अब तक युद्धोन्माद और हिंसक राष्ट्रवाद को हवा दे रहे थे, अब शांतिपाठ कर रहे थे।
यह राजनीति का 'मृत्युभोज' था। बेशुमार निर्दोष मनुष्यों के शवों के ऊपर गलीचा बिछाकर गज़ल और साझा कल्चर की महफिल। दोनों देशों की सरकारें अपने-अपने दरबारी लेखकों-बुद्धिजीवियों के डेलिगेशन एक-दूसरे के देशों में भेज रहीं थीं।

उस लड़के ने भी पाकिस्तान के दूतावास में अर्ज़ी दी:''मैं अपनी ससुराल जाना चाहता हूं।''
पाकिस्तान और अमेरिका, दोनों के लिए यह एक प्रिय लगने वाली आकांक्षा नहीं थी।
पाकिस्तानी डिप्लोमेटिक अफ़सरों ने कहा, वीज़ा के लिए आपको अपनी ससुराल से लोगों के निमंत्रण-पत्र पेश करने होंगे। तभी आपको इज़ाज़त दी जायेगी।
लड़की ने अपने मायके वालों को फोन किया कि 'ये वहां आना चाहते हैं। इनविटेशन लेटर्स मांग रहे हैं कौंसुलेट वाले।''
देखते ही देखते दर्ज़नों नहीं पचासों इनविटेशंस आ गये।
लड़के ने उन्हें पाकिस्तानी दूतावास के सामने रखा।
अफ़सर की पेशानी पर परेशानी और चिढ़ की लकीरें थीं। इसे कैसे रोकें। राष्ट्र-राज्य इस लड़के जैसे लोगों के लिए नहीं बनाए जाते। राष्ट्र-राज्य उसमें रहने-जीने वाले, एक दूसरे से प्यार और सहयोग करने वाले इंसानों की खातिर नहीं बनाये जाते।
राष्ट्र-राज्य तो राजनीतिकों, सरकारों, व्यापारियों, फौज़ों वगैरह के लिए हुआ करते हैं। मुश्किल मगर यह है कि अब इस लड़के को रोकें कैसे?
अफ़सर ने जवाब दिया :''हम इन डाक्युमेंट्स को अभी चेक करेंगे। बाद में आना।''
कुछ दिनों बाद, दी गयी तारीख़ और वक्त पर लड़का और लड़की फिर मौज़ूद थे।
अफ़सरों ने कहा :''हमने सारे इनविटेशन लेटर्स चेक किये हैं। इनमें से एक भी लेटर ऐसा नहीं है, जिसे तुम्हारे किसी ब्लड रिलेटिव (रक्त-संबंधी) ने लिखा हो। सब के सब तुम्हारे 'इनलाज़' (ससुराल वाले) हैं। तुम अपनी ससुराल से किसी ब्लड रिलेशन का पत्र लाकर सबमिट करो।''

लड़के की आंखों में वही हंसी थी, जो इस समय हर जागरूक और निर्दोष युवा की आंखों में झलकती है। हर उसकी आंखों में, जो दूसरों से प्यार करता हुआ हिंसा और तबाही के सारे खेल और सारी बिसातों की भयावह परिणतियों को जानता है।
लड़के का यानी मेरे प्रिय लेखक अमितावा का उत्तर था :'' देखिए, हम दोनों कौमों ने पिछली सदी से लेकर आज तक एक दूसरे का जितना खून (ब्लड) बहाया है, उसे देखते हुए हमसे ज़्यादा गहरा और पक्का 'ब्लड-रिलेशन' किसी का हो नहीं सकता।''
वे अफ़सर स्तब्ध थे।
उनके चेहरे सफ़ेद हो चुके थे। शायद इस जवाब की उम्मीद उन्हें नहीं थी।

बुद्ध ज़रूर हंसे होंगे, लड़के की इस बात पर।

इसके बाद लड़का अपनी ससुराल यानी पाकिस्तान गया। उसका वहां के युवाओं ने भरपूर स्वागत किया। विश्वविद्यालयों में उनको देखने और उन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी।
स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों से, आम लोगों से सबसे उन्होंने बातचीत की।
वह लड़की भी अपनी ससुराल आयी। यानी हिंदुस्तान।
यहां पटना में जब दोनों के 'विवाह' के बाकी रीतियां पूरी की जा रहीं थीं, मैं उस दिन वहीं था। पुस्तक मेले में। एन.बी.टी. की तरफ़ से 'मीट दि आथर' कार्यक्रम में भाग लेने। तब तक मुझे पता नहीं था कि अमितावा और मोना दोनों उस दिन वहीं थे।
अमितावा ने भारत के भी तमाम स्कूली बच्चों से बात की। उनसे सवाल पूछे।
गुजरात में २००२ के सांप्रदायिक जन-संहार के बाद वहां जाकर घूमते रहे। सच यह है कि टी. आर. पी. के पीछे पागल कार्पोरेट मीडिया, सांप्रदायिक और भ्रष्ट राजनीति तथा हिंसा और मौत के सामान के व्यापारियों के सर्वव्यापी अभियान के बावज़ूद यहां रहने बसने वाले आम लोग और बच्चे...कोई भी हिंसा अब नहीं चाहता। कोई भी युद्ध और तबाही नहीं चाहता।

मेरा मन होता है कि इस किताब का हिंदी अनुवाद ही नहीं, उर्दू, बंगला समेत सारी भाषाओं में अनुवाद हो और इसे सस्ती दर पर सबको बांटा जाय। जैसा एक समीक्षक ने लिखा है कि 'दुश्मन की अवधारणा' (Idea of Enemy) पर इतनी गहरायी, तथ्यों, सर्वेक्षण और साहस के साथ लिखी गयी यह किताब सिर्फ़ दो देशों के सरहद के आर-पार की यात्रा की कहानी ही नहीं, यह हमारी अंतरात्मा के भीतर तक उतरती, सब कुछ को उलटती-पलटती, बेहद ईमानदार किताब है।
हिंदुत्ववादियों और कट्टरपंथी मुसलमानों को यह किताब उनकी साझा मानवीय विरासत की याद दिलाती है। इसे पढने के बाद अचानक याद आने लगता है कि सिंधु सभ्यता के वे मिथक और लोक गाथाओं के पात्र, जो हमारी साझी संस्कृति या तहज़ीब के हिस्सा थे, कैसे सियासत और सत्ताखोरों ने उन्हें छीन कर एक दूसरे के शत्रु-प्रतीकों में बदल डाला। ईसा की सातवीं सदी के पहले जब कहीं मुसल्मान जैसा कौम नहीं था या ईसा से ह़ज़ार साल पहले,पश्चिमी लोगों के आने के पहले तक जब कोई हिंदू कहीं नहीं होता था, हमारी लोक-गाथाएं तब भी थीं। राम से लेकर कृष्ण तक की, रामायण से लेकर महाभारत तक के पात्र तब भी थे। लेकिन वे ना तो हिंदू थे ना मुसलमान। वे तो सिंधु सभ्यता के लोगों की साझी संस्कृति की सम्मिलित मिथक-लोक आख्यानों के हिस्सा थे। राम पर सिर्फ़ कट्टर हिंदुत्ववादियों का अधिकार कैसे हो गया? उनके नाम पर सांप्रदायिक हिंसा और युद्ध और जनसंहार क्यों होने लगा? ये सवाल अनुत्तरित नहीं हो सकते।
इनका जवाब दिया जाना चाहिए। इसलिए कि हिंसा और राजनीति के इस विनाशकारी खेल की कीमत उन महान मिथकीय पात्रों को चुकानी पड़ती है।
राम जैसे करुणा और वंचना के मानवीय मिथक-नायक को देख कर अन्य समुदाय के बच्चे डर कर रोने लगते हैं।
और जब 'बुद्ध की मुस्कान' का नाम देकर परमाणु बमों का विस्फोट किया जाता है तो कांधार में, बामियान के पहाड़ों में उनका सिर मोर्टारों और मिसाइलों से तोड़ दिया जाता है।

काश अमितावा कुमार की यह किताब वे भी पढ़ते जो सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति करते हैं।
खैर, आखिर में आप सबसे मैं फिर से क्षमा मांगता हूं कि अपना वायदा पूरा करने में मुझे इतने सारे दिन लग गये। अंत में यह भी जोड़ना चाहता हूं कि अब

अब 'लड़के' और उस 'लड़की' के परिवार में एक नन्हीं-सी बच्ची भी है। इला नाम है उसका।
काश एक ऐसा भविष्य हमारे जीते जी आये कि इला हंसे और उसकी निर्मल पवित्र हंसी में मनुष्यों के बीच खड़ी की गयीं वे सारी दीवारें ढहें, टूट बिखर जायें, जिनकी हिफ़ाजत के नाम पर हिंसा का व्यापार और उसकी सियासत होती है।
इला की एक ऐसी मुस्कान, जो सिंधु और गंगा-यमुना के जल को फिर से मीठा और पवित्र कर दे।
एक ऐसा भविष्य आये! ज़रूर आये!


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अँतर्जाल एवं मुद्रण से समकालीन साहित्य के
चुने हुये अँशों का अव्यवसायिक सँकलन

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