कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था । उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुंवर उदैभान करके पुकारते थे । सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्त्रोत आ मिली थी । उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके । पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था । कुछ यों ही सी मसें भीनती चली थीं । पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था । एक दिन हरियाली देखने को अपने घोडे पर चढ के अठखेल और अल्हड पन के साथ देखता भालता चला जाता था । इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ । उस हिरनी के पीछे सब छोड छाड कर घोडा फेंका । कोई घोडा उसको पा सकता था ? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुंवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जै भाइयाँ, अँगडाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने । इतने में कुछ एक अमराइयां देख पडी, तो उधर चल निकला;
तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियां एक से एक जोबन में अगली झूला डाले पडी झूल रही हैं और सावन गातियां हैं । ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन ? तू कौन ? की चिंघाड सी पड गई । उन सभी में एक के साथ उसकी आँख लग गई । कोई कहती थी यह उचक्का है । कोई कहती थी एक पक्का है ।
वही झूले वाली लाल जोडा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया । पर कहने-सुनने की बहुत सी नांह-नूह की और कहा -इस लग चलने को भला क्या कहते हैं ! हक न धक, जो तुम झट से टहक पडे । यह न जाना, यह रंडियां अपने झूल रही हैं । अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधडक चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ । तब कुंवर ने मसोस के मलीला खाके कहा - इतनी रुखाइयां न कीजिए । मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड की छांह में ओस का बचाव करके पडा रहूंगा । बडे तडके धुंधलके में उठकर जिधर को मुंह पडेगा चला जाऊंगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं । एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड छाड कर घोडा फेंका था। कोई घोडा उसको पा सकता था ? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था । जब अंधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूंढ कर यहां चला आया हूं । कुछ रोकटोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुका रहता । सिर उठाए हां पता चला आया । क्या जानता था - वहां पदिमिनियां पडी झूलती पेंगे चढा रही हैं । पर यों बढी थी, बरसों मैं भी झूल करूंगा ।
यह बात सुनकर वह जो लाल जोडे वाली सबकी सिरधरी थी, उसने कहा - हाँ जी, बोलियां ठोलियां न मारो और इनको कह दो जहां जी चाहे, अपने पडे रहें, ओर जो कुछ खानेको मांगें, इन्हें पहुंचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुंहका डौल, गाल तमतमाए और होंठ पपडाए, और घोडे का हांफना, ओर जी का कांपना और ठंडी सांसें भरना, और निढाल हो गिरे पडना इनको सच्चा करता है । बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपती नहीं । पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपडे लत्ते की कर दो । इतना आसरा पाके सबसे परे जो कोने में पांच सात पौदे थे, उनकी छांव में कुंवर उदैभान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर नींद कोई चाहत की लगावट में आती थी ? पडा पडा अपने जी से बातें कर रहा था ।
जब रात सांय-सांय बोलने लगी और साथ वालियां सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा - अरी ओ! तूने कुछ सुना है ? मेरा जी उस पर आ गया है; और किसी डौल से थम नहीं सकता । तू सब मेरे भेदों को जानती है । अब होनी जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय । मैं उसके पास जाती हूं । तू मेरे साथ चल । पर तेरे पांवों पडती हूं कोई सुनने न पाए । अरी यह मेरा जोडा मेरे और उसके बनाने वाले ने मिला दिया । मैं इसी जी में इस अमराइयों में आई थी । रानी केतकी मदनबान का हाथ पकडे हुए वहां आन पहुंची, जहां कुंवर उदैभान लेटे हुए कुछ-कुछ सोच में बड-बडा रहे थे । मदनबान आगे बढके कहने लगी - तुम्हें अकेला जानकर रानी जी आप आई हैं । कुंवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा - क्यों न हो, जी को जी से मिलाप है ? कुंवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे; पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी । होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी मां रानी कामलता कहलाती है । उनको उनके मां बाप ने कह दिया है - एक महीने अमराइयों में जाकर झूल आया करो । आज वहीं दिन था; सो तुमसे मुठभेड हो गई । बहुत महाराजों के कुंवरों से बातें आई, पर किसी पर इनका ध्यान न चढा । तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लडकपन की गोइयां हूं । मुझे अपने साथ लेके आई है ।
अब तुम अपनी बीती कहानी कहो - तुम किस देस के कौन हो । उन्होंने कहा - मेरा बाप राजा सूरजभान और मां रानी लक्ष्मीबास हैं । आपस में जो गठजोड हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं । यों ही आगे से होता चला आया है । जैसा मुँह वैसा थप्पड । जोड तोड टटोल लेते हैं । दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गठजोड चाहिए । इसी में मदनबान बोल उठी - सो तो हुआ । अपनी अपनी अंगूठियां हेरफेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो । फिर कुछ हिचर-मिचर न रहे । कुंवर उदैभान ने अपनी अंगूठी रानी केतकी को पहना दी और रानी ने भी अपनी अंगूठी कुंवर की उंगली में डाल दी और एक धीमी सी चुटकी भी ले ली । इसमें मदनबाल बोली जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई । मेरे सिर चोट है, इतना बढ चलना अच्छा नहीं । अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएं तो पडे रोने दो । बातचीत तो ठीक हो चुकी ।
पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुंवर उदैभान अपने घोडे की पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुंचे । कुंवर ने चुपके से यह कहला भेजा - अब मेरा कलेजा टुकडे-टुकडे हुए जाता है । दोनों महाराजाओं को आपस में लडने दो । किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास बुला लो । हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय । एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुंवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखडी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुंचा दी । रानी ने उस चिट्ठी को अपनी आंखों से लगाया और मालिन को एक थाल भरके मोती दिए; और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुंह की पीक से यह लिखा -ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर चील-कौवों को दे डाले, तो भी मेरी आंखों चैन और कलेजे सुख हो । पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं ।
इसमें एक बाप दादे के चिट लग जाती है; अब जब तक मां बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डोल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह एक जी तो क्या, जो करोड जी जाते रहें तो कोई बात हैं रुचती नहीं । यह चिट्ठी जो बिस भरी कुंवर तक जा पहुंची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है । और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है और उस चिट्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बांध लेता है । आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड पर से और कुंवर उदैभान और उसके मां-बाप को हिरनी हिरन कर डालना जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलाश पहाड पर रहता था, लिख भेजता है- कुछ हमारी सहाय कीजिए । महाकठिन बिपता भार हम पर आ पडी है । राजा सूरजभान को अब यहां तक वाव बॅहक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है ।
सराहना जोगी जी के स्थान का कैलास पहाड जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लोग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई 90 लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था । सोना, रूपा, तांबे, रॉगे का बनाना तो क्या और गुटका मुंह में लेकर उड ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं । मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था । गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकडते थे । सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था । उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियां आठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोडे खडी रहती थीं ।
और वहां अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे- भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप । और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं-गुजरी, टोडी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली । जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उडाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुंह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे ।
जिस घडी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर पहुंचा देता है, गुरु महेंदर गिर एक चिग्घाड मारकर दल बादलों को ढलका देता है । बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुंह से मल कुछ कुछ पढंत करता हुआ बाण घोडे भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए गुटके मुंह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर जागा और मुंछदर भागा । बस यहां की यहीं रहने दो । फिर कल सुनो ….
8 सुधीजन टिपियाइन हैं:
कहानी अच्छी है
बहुत सुंदर कहानी है, लेकिन कई जगह भाषा के कारण समझ नही आई, अगली कडी का इंतजार है...
आप को ओर आप के परिवार को दीपावली की शुभ कामनायें
रानी केतकी की कथा बड़ी रोचक लगी आगे क्या हुआ ?
दीपावली पर अनेकों शुभकामनाएं
- लावण्या
अगली कड़ी का इंतज़ार...
दीवाली आपके और पूरे परिवार के लिेए मंगलमय हो...
जय हिंद...
खिस्सा त बढियां चल रहा है डागदर बाबू...मुदा आअज आए थे कि आपके सभी ब्लोग के अनुसरण करेंगे ताकि आगे से कभीयो आपका एकोठो पोस्ट नहीं छूटे,,,,मुदा इहां तो कुछ हईये नहीं है जी। अब का करें आप ही बताईये।
हिन्दी की पहली कहानी पढने को मिल रही है । बिल्कुल यही ढंग होता था पहले कहानी कहने का । पुराने लोगों से कहानी सुनो तो लगभग यही लहजा होता है ।
कहानी के नीचे या कोष्ठक में अप्रचलित शब्दों के अर्थ दे दें तो अच्छा रहेगा ।
1. @ श्री राज भाटिया जी
रानी केतकी को अँतर्जाल पर रखने में मेरा मँतव्य सन 1800-1820 के दौरान बोली जाने वाली हिन्दी और किस्सागोई शैली की एक बानगी पेश करने का ही रहा है । कुछेक लाइनों को मैंने इसीलिये रेखाँकित भी कर दिया है । यह अलग बात है कि तब तक हिन्दी लेखन के लिये देवनागरी को पूरी तौर पर अपनाया न जा सका था, और उर्दू लिपि का बोलबाला था । यानि की साड़ी में न सही, सलवार कुर्ते में ही यह है तो हमारी हिन्दी ही !
2. @ अजय कुमार झा जी
मैं तो शेष ब्लॉगर्स के अनुसरण में विश्वास रखता हूँ,
मेरा लिखा इतना परिपक्व भी नहीं कि फ़्रेन्ड कनेक्ट या फ़ोलोवर को न्यौता दूँ ।
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इस महत्वपूर्ण रचना को प्रस्तुत करने के लिए आभार।
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लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !