इस्मत चुगताई.......
मैं...एक बच्चे को प्यार कर रही थी
वालिद काफ़ी रौशनख़याल थे. बहुत-से हिंदू खानदानों से मेलजोल था, यानी एक ख़ास तबके के हिंदू-मुसलमान निहायत सलीके से घुले-मिले रहते थे. एक-दूसरे के जज़्बात का ख़याल रखते. हम काफ़ी छोटे थे जब ही एहसास होने लगा था कि हिंदू-मुसलमान एक दूसरे से कुछ न कुछ मुख्तलिफ़ ज़रूर हैं. ज़बानी भाईचारे के प्रचार के साथ-साथ एक तरह की एहतियात का एहसास होता था.
अगर कोई हिंदू आए तो गोश्त-वोश्त का नाम न लिया जाए, साथ बैठकर मेज़ पर खाते वक्त भी ख्याल रखा जाए कि उनकी कोई चीज़ न छू जाए. सारा खाना दूसरे नौकर लगायें, उनका खाना पड़ोस का महाराज लगाये. बर्तन भी वहीं से माँगा दिए जायें. अजब घुटन सी तारी हो जाती थी. बेहद ऊंची-ऊंची रौशनख़याली की बातें हो रही हैं. एक दूसरे की मुहब्बत और जाँनिसारी के किस्से दुहराए जा रहे हैं. अंग्रेजों को मुजरिम ठहराया जा रहा है. साथ-साथ सब बुजुर्ग लरज़ रहे हैं कि कहीं बच्चे छूटे बैल हैं, कोई ऐसी हरकत न कर बैठें कि धरम भ्रष्ट हो जाए.
'' क्या हिंदू आ रहे हैं ?'' पाबंदियां लगते देखकर हमलोग बोर होकर पूछते.
''ख़बरदार! चाचाजी और चाचीजी आ रहे हैं. बद्तमीज़ी की तो खाल खींचकर भूसा भर दिया जाएगा.''
और हम फ़ौरन समझ जाते कि चचाजान और चचिजान नहीं आ रहे हैं. जब वो आते हैं तो सीख़कबाब और मुर्ग़-मुसल्लम पकता है, लौकी का रायता और दही-बड़े नहीं बनते.ये पकने और बनने का फर्क भी बड़ा दिलचस्प है.
हमारे पड़ोस में एक लालाजी रहते थे. उनकी बेटी से मेरी दांत-काटी रोटी थी. एक उम्र तक बच्चों पर छूत की पाबंदी लाज़मी नहीं समझी जाती. सूशी हमारे यहाँ खाना भी खा लेती थी. फल, दालमोट, बिस्कुट में इतनी छूत नहीं होती, लेकिन चूँकि हमें मालूम था कि सूशी गोश्त नहीं खाती, इसलिए उसे धोखे से किसी तरह गोश्त खिलाके बड़ा इत्मीनान होता था. हालाँकि उसे पता नहीं चलता था, मगर हमारा न जाने कौन सा जज़्बा तसल्ली पा जाता था.
वैसे दिन भर एक दूसरे के घर में घुसे रहते थे मगर बकरीद के दिन सूशी ताले में बंद कर दी जाती थी. बकरे अहाते के पीछे टट्टी खड़ी करके काटे जाते. कई दिन तक गोश्त बंटता रहता. उन दिनों हमारे घर से लालाजी से नाता टूट जाता. उनके यहाँ भी जब कोई त्योहार होता तो हम पर पहरा बिठा दिया जाता.
लालाजी के यहाँ बड़ी धूमधाम से जश्न मनाया जा रहा था. जन्माष्टमी थी. एक तरफ़ कड़ाह चढ़ रहे थे और धड़ाधड़ पकवान तले जा रहे थे. बहार हम फ़कीरों की तरह खड़े हसरत से तक रहे थे. मिठाइयों की होशरुबा खुशबू अपनी तरफ खीच रही थी. सूशी ऐसे मौकों पर बड़ी मज़हबी बन जाया करती थी. वैसे तो हम दोनों बारहा एक ही अमरूद बारी-बारी दांत से काटकर खा चुके थे, मगर सबसे छुपकर.
''भागो यहाँ से,'' आते-जाते लोग हमें दुत्कार जाते. हम फिर खिसक आते. फूले पेट की पूरियां तलते देखने का किस बच्चे को शौक़ नहीं होता है.
''अदंर क्या है?'' मैंने शोखी से पूछा. सामने का कमरा फूल-पत्तों से दुल्हन की तरह सजा हुआ था. अदंर से घंटियाँ बजने की आवाजें आ रही थीं. जी में खुदबुद हो रही थी -हाय अल्ला, अदंर कौन है!
''वहां भगवान बिराजे हैं.'' सूशी ने गुरूर से गर्दन अकडाई.
''भगवान !'' मुझे बेइंतिहा एहसासे-कमतरी सताने लगा. उनके भगवान क्या मज़े से आते हैं. एक हमारे अल्ला मियां हैं, न जाने कौन सी रग फडकी की फ़कीरों की सफ़ से खिसक के मैं बरामदे में पहुँच गई. घर के किसी फर्द की नज़र न पड़ी. मेरे मुंह पर मेरा मज़हब तो लिखा नहीं था. उधर से एक देवीजी आरती की थाली लिए सबके माथे पर चंदन-चावल चिपकाती आईं. मेरे माथे पर भी लगाती गुज़र गईं. मैंने फ़ौरन हथेली से टीका छुटाना चाहा, फिर मेरी बद्जाती आडे आ गई. सुनते थे, जहाँ टीका लगे उतना गोश्त जहन्नुम में जाता है. खैर मेरे पास गोश्त की फरावानी थी, इतना सा गोश्त चला गया जहन्नुम में तो कौन टोटा आ जायेगा. नौकरों की सोहबत में बड़ी होशियारियों आ जाती हैं. माथे पर सर्टिफिकेट लिए , मैं मज़े से उस कमरे में घुस गई जहाँ भगवान बिराज रहे थे.
बचपन की आँखें कैसे सुहाने ख्वाबों का जाल बुन लेती हैं. घी और लोबान की खुशबू से कमरा महक रहा था. बीच कमरे में एक चाँदी का पलना लटक रहा था. रेशम और गोटे के तकियों और गद्दों पर एक रुपहली बच्चा लेटा झूल रहा था. क्या नफीस और बारीक काम था. बाल-बाल खूबसूरती से तराशा गया था. गले में माला, सर पर मोरपंखी मुकुट.
और सूरत इस गज़ब की भोली! आँखें जैसे लहकते हुए दिए! जिद कर रहा है, मुझे गोदी में ले लो. हौले से मैंने बच्चे का नरम-नरम गाल छुआ. मेरा रोआं-रोआं मुस्करा दिया. मैंने बे-इख्तियार उसे उठा कर सीने से लगा लिया.
एकदम जैसे तूफ़ान फट पड़ा और बच्चा चीख मारकर मेरी गोद से उछलकर गिर पड़ा. सूशी की नानी का मुंह फटा हुआ था. हाजियानी कैफियत तारी थी जैसे मैंने रुपहले बच्चे को चूमकर उसके हलक में तीर पैवस्त कर दिया हो.
चाचीजी ने झपटकर मेरा हाथ पकडा, भागती हुई लाईं और दरवाज़े से बाहर मुझे मरी हुई छिपकली की तरह फेंक दिया. फ़ौरन मेरे घर शिकायत पहुंची कि मैं चाँदी के भगवान की मूर्ति चुरा रही थी. अम्मा ने सर पीट लिया और फिर मुझे भी पीटा. वह तो कहो, अपने लालाजी से ऐसे भाईचारेवाले मरासिम थे: इससे भी मामूली हादिसों पर आजकल आये दिन खूनखराबे होते रहते हैं. मुझे समझाया गया कि बुतपरस्ती गुनाह है. महमूद गज़नवी बुतशिकन था. मेरी ख़ाक समझ में न आया. मेरे दिल में उस वक़्त परस्तिश का अहसास भी पैदा न हुआ था.
मैं पूजा नहीं कर रही थी, एक बच्चे को प्यार कर रही थी.
****
( इस्मत चुगताई : उर्दू अदब में बड़ा नाम. कथाकार. आधुनिक उर्दू कथा को आकार देने में अहम रोल. यह अंश उनकी आत्मकथा ''कागज़ी है पैरहन'' से. इससे पहले इस स्तंभ में मिर्ज़ा हादी 'रूस्वा', ग़ालिब, फ़िराक़ और सफ़िया अख्तर की रचनाएं आप पढ़ चुके हैं. )
हमारे पड़ोस में एक लालाजी रहते थे. उनकी बेटी से मेरी दांत-काटी रोटी थी. एक उम्र तक बच्चों पर छूत की पाबंदी लाज़मी नहीं समझी जाती. सूशी हमारे यहाँ खाना भी खा लेती थी. फल, दालमोट, बिस्कुट में इतनी छूत नहीं होती, लेकिन चूँकि हमें मालूम था कि सूशी गोश्त नहीं खाती, इसलिए उसे धोखे से किसी तरह गोश्त खिलाके बड़ा इत्मीनान होता था. हालाँकि उसे पता नहीं चलता था, मगर हमारा न जाने कौन सा जज़्बा तसल्ली पा जाता था.
वैसे दिन भर एक दूसरे के घर में घुसे रहते थे मगर बकरीद के दिन सूशी ताले में बंद कर दी जाती थी. बकरे अहाते के पीछे टट्टी खड़ी करके काटे जाते. कई दिन तक गोश्त बंटता रहता. उन दिनों हमारे घर से लालाजी से नाता टूट जाता. उनके यहाँ भी जब कोई त्योहार होता तो हम पर पहरा बिठा दिया जाता.
लालाजी के यहाँ बड़ी धूमधाम से जश्न मनाया जा रहा था. जन्माष्टमी थी. एक तरफ़ कड़ाह चढ़ रहे थे और धड़ाधड़ पकवान तले जा रहे थे. बहार हम फ़कीरों की तरह खड़े हसरत से तक रहे थे. मिठाइयों की होशरुबा खुशबू अपनी तरफ खीच रही थी. सूशी ऐसे मौकों पर बड़ी मज़हबी बन जाया करती थी. वैसे तो हम दोनों बारहा एक ही अमरूद बारी-बारी दांत से काटकर खा चुके थे, मगर सबसे छुपकर.
''भागो यहाँ से,'' आते-जाते लोग हमें दुत्कार जाते. हम फिर खिसक आते. फूले पेट की पूरियां तलते देखने का किस बच्चे को शौक़ नहीं होता है.
''अदंर क्या है?'' मैंने शोखी से पूछा. सामने का कमरा फूल-पत्तों से दुल्हन की तरह सजा हुआ था. अदंर से घंटियाँ बजने की आवाजें आ रही थीं. जी में खुदबुद हो रही थी -हाय अल्ला, अदंर कौन है!
''वहां भगवान बिराजे हैं.'' सूशी ने गुरूर से गर्दन अकडाई.
''भगवान !'' मुझे बेइंतिहा एहसासे-कमतरी सताने लगा. उनके भगवान क्या मज़े से आते हैं. एक हमारे अल्ला मियां हैं, न जाने कौन सी रग फडकी की फ़कीरों की सफ़ से खिसक के मैं बरामदे में पहुँच गई. घर के किसी फर्द की नज़र न पड़ी. मेरे मुंह पर मेरा मज़हब तो लिखा नहीं था. उधर से एक देवीजी आरती की थाली लिए सबके माथे पर चंदन-चावल चिपकाती आईं. मेरे माथे पर भी लगाती गुज़र गईं. मैंने फ़ौरन हथेली से टीका छुटाना चाहा, फिर मेरी बद्जाती आडे आ गई. सुनते थे, जहाँ टीका लगे उतना गोश्त जहन्नुम में जाता है. खैर मेरे पास गोश्त की फरावानी थी, इतना सा गोश्त चला गया जहन्नुम में तो कौन टोटा आ जायेगा. नौकरों की सोहबत में बड़ी होशियारियों आ जाती हैं. माथे पर सर्टिफिकेट लिए , मैं मज़े से उस कमरे में घुस गई जहाँ भगवान बिराज रहे थे.
बचपन की आँखें कैसे सुहाने ख्वाबों का जाल बुन लेती हैं. घी और लोबान की खुशबू से कमरा महक रहा था. बीच कमरे में एक चाँदी का पलना लटक रहा था. रेशम और गोटे के तकियों और गद्दों पर एक रुपहली बच्चा लेटा झूल रहा था. क्या नफीस और बारीक काम था. बाल-बाल खूबसूरती से तराशा गया था. गले में माला, सर पर मोरपंखी मुकुट.
और सूरत इस गज़ब की भोली! आँखें जैसे लहकते हुए दिए! जिद कर रहा है, मुझे गोदी में ले लो. हौले से मैंने बच्चे का नरम-नरम गाल छुआ. मेरा रोआं-रोआं मुस्करा दिया. मैंने बे-इख्तियार उसे उठा कर सीने से लगा लिया.
एकदम जैसे तूफ़ान फट पड़ा और बच्चा चीख मारकर मेरी गोद से उछलकर गिर पड़ा. सूशी की नानी का मुंह फटा हुआ था. हाजियानी कैफियत तारी थी जैसे मैंने रुपहले बच्चे को चूमकर उसके हलक में तीर पैवस्त कर दिया हो.
चाचीजी ने झपटकर मेरा हाथ पकडा, भागती हुई लाईं और दरवाज़े से बाहर मुझे मरी हुई छिपकली की तरह फेंक दिया. फ़ौरन मेरे घर शिकायत पहुंची कि मैं चाँदी के भगवान की मूर्ति चुरा रही थी. अम्मा ने सर पीट लिया और फिर मुझे भी पीटा. वह तो कहो, अपने लालाजी से ऐसे भाईचारेवाले मरासिम थे: इससे भी मामूली हादिसों पर आजकल आये दिन खूनखराबे होते रहते हैं. मुझे समझाया गया कि बुतपरस्ती गुनाह है. महमूद गज़नवी बुतशिकन था. मेरी ख़ाक समझ में न आया. मेरे दिल में उस वक़्त परस्तिश का अहसास भी पैदा न हुआ था.
मैं पूजा नहीं कर रही थी, एक बच्चे को प्यार कर रही थी.
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( इस्मत चुगताई : उर्दू अदब में बड़ा नाम. कथाकार. आधुनिक उर्दू कथा को आकार देने में अहम रोल. यह अंश उनकी आत्मकथा ''कागज़ी है पैरहन'' से. इससे पहले इस स्तंभ में मिर्ज़ा हादी 'रूस्वा', ग़ालिब, फ़िराक़ और सफ़िया अख्तर की रचनाएं आप पढ़ चुके हैं. )
9 सुधीजन टिपियाइन हैं:
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!!
क्या इत्तेफ़ाक़ है, मैं भी आजकल इस्मत आपा की कहानियाँ खँगाल रहा हूँ !
जहाँ तक मुझे याद आता है, यह एक बार पहले धर्मयुग में भी छप चुका है ।
खुशी तो इस बात की है कि, तुम इस पृष्ठ को जीवित रखने में इसकी गरिमा बढ़ा रहे हो ।
इतने बेहतरीन चयन के लिये धन्यवाद, अनुराग !
मैंने इस्मत चुगताई का सिर्फ नाम ही बहुत सुना है कभी पढा नहीं। शायद कभी पाठ्य पुस्तकों में कभी पढा हो, सो भी याद नहीं। यह लेख बहुत पसंद आया।
इस्मत चुगताई का जब जब पढ़ा है उसने दिल के किसी कोने को छुआ जरुर है ...शुक्रिया इसको यहाँ शेयर करने के लिए
अपने बचपन में इस तरह की छोतछात मैंने भी देखी है .इन्हीं बातों से तो हिन्दू मुस्लिम में दरार बनती गयी . सारे जहां से अच्छा लिखने वाले इक़बाल ने एक बार ऐसा घटित होने पर ही ' शिकवा ' और ' जबाबे शिकवा' लिखा और फिर पाकिस्तान बनाने का ब्ल्यू प्रिंट ही लिख दिया .और हिन्दू तो जानता ही था कि.................मोहम्मद गज़नवी मूर्ति भंजक था . और यह भी कि करीब करीब हर मुस्लमान को बताया जाता है कि गज़नवी लुटेरा नहीं बल्कि इस्लाम का प्रचारक था. ' अल्लाह का सच्चा दीनदार '. खुद को बांटने की रवायतों की कोई कमी है आज भी हमारे पास . कमी है तो ' बिस्मिल ' और अशफाक उल्ला की.
अनुराग आपको धन्यवाद इस चुनाव के लिए .!
साहित्यकारों के लिए एक कहानी हो सकती है ... पर किसी के अंदर तक कहीं गहरे में फंस कर टूट जाती है कहानी ... बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ... आभार आपका
अच्छी बात यह है की मैंने सबद पर भी इसे पढ़ा था.. और फिर से यहाँ पढ़ कर याद ताज़ा हो आई.. इस्मत जीवंत लेखनी करती हैं... और इतने रोचक की ध्यान भटकता ही नहीं... बल्कि एकाग्र हो जाता है...
बहुत खूबसूरत रचना. धन्यवाद!
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !