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छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

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25 February 2010

चूल्हे भाड में जाय यह चाहत - चाह के हाथों किसी को सुख नहीं

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मेरी सकत गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच .. उधर  हमको नींद सताती थी, और की सुनिये । अब तक जो पढ़ा सो यह था कि मेरी सकत गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ के एक छींटा पानी का मिलना था कि छीटों के साथ ही कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जनें हिरनों का रूप छोड कर जैसे थे वैसे हो गए ।
कोताह यह कि पानी के छींटों के परताप से इस किस्से की रवानगी आगे बढ़ चलती है और यह कहानी हरकत में आती है, इस तरह कि.. " गोसाई महेंदर गिर और राजा इंदर ने उन तीनों को गले लगाया और बडी आवभगत से अपने पास बैठाया और वही पानी घडा अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मुंडवाते ही ओले पडे थे । राजा इंदर के लोगों ने जो पानी की छीटें वही ईश्वरोवाच पढ के दिए तो जो मरे थे सब उठ खडे हुए; और जो अधमुए भाग बचे थो, सब सिमट आए ।"
सैय्यद ईँशा अल्लाह खाँ साहब इस करतब को बयान करने के बाद जो लिखते हैं, वह सुनो..

राजा इंदर और महेंदर गिर कुँवर उदैभान और राजा सूरजभान और रानी लक्ष्मीबास को लेकर एक उड न-खटोलो पर बैठकर बडी धूमधाम से उनको उनके राज पर बिठाकर ब्याह का ठाट करने लगे । पसेरियन हीरे-मोती उन सब पर से निछावर हुए । राजा सूरजभान और कुँवर उदैभान और रानी लछमीबास चितचाही असीस पाकर फूली न समाई और अपने सो राज को कह दिया-जेवर भोरे के मुंह खोल दो । जिस जिस को जो जा उकत सूझे, बोल दो । आज के दिन का सा कौन सा दिन होगा । हमारी आँखों की पुतलियों से जिससे चैन हैं, उस लाडले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप से निकलकर फिर राज पर बैठना । पहले तो यह चाहिए जिन जिन की बेटियाँ बिन ब्याहियाँ हों, उन सब को उतना कर दो जो अपनी जिस चाव चीज से चाहें; अपनी गुडियाँ सँवार के उठावें; और तब तक जीती रहें, सब की सब हमारे यहाँ से खाया पकाया रींधा करें । और सब राज भर की बेटियाँ सदा सुहागनें बनी रहें और सूहे रातें छुट कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के केवाड गंगाजमुनी सब घरों में लग जाएँ और सब कोठों के माथे पर केसर और चंदन के टीके लगे हों । और जितने पहाड हमारे देश में हों, उतने ही पहाड सोने रूपे के आमने सामने खडे हो जाएँ और सब डाँगों की चोटियाँ मोतियों की माँग ताँगे भर जाएँ; और फूलों के गहने और बँधनवार से सब झाड पहाड लदे फँदे रहें; और इस राज से लगा उस राज तक अधर में छत सी बाँध दो । और चप्पा चप्पा कहीं ऐसा न रहें जहाँ भीड भडक्का धूम धडक्का न हो जाय । फूल बहुत सारे बहा दो जो नदियाँ जैसे सचमुच फूल की बहियाँ हैं यह समझा जाय । और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढे सब लाड ली और हीरे पन्ने पोखराज की उमड में इधर और उधर कबैल की टट्टियाँ बन जायँ और क्यारियाँ  जिनके बीचो बीच से हो निकलें । और कोई डाँग और पहाडी तली का चढाव उतार ऐसा दिखाई न दे जिसकी गोद पंखुरियों से भरी हुई न हों ।

इस धूमधाम के साथ कुँवर उदैभान सेहरा बाँधे दूल्हन के घर तक आ पहुँचा और जो रीतें उनके घराने में चली आई थीं, होने लगियाँ । मदनबान रानी केतकी से ठठोली करके बोली- लीजिए, अब सुख समेटिए, भर भर झोली । सिर निहुराए, क्या बैठी हो, आओ न टुक हम तुम मिल के झरोखों से उन्हें झाँकें । रानी केतकी ने कहा- न री, ऐसी नीच बातें न कर । हमें ऐसी क्या पडी जो इस घडी ऐसी झेल कर रेल पेल ऐसी उठें और तेल फुलेल भरी हुई उनके झाँकने को जा खडी हों । बदनबान उसकी इस रूखाई को उड़नझाई की बातों में डालकर बोली-  बोलचाल मदनबान की अपनी बोली के दोनों में-

यों तो देखो वाछडे जी वाछडे जी वाछडे । हम से जो आने लगी हैं आप यों मुहरे कडे ॥
छान मारे बन के बन थे आपने जिनके लिये । वह हिरन जीवन के मद में हैं बने दूल्हा खडे ॥
तुम न जाओ देखने को जो उन्हें क्या बात है । ले चलेंगी आपको हम हैं इसी धुन पर अडे ।
है कहावत जी को भावै और यों मुडिया हिले । झांकने के ध्यान में उनके हैं सब छोटे बडे ।।
साँस ठंडी भरके रानी केतकी बोली कि सच । सब तो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेडे में पडे ॥

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वारी फेरी होना मदनबान का रानी केतकी पर और उसकी बास सूँघना और उनींदे पन से ऊंघना उस घडी मदनबान को रानी केतकी का बादले का जूडा और भीना भीनापन और अँखडियों का लजाना और बिखरा बिखरा जाना भला लग गया, तो रानी केतकी की बास सूँघने लगी और अपनी आँखों को ऐसा कर लिया जैसे कोई ऊँघने लगता है । सिर से लगा पाँव तक वारी फेरी होके तलवे सुहलाने लगी । तब रानी केतकी झट एक धीमी सी सिसकी लचके के साथ ले ऊठी : मदनबान बोली-मेरे हाथ के टहोके से, वही पांव का छाला दुख गया होगा जो हिरनों की ढूँढने में पड गया था। इसी दु:ख की चुटकी से रानी केतकी ने मसोस कर कहा-काटा - अडा तो अडा, छाला पडा तो पडा, पर निगोडी तू क्यों मेरी पनछाला हुई ।

सराहना रानी केतकी के जोबन का केतकी का भला लगना लिखने पढने से बाहर है । वह दोनों भैवों का खिंचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नुकीली पलकों की रूँ धावट हँसी की लगावट और दंतडियों में मिस्सी की ऊदाहट और इतनी सी बात पर रूकावट है । नाक और त्योरी का चढा लेना, सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना और हिरनों के रूप में करछालें मारकर परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता । सराहना कुँवर जी के जोबन का कुँवर उदैभान के अच्छेपन का कुछ हाल लिखना किससे हो सके । हाय रे उनके उभार के दिनों का सुहानापन, चाल ढाल का अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल की काली फबन और मुखडे का गदराया हुआ जोबन जैसे बडे तड के धुंधले के हरे भरे पहाडों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती हैं । यही रूप था । उनकी भींगी मसों से रस टपका पडता था । अपनी परछाँई देखकर अकडता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके पाँव तले जैसे धूप थी ।

दूल्हा का सिंहासन पर बैठना दूल्हा उदैभान सिंहासन पर बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगी महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ गुनगुनाने लगा । और नाच लगा होने और अधर में जो उड़न खटोले राजा इंदर के अखाडे के थे । सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए । दोनों महारानियाँ समधिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को कोठों पर चन्दन के किवाडों के आड तले आ बैठियाँ । सर्वाग संगीत भँड ताल रहस हँसी होने लगी । जितनी राग रागिनियाँ थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान झिंझोटी, कन्हाडा, खम्माच, सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगडा, भैरवी, गीत, ललित भैरी रूप पकडे हुए सचमुच के जैसे गाने वाले होते हैं, उसी रूप में अपने अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ । उस नाच का जो ताव भाव रचावट के साथ हो, किसका मुंह जो कह सके । जितने महाराजा जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास, रसधाम कृष्ण निवास, मच्छी भवन, चंद भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची मोतियों की झालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे ।

पर कुंवर जी का रूप क्या कहूं । कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना । जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना और घडी-घडी कुछ सोच सोच कर सिर धुनना । होते-होते लोगों में इस बात का चरचा फैल गई । किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा - कुछ दाल में काला है । वह कुंवर बुरे तेवर और बेडौल आंखें दिखाई देती हैं । घर से बाहर पांव नहीं धरना । घरवालियां जो किसी डौल से बहलातियां हैं, तो और कुछ नहीं करना, ठंडी ठंडी सांसें भरता है । और बहुत किसी ने छेडा तो छपरखट पर जाके अपना मुंह लपेट के आठ आठ आंसू पडा रोता है । यह सुनते ही कुंवर उदैभान के माँ-बाप दोनों दौड आए । गले लगाया, मुंह चूम पांच पर बेटे के गिर पडे हाथ जोडे और कहा -

जो अपने जी की बात है सो कहते क्यों नहीं ? क्या दुखडा है जो पडे-पडे कहराते हो ? राज-पाट जिसको चाहो दे डालो । कहो तो क्या चाहते हो ? तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता ? भला वह क्या है जो नहीं हो सकता ? मुंह से बोलो जी को खोलो । जो कुछ कहने से सोच करते हों, अभी लिख भेजो । जो कुछ लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी । जो तुम कहो कुंए में गिर पडो, तो हम दोनों अभी गिर पडते हैं । कहो - सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं । कुंवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर इतना बोले - अच्छा आप सिधारिए, मैं लिख भेजता हूं । पर मेरे उस लिखे को मेरे मुंह पर किसी ढब से न लाना । इसीलिए मैं मारे लाज के मुखपाट होके पडा था और आपसे कुछ न कहना था । यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे । तब कुंवर ने यह लिख भेजा - अब जो मेरा जी होंठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ-सौ रूप से खोल और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड के हाथ जोड के मुंह फाड के घिघिया के यह लिखता हूं-

चाह के हाथों किसी को सुख नहीं । है भला वह कौन जिसको दुख नहीं ॥ उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियां उठाए आ गई । उसके पीछे मैंने घोडा बगछुट फेंका । जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया । जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा । सुहानी सी अमराइयां ताड के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता-पत्त्ता मेरे जी का गाहक हुआ । वहां का यह सौहिला है । कुछ रंडियां झूला डाले झूल रही थीं । उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं । उन्होंने यह अंगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अंगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी । सो यह अंगूठी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुंचती है -

अब आप पढ लीजिए । जिसमें बेटे का जी रह जाय, सो कीजिए । महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से यों लिखा - हम दोनों ने इस अंगूठी और लिखौट को अपनी आंखों से मला । अब तुम इतने कुछ कुढो पचो मत । जो रानी केतकी के मां बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं । दोनों राज एक हो जाएंगे । और जो कुछ नांह - नूंह ठहरेगी तो जिस डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिला देंगे । आज से उदास मत रहा करो । खेलो, कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो । अच्छी घडी- शुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीत चाही ठीक कर लावे और शुभ घडी शुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के मां-बाप के पास भेजा । ब्राह्मन जो शुभ मुहूरत देखकर हडबडी से गया था, उस पर बुरी घडी पडी । सुनते ही रानी केतकी के मां-बाप ने कहा - हमारे उनके नाता नहीं होने का ।

भला उनके नाता होने से मेरा क्या लेना देना - सो भाई अपने कौतूहल को अभी लगाम लगावो । ,उधर केतकी की कहानी खतम होने का कोई डौल नहीं दिखता, और इधर मशीन की लिखौट करने से मेरी ऊँगलियाँ भी थकी जाती हैं । अगली बारी तक.. अपने हिय में धीर रखो, बाकी का किस्सा जल्द पूरा हुआ चाहता है ।

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