यह किस्सा गोरख जागा, मुंछदर जागा और मुंछदर भागा तक पहुँचाया, और धीरे धीरे ऎसे अड़चन आन पड़ी और ऎसी बान बनी कि हिरदय में एक छिन को लगता रानी केतकी की पूरी कहानी मेरे पन्नों पर कभी उतर कर न आ पावेगी । जिस घडी इसे पूरी करने की ठानता, एक न एक मुसीबतें आ खड़ी होती, मेरे सभी सोचे पर धूल मट्टी डाल कर सँग उड़ा ले जाती । गिनती के मेरे कदरदान मन में यह बैन करते कि मुआ मुँछदर भागा तो भागा अपने साथ साथ बाकी बचे किस्से को भी उड़ा ले गया । लाख लाख किरपा गुरु महराज की अब दुबारा से इस अधूरे किस्सा-बयानी को अदा करने का डौल लग रहा है । मत्था टेक कर दोहाई भैरोनाथ की अब बाकी का यह काम अँजाम होकर मुझे सूरज की गरमी में चाँद की सी ठँडक पहुँचाये । -अरज़मँद डा.अमर कुमार ..
( चाल हिन्दवी की - बयान माफ़ीनामा गैरहाज़िरी का और तर्ज़ इँशा अल्ला खाँ का )
तो, मित्रों भला अधूरी क्यों रह जाये यह’ रानी केतकी की कहानी ? अब आगे बढ़ते हैं
एक आंख की झपक में ( मुँछदर ) वहां आ पहुंचता है जहां दोनों महाराजों में लडाई हो रही थी । पहले तो एक काली आंधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई । किसी को अपनी सुध न रही । राजा सूरजभान के जितने हाथी घोडे और जितने लोग और भीडभाड थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया । राजा जगत परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योडे की बूंदों की नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पडने लगी । जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरुजी ने अतीतियों से कहा - उदैभान, सूरजभान, लछमीबास इन तीनों को हिरनी हिरन बना के किसी बन में छोड दो; और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड फोड दो । जैसा गुरुजी ने कहा, झटपट वही किया । विपत का मारा कुंवर उदैभान और उसका बाप वह राजा सूरजभान और उनकी मां लछमीबास हिरन हिरनी बन गए । हरी घास कई बरस तक चरते रहे; और उस भीड भाड का तो कुछ थल बेडा न मिला, किधर गए और कहां थे बस यहां की यहीं रहने दो ।
फिर सुनो । अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकास की सुनिए । उनके घर का घर गुरु जी के पांव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा - महाराज, यह आपने बडा काम किया । हम सबको रख लिया । जो आप न पहुंचते तो क्या रहा था । सबने मर मिटने की ठान ली थी । महाराज ने कहा - भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं । मुझे उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या जो करोर ( करोड़ ) जी हों तो दे डालें । रानी केतकी को डिबिया में से थोडा सा भभूत दिया । कई दिन तलक भी आंख मिचौवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोडों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके । रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदन बान का साथ देने से नहीं करना । एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से यों बोल उठी-अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे । मदनबान ने कहा-क्यों कर ? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया यह सब आँख-मिचौवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रखे थे । मदनबान बोली-मेरा कलेजा थरथराने लगा । अरी यह माना जो तुम अपनी आँखों में उस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा । और हम तुम सबको देखेंगी । पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं । जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पडी भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोडी नोची खसोटी उजडी उनकी सहेली है । चूल्हे और भाड में जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी माँ-बाप को राज-पाट सुख नींद लाज छोड कर नदियों के कछारों में फिरना पडे, सो भी बेडौल । जो वह अपने रूप में होते तो भला थोडा बहुत आसरा था । ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा ।
जो महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाडें और इनकी जो इकलौती लाडली बेटी है, उसको भगा ले जायें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ति खिलावें और अपने घोडें को हिलावें । जब तुम्हारे और उसके माँ बाप में लडाई हो रही थी और उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो, महाराजों को आपस में लडने दो, जो होनी हो सो हो; हम तुम मिलके किसी देश को निकल चलें; उस दिन समझीं । तब तो वह ताव भाव दिखाया । अब जो वह कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या जाने किधर होंगे । उनके ध्यान पर इतनी कर बैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने में न की, अच्छी नहीं । इस बात पर पानी डाल दो; नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी । मुझसे कुछ न हो सकेगा । तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलता । पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती । तुम अभी अल्हड हो । तुमने अभी कुछ देखा नहीं । जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर यह भभूत जो बह गया निगोडा भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी । रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुन हँ सकर टाल दिया और कहा-जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती है; पर कहने और करने में बहुत सा फेर है । भला यह कोई अँधेर है जो माँ बाप, रावपाट, लाज छोड कर हिरन के पीछे दौडती करछालें मारती फिरूँ । पर अरी ते तो बडी बावली चिडिया है जो यह बात सच जानी और मुझसे लडने लगी । रानी केतकी का भभूत लगाकर बाहर निकल जाना और सब छोटे बडों का तिलमिलाना दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से बाहर निकल गई । कुछ कहने में आता नहीं, जो मां-बाप पर हुई । सबने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा ।
महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट उस वियोग में छोड छाड के पहाड की चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने आँखों में से राज थामने को छोड गए । बहुत दिनों पीछे एक दिन महारानी ने महाराज जगतपरकास से कहा-रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी । उसे बुलाकर तो पूँछो । महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनबान ने सब बातें खोलियाँ । रानी केतकी के माँ बाप ने कहा-अरी मदनबान, जो तू भी उसके साथ होती तो हमारा जी भरता । अब तो वह तुझे ले जाये तो कुछ हचर पचर न कीजियो, उसको साथ ही लीजियो । जितना भभूत है, तू अपने पास रख । हम कहाँ इस राख को चूल्हें में डालेंगे । गुरूजी ने तो दोनों राज का खोज खोया-कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो रहे । जगतपरकास और कामलता को यों तलपट किया । भभूत न होत तो ये बातें काहे को सामने आती । मदनबान भी उनके ढूँढने को निकली । अंजन लगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पडी फिरती थी । फुनगे से लगा जड तलक जितने झाड झंखाडों में पत्ते और पत्ती बँधी थीं, उनपर रूपहरी सुनहरी डाँक गोंद लगाकर चिपका दिया और सबों को कह दिया जो सही पगडी और बागे बिन कोई किसी डौल किसी रूप से फिर चले नहीं । और जितने गवैये, बजवैए, भांड-भगतिए रहस धारी और संगीत पर नाचने वाले थे, सबको कह दिया जिस जिस गाँव में जहाँ हों अपनी अपनी ठिकानों से निकलकर अच्छे-अच्छे बिछौने बिछाकर गाते-नाचते घूम मचाते कूदते रहा करें । ढूँढना गोसाई महेंदर गिर का कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप को, न पाना और बहुत तलमलाना यहाँ की बात और चुहलें जो कुछ है, सो यहीं रहने दो ।
अब आगे यह सुनो। जोगी महेंदर और उसके 90 लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, पर कहीं कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का ठिकाना न लगा । तब उन्होंने राजा इंदर को चिट्ठी लिख भेजी । उस चिट्ठी में यह लिखा हुआ था-इन तीनों जनों को हिरनी हिरन कर डाला था । अब उनको ढूँढता फिरता हूँ । कहीं नहीं मिलते और मेरी जितनी सकत थी, अपनी सी बहुत कर चुका हूं । अब मेरे मुंह से निकला कुँवर उदैभान मेरा बेटा मैं उसका बाप और ससुराल में सब ब्याह का ठाट हो रहा है । अब मुझपर विपत्ति गाढी पडी जो तुमसे हो सके, करो । राजा इंदर चिट्ठी का देखते ही गुरू महेंदर को देखने को सब इंद्रासन समेट कर आ पहुँचे और कहा-जैसा आपका बेटा वैसा मेरा बेटा । आपके साथ मैं सारे इंद्रलोक को समेटकर कुँवर उदैभान को ब्याहने चढूँगा । गोसाई महेंदर गिर ने राजा इंद से कहा-हमारी आपकी एक ही बात है, पर कुछ ऐसा सुझाइए जिससे कुँवर उदैभान हाथ आ जावे । राजा इंदर ने कहा-जितने गवैए और गायनें हैं, उन सबको साथ लेकर हम और आप सारे बनों में फिरा करें। कहीं न कहीं ठिकाना लग जाएगा । गुरू ने कहा-अच्छा । हिरन हिरनी का खेल बिगडना और कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप का नए सिरे से रूप पकड ना एक रात राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर निखरी हुई चाँदनी में बैठे राग सुन रहे थे, करोडों हिरन राग के ध्यान में चौकडी भूल आस पास सर झुकाए खडे थे । इसी में राजा इंदर ने कहा-इन सब हिरनों पर पढ के मेरी सकत गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ के एक छींटा पानी का दो । क्या जाने वह पानी कैसा था । छीटों के साथ ही कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जनें हिरनों का रूप छोड कर जैसे थे वैसे हो गए । गोसाई महेंदर गिर और राजा इंदर ने उन तीनों को गले लगाया और बडी आवभगत से अपने पास बैठाया और वही पानी घडा अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मुंडवाते ही ओले पडे थे । राजा इंदर के लोगों ने जो पानी की छीटें वही ईश्वरोवाच पढ के दिए तो जो मरे थे सब उठ खडे हुए; और जो अधमुए भाग बचे थो, सब सिमट आए ।
देखता हूँ कि यह किस्सा लम्बा होता जाता है, ये बात उनसे कहो जिनने इस किस्से को बयान किया । कोई कोई का समय दिन का होगा तो वह रात को पढ़ेगा और किसी की रात बीतती होवेगी तो वह दिन को भी पढ़ लेगा । पर अब इसको आपके सामने रखने में मेरी रात गहराती जाती है, कुछ नींद भी आती है । सो आज यहीं रहने दो, बाकी अगली बार
6 सुधीजन टिपियाइन हैं:
कितनी रवानी हैं न इस किहिनयी में !
हम सवा सौ करोर पर भी उस पानी की छींटें पड़ जाती तो बढ़िया रहता.
जे बात.........इन किस्सों की रवानगी देखिये .....
कहानी की यह आरंभिक रवानी देखी। काशः यह बनी रह पाती।
चलने दीजियेगा आगे...हम वेतियाते हैं...:)
amar bhayee ,
jikr us .................ka aur fir bayan aapka .
kuchh to hai .
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !