दीपावली की शुभकामनाओं का आना आरम्भ हो चुका है । मेरे मन के किसी कोने में ठँसे हुये उलट चरित को यह क्यों लगता करता है कि ऎसे रस्मी बधाई सँदेश दाल-रोटी के ज़द्दोजहद में जुटे आम आदमी को कष्ट ही देती होंगी । इसके उत्तर में एक फीकी मुस्कुराहट के साथ, ज़वाब तो यही मिलने वाला होता है, " जी आपकी भी दिवाली शुभ हो ! " लेकर बधाई देने वाला भी इस सँतोष को सँग लिये आगे बढ़ जाता है, कि उसने सभ्य समाज की एक सामाजिक औपचारिकता का निर्वाह तो कर ही लिया । इतिश्री !
अभी कल शाम ही मेरा मैग़ज़ीन वेन्डर आया, कुछेक अन्य किताबों के साथ एक अन्य पत्रिका बढ़ाई, " जी, यह भी दे दूँ ? इसमें लक्ष्मी पूजा की विशेष विधि दी हुई है ! " मैंने अपना पीछा छुड़ाने को बोल दिया," राजेश इस वर्ष यह तुम्हीं कर लो, तुम लखपति हो जाओगे तो अगले साल इससे मैं भी पूजा कर लूँगा ।" उसने खिसिया कर अपना हाथ पीछे खींचते हुये कहा," डाक्टर साहब, आपौ मज़ाक करत हो, मेहनत करके खाये वाला अपयें परिवार को जिया ले, इत्तै बहुत समझौ । " इतने दिनों से आते जाते, वह मुँहलगा भी हो गया है, उसने आगे जोड़ा," लछमी मईया तो अब पिछले दरवज्जे से ही आती हैं, सच्ची बोल्यो साहेब अब उनहूँ का सीधा रस्ता नाहीं देखात है । " मुदित भाव से यह कहता हुआ वह लौट गया !
फिर तो मुझे भी मानसिक हलचल होता भया, और मैं पिछले वर्ष पढ़ी हुई इसी सँदर्भ की एक पोस्ट का लिंक टटोलने मे सफल रहा । लीजिये आप भी पढ़ें : ब्लॉगस्पॉट पर अक्टूबर 2007 में अन्यन्त्र प्रकाशित प्रेम जनमेजय की यह पोस्ट
तुम ऎसे क्यों आई लक्ष्मी
दीपावली पर लक्ष्मी पूजन आपलोग करते हैं, मेरा सारे वर्ष चलता है । फिर भी लक्ष्मी मुझपर कृपा नहीं करती , मैं लक्ष्मी वंदना करता हूँ हे भ्रष्टाचारप्रेरणी , हे कालाधनवासिनी, हे वैमनस्यउत्पादिनी, हे विश्वबैंकमयी, मुझपर कृपा कर ! बचपन में मुझे इकन्नी मिलती थी पर इच्छा चवन्नी की होती थी, परंतु तेरी चवन्नी भर कृपा कभी न हुई । यहाँ तक मुझमें चोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि की सदेच्छा भी पैदा न हुई वरना होनहार बिरवान के होत चिकने पात को सही सिद्ध करता हुआ मैं अपनी शैशवकालीन अच्छी आदतों के बल पर किसी प्रदेश का मंत्री / किसी थाने का थानेदार / किसी क्षेत्र का आयकर अधिकारी / आदि-आदि बन देश-सेवा का पुण्य कमाता और लक्ष्मी नाम की लूट ही लूटता । युवा में मैं सावन का अंधा ही रहा। जिस लक्ष्मी के पीछे दौड़ा, उसने बहुत जल्द आटे-दाल का भाव मुझे मालूम करवा दिया । हे कृपाकारिणी मुझपर इस प्रौढ़ावस्था में ही कृपा कर । मैं मानता हूँ कि मैंने मास्टर बनकर तेरी आराधना के समस्त द्वार बंद कर दिए हैं परंतु हे रिश्वतकेशी तेरे प्रताप से जेलों के ताले खुल जाते हैं, एक दीनहीन मास्टर के द्वार क्या चीज़ है । एक दरवाज़ा मेरी ही खोल दे ।
तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। पत्नी बोली, "सुनते हो, देखो शायद लक्ष्मी आई है ।" मैं मुद्रस्फीति-सा एकदम उठकर लक्ष्मी के स्वागत को बढ़ा परंतु रुपए की अवमूल्यन-सा लुढ़क गया । क्योंकि मेरी पत्नी ने जिस लक्ष्मी के स्वागत के लिए दरवाज़ा खोलने का अलिखित आदेश दिया था, वह उस समय के अनुसार हमारी कामवाली हो सकती थी जिसके स्वागत की परंपरा हमारे परिवारों में कतई नहीं है ।
"दरवाज़ा तुम ही खोल दो ।" मेरे स्वर में आम भारतीय की हताशा थी ।
पत्नी ने दरवाज़ा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे । उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था । लक्ष्मीकांत बोले, "भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मँगवाइए, बढ़िया चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए ।"
उसकी इस मँगवाइए/बनवाइए आदि योजनाओं पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा, "क्यों शर्मा, क्या तू विश्व बैंक का प्रतिनिधि है जो तेरा अभूतपूर्व स्वागत करने को हम बाध्य हों ?"
"यही समझ ले घोंचूलाल! देख, मैं भाभी जी से बात कर रहा हूँ, तू बीच में अपनी टाँग क्यों अड़ा रहा है ? भाभी जी, मैं आपके लिए हज़ारों रुपए मिलने की ख़बर लाया हूँ और ये है कि," लक्ष्मीकांत ने अमेरिकी स्वर में कहा ।
"तुम चुप रहो जी!" पत्नी ने ससम्मान मुझे डाँटा और लक्ष्मीकांत की तरफ़ मुस्कराकर देखा तथा कहा, "आप बैठिए न भाई साहब मैं अभी आपके लिए सब कुछ बनाकर लाती हूँ । आप हज़ारों मिलने वाली बात बताओ न ।" पत्नी में ऐसा सेवाभाव मैंने कभी नहीं देखा था ।
"भाभी जी, आपको याद होगा कि मैंने आपसे एक हज़ार रुपए लेकर एक कंपनी के शेयर भरवाए थे, उसका अलोटमेंट लैटर आ गया है ।"
"यानी हमारे हज़ार रुपए डूब गए । तुझे तो खुशी ही होगी हमारे रुपए डूबने की, तू हमारा सच्चा दोस्त जो है ।" मैंने इस मध्य आह भरी ।
"अरे बौड़म, रुपए डूबे नहीं हैं, उस हज़ार रुपए के तीन महीने में दस हज़ार हो गए हैं । कंपनी का दस रुपए का शेयर आज सौ में बिक रहा है सौ में कुछ समझे संत मलूकदास जी ।"
पत्नी विवाहित जीवन के पच्चीस वसंत देखने से पूर्व या तो चहकी थी या फिर उस दिन लक्ष्मीकांत उवाच के कारण चहकी और चहकते हुए उसने पूछा, "हमारे कितने शेयर हैं ।"
"सौ शेयर ।"
"सौ शेयर ! और अगर हम उन्हें बेचें तो हमें दस हज़ार रुपए मिलेंगे दस हज़ार ! अजी सुनते हो लक्ष्मी भैया की बदौलत हमें दस हज़ार मिलेंगे ।" ( सुधीजन नोट करें, धन लक्ष्मी मैया के अतिरिक्त लक्ष्मी भईया की बदौलत भी मिल सकता है । अत: हे संतों, सदैव लक्ष्मी का स्मरण करें । ) ये दस हज़ार हमें कब मिलेंगे लक्ष्मी मैया !"
"भाभी जहाँ इतना इंतज़ार किया वहाँ थोड़ा इंतज़ार और कर लो । आप देख लेना कुछ दिनों में ये दो-सौ नहीं तो डेढ़ पौने दो पर तो जाएगा ही । सिर्फ़ दस-पंद्रह दिन की बात है दौड़ते घोड़े को चाबुक नहीं मारनी चाहिए । आप तो अब पार्टी की तैयारी कर लो और पंद्रह बीस हज़ार गिनने की भी तैयार कर लो " लक्ष्मीकांत ने आशीर्वादात्मक मुद्रा में कहा ।
"पार्टी तो आप जितनी ले लो । पंद्रह-बीस हज़ार ! भाई साहब मुझे लगता है कि आप मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है । बेसन नहीं मैं आपके लिए ब्रजवासी की पिस्तेवाली बरफी मँगवाती हूँ कोला तो आपको पीकर ही जाना होगा । तुम आराम से सोफ़े पर क्या बैठे हो जल्दी से बाज़ार हो आओ हे भगवान !"
लक्ष्मीकांत तो अपना सत्कार करवा के चले गए परंतु हम पति-पत्नी एक अंतहीन बहस में उलझ गए । पत्नी अंतर्राष्ट्रीय सहायता कोषरूपा हो गई और उसने बजट बनाने के दिशा निर्देश मुझे जारी कर दिए । माता-पिता को भेजी जाने वाली राशि में कटौती करवाई, मुझसे अनेक वायदे लिए तथा चाय-पानी जैसी ज़रूरी चीज़ों को बेकार सिद्ध किया । पत्नी के सुप्रयत्नों से मेरा भुगतान-संतुलन बिगड़ गया और मित्रों की निगाह में दीन-हीन बन गया ।
भविष्य के लिए वह जो भी बजट बनाती, वह पंद्रह हज़ार से कम बन ही नहीं रहा था । पंद्रह अभी आए नहीं थे पर उसकी आशा में उधारी के छह-सात हज़ार शहीद हो चुके थे । बड़ी चादर की अपेक्षा में पैर फैल रहे थे । पत्नी रोज़ सुबह मुझे उठाती, हाथ में अख़बार पकड़ाती और जैसे मैं कभी माँ को रामायण सुनाया करता था वैसी ही श्रद्धा से पत्नी को शेयरों के भाव पढ़कर सुनाया करता । हम घंटों उस पेज को घूरते रहते । देश में कहाँ हत्या हो रही है, किसका घर जल रहा है और कौन जला रहा है ऐसे समाचारों में हमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी ।
जिस दिन शेयर का भाव बढ़ जाता उस दिन पत्नी अच्छा नाश्ता और भोजन खिलाती और जिस दिन घट जाता उस दिन घर में जैसे मातम छा जाता । बच्चे पिट जाते और पति-पत्नी के बीच महाभारत का लघु संस्करण खेला जाता । पत्नी का रक्तचाप पहले केवल मेरे कारण बढ़ता-घटता रहता था, आजकल शेयर बाज़ार की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती । महीना बीत गया ।
शेयर डेढ़ सौ पर जाने की बजाय साठ पर आ गया यानी नौ हज़ार का काग़ज़ी नुकसान हमें हो गया । पत्नी ने संतोषधन नामक मंत्र का जाप किया और आदेश दिया कि प्रिय तुम शेयर-संग्राम में जाओ और इसका कुछ कर आओ । मैंने लक्ष्मीकांत से अनुरोध किया तो उसने हमारी हड़बड़ी पर लेक्चर दे डाला तथा सहज पके सो मीठा होय नामक मंत्र का जाप करने को कहा । उसने आत्मविश्वासात्मक स्वर में कहा कि कंपनी के रिज़ल्ट अच्छे आने वाले हैं और तब यह निश्चित ही दो सौ पर जाएगा । हम अपना परिणाम भूल कंपनी के परिणाम पर ध्यान देने लगे । लक्ष्मीकांत ने हमारे मन में लालच का दीपक पुन: जगा दिया था । मेरा पढ़ना-लिखना बंद हो गया और मन विदेश-भ्रमण के लालच-सा सदैव शेयर बाज़ार के ईद-गिर्द ही मँडराता रहता ।
जिस तरह से लक्ष्मी भईया ने लक्ष्मी मैया के आने का धमाका किया था वैसे ही उसके जाने का किया । कंपनी के परिणाम ठीक नहीं आए, उसे घाटा हुआ था अत: शेयर लुढ़कता-फुड़कता ग्यारह पर आ टिका । हमने भागते चोर की लंगोटी नामक मुहावरे की सार्थकता सिद्ध की तथा शुक्र मनाया की गाँठ से पैसा नहीं गया । पत्नी ने सवा पाँच रुपए का प्रसाद चढ़ाया और ऋण भुगतान में जुट गया ।
अब मैं लक्ष्मी वंदना नहीं करता हूँ, बस लक्ष्मी मैया से एक प्रश्न करता हूँ तुमने आने का अभिनय क्यों किया लक्ष्मी ! कहीं तुम भी तो चुनाव नहीं लड़ने जा रही हो !"
पोस्ट आभार : तुम ऐसे क्यों आईं लक्ष्मी / ब्लॉगपृष्ठ : प्रेम जनमेजय / अक्टूबर 7, 2007
लेखक : प्रेम जनमेजय
6 सुधीजन टिपियाइन हैं:
अब इस पर टिप्पणी की गुंजाइश कहाँ रह गई है। बस इतना कह सकता हूँ कि दाल रोटी की जद्दोजहद के बीच कोई प्यार से कहता है कि दीपावली शुभ हो तो बुरा नहीं लगता। भला ही लगता है।
aapko deepawali ki bahut bahut shubhkaamnaayen.........
हमारे पडोस मे भी पिछले साल एक सज्जन ने रात भर पिछला दरवाजा खोल रखा था लक्ष्मी जी तो नही आई, चोर आ गये और जो लक्ष्मी थी वह भी ले गये । जय हो ।
गरीबी रेखा से नीचे वालों के लिये आपकी बात सही है । वरना
लक्ष्मी कौन सी रस्म और रिश्ते को प्रभावित नहीं करती ?
बच्चे बहुत खुश होते हैं । साफ़ सफ़ाई हो जाती है और रिश्ते कम से कम रिन्यू हो जाते हैं - "हम अभी बने हुए हैं दुनिया में" .
और जहां तक दाल - रोटी और खुशी का संबंध है तो जनरल डिब्बे में बैठने वाले ज्यादा खुश नजर आते हैं , एसी में बैठने वालों की अपेक्षा । क्योंकि समस्या तो सबकी दाल-रोटी ही है , बस उसके मायने अलग हैं । गरीब को मन मारकर रह जाना पडता है और अमीर को दिखावा करना पडता है । लगता है खुशी भी मैनेज करनी पडती है ।
असल में तो दीपावली प्रकाश पर्व ही है । दिया - अपार तिमिर से लडने का यथा सम्भव व्यक्तिगत प्रयास ।
व्यंग मजेदार है । शेरू लोगों के लिये ये आम बात है । जल्दी अमीर होना है तो बिना रिस्क के कैसे होगा ।
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें ।
ह.............................................म्म ,अच्छी कहानी है । जय हो लक्ष्मी भैया की ।
ड़ॉक्टर साहब, लक्ष्मी जी की तो नहीं अपने स्लॉग ओवर में दिया एक किस्सा यहां फिर दोहरा देता हूं...
सूखे की मार से पाकिस्तान के एक गांव में एक किसान परेशान हो गया...सोचा शहर जाकर मजदूरी ही कर लूं...बेचारा शहर आ गया...तन पर सिर्फ एक लंगोटी थी...किसान ने शहर में घुसते ही देखी...अब्दुल्ला राइस मिल...सौ कदम चला...फिर अब्दुल्ला कोल्ड स्टोर...थोड़ी दूर पर फिर अब्दुल्ला शापिंग काम्पलेक्स...अब्दुल्ला पैलेस...अब्दुल्ला ये...अब्दुल्ला वो...चौपले तक पहुंचते पहुंचते किसान को अब्दुल्ला जी कई जगह नज़र आ गए...चौपले पर पहुंच कर किसान ने ठंडी सांस लेकर अ्पनी लंगोटी उतारी और हवा में ये कहते हुए उछाल दी...जब तूने देना ही सब अब्दुल्ला को है तो ये भी अब्दुल्ला को दे दे...
जय हिंद...
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !