at-hindi-weblog

छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

पोस्ट सदस्यता हेतु अपना ई-पता भेजें

15 October 2009

दीपावली की शुभकामनाओं पर सवार माई लक्ष्मी

Technorati icon

From INTERNET दीपावली की शुभकामनाओं का आना आरम्भ हो चुका है  । मेरे मन के किसी कोने में ठँसे हुये उलट  चरित  को  यह  क्यों  लगता  करता  है  कि  ऎसे  रस्मी बधाई  सँदेश  दाल-रोटी के ज़द्दोजहद में जुटे आम आदमी को कष्ट ही देती होंगी । इसके उत्तर में एक फीकी मुस्कुराहट के साथ, ज़वाब तो यही मिलने वाला होता है, " जी आपकी भी दिवाली शुभ हो ! " लेकर बधाई देने वाला भी इस सँतोष को सँग लिये आगे बढ़ जाता है, कि उसने सभ्य समाज की एक सामाजिक औपचारिकता का निर्वाह तो कर ही लिया । इतिश्री !

अभी कल शाम ही मेरा मैग़ज़ीन वेन्डर आया, कुछेक अन्य किताबों के साथ एक अन्य पत्रिका बढ़ाई, " जी, यह भी दे दूँ ? इसमें लक्ष्मी पूजा की विशेष विधि दी हुई है ! " मैंने अपना पीछा छुड़ाने को बोल दिया," राजेश इस वर्ष यह तुम्हीं कर लो, तुम लखपति हो जाओगे तो अगले साल इससे मैं भी पूजा कर लूँगा ।" उसने खिसिया कर अपना हाथ पीछे खींचते हुये कहा," डाक्टर साहब, आपौ मज़ाक करत हो, मेहनत करके खाये वाला अपयें परिवार को जिया ले, इत्तै बहुत समझौ । " इतने दिनों से आते जाते, वह मुँहलगा भी हो गया है, उसने आगे जोड़ा," लछमी मईया तो अब पिछले दरवज्जे से ही आती हैं, सच्ची बोल्यो साहेब अब उनहूँ का सीधा रस्ता नाहीं देखात है । " मुदित भाव से यह कहता हुआ वह लौट गया !

फिर तो मुझे भी मानसिक हलचल होता भया,  और  मैं   पिछले  वर्ष  पढ़ी  हुई  इसी  सँदर्भ  की  एक  पोस्ट का  लिंक  टटोलने  मे  सफल  रहा । लीजिये  आप  भी  पढ़ें : ब्लॉगस्पॉट  पर  अक्टूबर  2007 में  अन्यन्त्र प्रकाशित प्रेम जनमेजय की यह पोस्ट

तुम ऎसे क्यों आई लक्ष्मी

दीपावली पर लक्ष्मी पूजन  आपलोग  करते  हैं, मेरा सारे वर्ष चलता है । फिर भी लक्ष्मी मुझपर कृपा नहीं करती , मैं लक्ष्मी वंदना करता हूँ हे भ्रष्टाचारप्रेरणी , हे कालाधनवासिनी,  हे वैमनस्यउत्पादिनी,  हे विश्वबैंकमयी, मुझपर कृपा कर ! बचपन में मुझे इकन्नी मिलती थी पर इच्छा चवन्नी की होती थी, परंतु तेरी चवन्नी भर कृपा कभी न हुई । यहाँ तक मुझमें चोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि की सदेच्छा भी पैदा न हुई वरना होनहार बिरवान के होत चिकने पात को सही सिद्ध करता हुआ मैं अपनी शैशवकालीन अच्छी आदतों के  बल  पर  किसी  प्रदेश  का  मंत्री / किसी  थाने का थानेदार / किसी क्षेत्र का आयकर अधिकारी / आदि-आदि बन देश-सेवा का पुण्य कमाता और लक्ष्मी नाम की लूट ही लूटता ।conelite_e0 4011_48ag_bar3_e0 युवा में मैं सावन का अंधा ही रहा। जिस लक्ष्मी के पीछे दौड़ा, उसने  बहुत  जल्द आटे-दाल का भाव मुझे मालूम करवा दिया । हे कृपाकारिणी मुझपर इस प्रौढ़ावस्था में ही कृपा कर । मैं मानता हूँ कि मैंने मास्टर बनकर तेरी आराधना के समस्त द्वार बंद कर दिए हैं परंतु हे रिश्वतकेशी तेरे प्रताप से जेलों के ताले खुल जाते हैं, एक दीनहीन मास्टर के द्वार क्या चीज़ है । एक दरवाज़ा मेरी ही खोल दे ।

तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। पत्नी बोली, "सुनते हो, देखो शायद लक्ष्मी आई है ।" मैं मुद्रस्फीति-सा एकदम उठकर लक्ष्मी के स्वागत को बढ़ा परंतु रुपए की अवमूल्यन-सा लुढ़क गया । क्योंकि मेरी पत्नी ने जिस लक्ष्मी के स्वागत के लिए दरवाज़ा खोलने का अलिखित आदेश दिया था, वह उस समय के अनुसार हमारी कामवाली हो सकती थी जिसके स्वागत की परंपरा हमारे परिवारों में कतई नहीं है ।
"दरवाज़ा तुम ही खोल दो ।" मेरे स्वर में आम भारतीय की हताशा थी ।

पत्नी ने दरवाज़ा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे । उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था । लक्ष्मीकांत बोले, "भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मँगवाइए, बढ़िया चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए ।"
उसकी इस मँगवाइए/बनवाइए आदि योजनाओं पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा, "क्यों शर्मा, क्या तू विश्व बैंक का प्रतिनिधि है जो तेरा अभूतपूर्व स्वागत करने को हम बाध्य हों ?"
"यही समझ ले घोंचूलाल! देख, मैं भाभी जी से बात कर रहा हूँ, तू बीच में अपनी टाँग क्यों अड़ा रहा है ? भाभी जी, मैं आपके लिए हज़ारों रुपए मिलने की ख़बर लाया हूँ और ये है कि," लक्ष्मीकांत ने अमेरिकी स्वर में कहा ।

"तुम चुप रहो जी!" पत्नी ने ससम्मान मुझे डाँटा और लक्ष्मीकांत की तरफ़ मुस्कराकर देखा तथा कहा, "आप बैठिए न भाई साहब मैं अभी आपके लिए सब कुछ बनाकर लाती हूँ । आप हज़ारों मिलने वाली बात बताओ न ।" पत्नी में ऐसा सेवाभाव मैंने कभी नहीं देखा था ।
"भाभी जी, आपको याद होगा कि मैंने आपसे एक हज़ार रुपए लेकर एक कंपनी के शेयर भरवाए थे, उसका अलोटमेंट लैटर आ गया है ।"
"यानी हमारे हज़ार रुपए डूब गए । तुझे तो खुशी ही होगी हमारे रुपए डूबने की, तू हमारा सच्चा दोस्त जो है ।" मैंने इस मध्य आह भरी ।
"अरे बौड़म, रुपए डूबे नहीं हैं, उस हज़ार रुपए के तीन महीने में दस हज़ार हो गए हैं । कंपनी का दस रुपए का शेयर आज सौ में बिक रहा है सौ में कुछ समझे संत मलूकदास जी ।"
पत्नी विवाहित जीवन के पच्चीस वसंत देखने से पूर्व या तो चहकी थी या फिर उस दिन लक्ष्मीकांत उवाच के कारण चहकी और चहकते हुए उसने पूछा, "हमारे कितने शेयर हैं ।"
"सौ शेयर ।"
"सौ शेयर ! और अगर हम उन्हें बेचें तो हमें दस हज़ार रुपए मिलेंगे दस हज़ार ! अजी सुनते हो लक्ष्मी भैया की बदौलत हमें दस हज़ार मिलेंगे ।" ( सुधीजन नोट करें, धन लक्ष्मी मैया के अतिरिक्त लक्ष्मी भईया की बदौलत भी मिल सकता है । अत: हे संतों, सदैव लक्ष्मी का स्मरण करें । )  ये दस हज़ार हमें कब मिलेंगे लक्ष्मी मैया !"

"भाभी जहाँ इतना इंतज़ार किया वहाँ थोड़ा इंतज़ार और कर लो । आप देख लेना कुछ दिनों में ये दो-सौ नहीं तो डेढ़ पौने दो पर तो जाएगा ही । सिर्फ़ दस-पंद्रह दिन की बात है दौड़ते घोड़े को चाबुक नहीं मारनी चाहिए । आप तो अब पार्टी की तैयारी कर लो और पंद्रह बीस हज़ार गिनने की भी तैयार कर लो " लक्ष्मीकांत ने आशीर्वादात्मक मुद्रा में कहा ।

"पार्टी तो आप जितनी ले लो । पंद्रह-बीस हज़ार ! भाई साहब मुझे लगता है कि आप मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं, मुझे  तो  विश्वास  ही  नहीं  हो  रहा  है । बेसन नहीं मैं आपके लिए ब्रजवासी की पिस्तेवाली बरफी मँगवाती हूँ कोला तो आपको पीकर ही जाना होगा । तुम आराम से सोफ़े पर क्या बैठे हो जल्दी से बाज़ार हो आओ हे भगवान !"

लक्ष्मीकांत तो अपना सत्कार करवा के चले गए परंतु हम पति-पत्नी एक अंतहीन बहस में उलझ गए । पत्नी अंतर्राष्ट्रीय सहायता कोषरूपा हो गई और उसने बजट बनाने के दिशा निर्देश मुझे जारी कर दिए । माता-पिता को भेजी जाने वाली राशि में कटौती करवाई, मुझसे अनेक वायदे लिए तथा चाय-पानी जैसी ज़रूरी चीज़ों को बेकार सिद्ध किया । पत्नी के सुप्रयत्नों से मेरा भुगतान-संतुलन बिगड़ गया और मित्रों की निगाह में दीन-हीन बन गया ।

भविष्य के लिए वह जो भी बजट बनाती, वह पंद्रह हज़ार से कम बन ही नहीं रहा था । पंद्रह अभी आए नहीं थे पर उसकी आशा में उधारी के छह-सात हज़ार शहीद हो चुके थे । बड़ी चादर की अपेक्षा में पैर फैल रहे थे । पत्नी रोज़ सुबह मुझे उठाती, हाथ में अख़बार पकड़ाती और जैसे मैं कभी माँ को रामायण सुनाया करता था वैसी ही श्रद्धा से पत्नी को शेयरों के भाव पढ़कर सुनाया करता । हम घंटों उस पेज को घूरते रहते । देश में कहाँ हत्या हो रही है, किसका घर जल रहा है और कौन जला रहा है ऐसे समाचारों में हमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी ।

जिस दिन शेयर का भाव बढ़ जाता उस दिन पत्नी अच्छा नाश्ता और भोजन खिलाती और जिस दिन घट जाता उस दिन घर में जैसे मातम छा जाता । बच्चे पिट जाते और पति-पत्नी के बीच महाभारत का लघु संस्करण खेला जाता । पत्नी का रक्तचाप पहले केवल मेरे कारण बढ़ता-घटता रहता था, आजकल शेयर बाज़ार की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती । महीना बीत गया ।

शेयर डेढ़ सौ पर जाने की बजाय साठ पर आ गया यानी नौ हज़ार का काग़ज़ी नुकसान हमें हो गया । पत्नी ने संतोषधन नामक मंत्र का जाप किया और आदेश दिया कि प्रिय तुम शेयर-संग्राम में जाओ और इसका कुछ कर आओ । मैंने लक्ष्मीकांत से अनुरोध किया तो उसने हमारी हड़बड़ी पर लेक्चर दे डाला तथा सहज पके सो मीठा होय नामक मंत्र का जाप करने को कहा । उसने आत्मविश्वासात्मक स्वर में कहा कि कंपनी के रिज़ल्ट अच्छे आने वाले हैं और तब यह निश्चित ही दो सौ पर जाएगा । हम अपना परिणाम भूल कंपनी के परिणाम पर ध्यान देने लगे । लक्ष्मीकांत ने हमारे मन में लालच का दीपक पुन: जगा दिया था । मेरा पढ़ना-लिखना बंद हो गया और मन विदेश-भ्रमण के लालच-सा सदैव शेयर बाज़ार के ईद-गिर्द ही मँडराता रहता ।

जिस तरह से लक्ष्मी  भईया ने लक्ष्मी मैया के आने का धमाका किया था वैसे ही उसके जाने का किया । कंपनी के परिणाम ठीक नहीं आए, उसे घाटा हुआ था अत: शेयर लुढ़कता-फुड़कता ग्यारह पर आ टिका । हमने भागते चोर की लंगोटी नामक मुहावरे की सार्थकता सिद्ध की तथा शुक्र मनाया की गाँठ से पैसा नहीं गया । पत्नी ने सवा पाँच रुपए का प्रसाद चढ़ाया और ऋण भुगतान में जुट गया ।
अब मैं लक्ष्मी वंदना नहीं करता हूँ, बस  लक्ष्मी  मैया  से  एक  प्रश्न  करता  हूँ  तुमने  आने  का  अभिनय क्यों  किया  लक्ष्मी ! कहीं तुम भी तो चुनाव नहीं लड़ने जा रही हो !"

पोस्ट आभार : तुम ऐसे क्यों आईं लक्ष्मी / ब्लॉगपृष्ठ : प्रेम जनमेजय / अक्टूबर 7, 2007 
लेखक : प्रेम जनमेजय

 
इससे आगे

13 October 2009

जारी है.. रानी केतकी की कहानी

Technorati icon
VIVIDHA-thumb
कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था । उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुंवर उदैभान करके पुकारते थे । सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्त्रोत आ मिली थी । उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके । पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था । कुछ यों ही सी मसें भीनती चली  थीं ।   पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था । एक दिन हरियाली देखने को अपने घोडे पर चढ के अठखेल और अल्हड पन के साथ देखता भालता चला जाता था । इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ । उस  हिरनी  के  पीछे  सब  छोड  छाड कर घोडा फेंका । कोई घोडा उसको पा सकता था ? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुंवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जै भाइयाँ, अँगडाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने । इतने में कुछ एक अमराइयां देख पडी, तो उधर चल निकला;
तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियां एक से एक जोबन में अगली झूला डाले पडी झूल रही हैं और सावन गातियां हैं । ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन ? तू कौन ? की चिंघाड सी पड गई । उन सभी में एक के साथ उसकी आँख लग गई । कोई कहती थी यह उचक्का है । कोई कहती थी एक पक्का है ।
वही झूले वाली लाल जोडा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया । पर कहने-सुनने की बहुत सी नांह-नूह की और कहा -इस लग चलने को भला क्या कहते हैं !  हक न धक, जो तुम झट से टहक पडे । यह न जाना, यह रंडियां अपने झूल रही हैं । अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधडक चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ । तब कुंवर ने मसोस के मलीला खाके कहा - इतनी रुखाइयां न कीजिए । मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड की छांह में ओस का बचाव करके पडा रहूंगा । बडे तडके धुंधलके में उठकर जिधर को मुंह पडेगा चला जाऊंगा।  कुछ किसी का लेता देता नहीं । एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड छाड कर घोडा फेंका था।  कोई घोडा उसको पा सकता था ? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में  था ।  जब अंधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूंढ कर यहां चला आया हूं । कुछ रोकटोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुका रहता । सिर उठाए हां पता चला आया ।  क्या जानता था - वहां पदिमिनियां पडी झूलती पेंगे चढा रही हैं । पर यों बढी थी, बरसों मैं भी झूल करूंगा ।
यह बात सुनकर वह जो लाल जोडे वाली सबकी सिरधरी थी, उसने कहा - हाँ जी, बोलियां ठोलियां न मारो और इनको कह दो जहां जी चाहे, अपने पडे रहें, ओर जो कुछ खानेको मांगें, इन्हें पहुंचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुंहका डौल, गाल तमतमाए और होंठ पपडाए, और घोडे का हांफना, ओर  जी  का  कांपना और ठंडी सांसें भरना, और निढाल हो गिरे पडना इनको सच्चा करता है । बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपती नहीं । पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपडे लत्ते की कर  दो । इतना आसरा पाके सबसे परे जो कोने में पांच सात पौदे थे, उनकी  छांव  में  कुंवर  उदैभान  ने  अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर  नींद कोई चाहत की लगावट में आती थी ? पडा पडा अपने जी से बातें कर रहा था ।
जब रात सांय-सांय बोलने लगी और साथ वालियां सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा - अरी ओ! तूने कुछ सुना है ? मेरा जी उस पर आ गया है; और किसी डौल से थम नहीं सकता । तू सब मेरे भेदों को जानती है । अब होनी जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय । मैं उसके पास जाती हूं । तू मेरे साथ चल । पर तेरे पांवों पडती हूं कोई सुनने न  पाए ।  अरी यह मेरा जोडा मेरे और उसके बनाने वाले ने मिला दिया । मैं इसी जी में इस अमराइयों में आई थी । रानी केतकी मदनबान का हाथ पकडे हुए वहां आन पहुंची, जहां  कुंवर  उदैभान  लेटे  हुए  कुछ-कुछ  सोच  में  बड-बडा  रहे  थे । मदनबान आगे बढके कहने लगी - तुम्हें अकेला जानकर रानी जी आप आई हैं । कुंवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा - क्यों न हो, जी को जी से मिलाप है ? कुंवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे; पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी । होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी मां रानी कामलता कहलाती है । उनको उनके मां बाप ने कह दिया है - एक महीने अमराइयों में जाकर झूल आया करो । आज वहीं दिन था; सो  तुमसे  मुठभेड  हो  गई । बहुत महाराजों के कुंवरों से बातें आई, पर  किसी  पर  इनका  ध्यान  न  चढा । तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लडकपन की गोइयां हूं । मुझे अपने साथ लेके आई है । 
अब तुम अपनी बीती कहानी कहो - तुम किस देस के कौन हो । उन्होंने कहा - मेरा बाप राजा सूरजभान और मां रानी लक्ष्मीबास हैं । आपस में जो गठजोड हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं । यों ही आगे से होता चला आया है । जैसा मुँह वैसा थप्पड ।  जोड  तोड  टटोल  लेते  हैं । दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गठजोड चाहिए । इसी में मदनबान बोल उठी - सो तो हुआ । अपनी अपनी अंगूठियां हेरफेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो । फिर कुछ हिचर-मिचर न रहे । कुंवर उदैभान ने अपनी अंगूठी रानी केतकी को पहना दी और रानी ने भी अपनी अंगूठी कुंवर की उंगली में डाल दी और एक धीमी सी चुटकी भी ले ली । इसमें मदनबाल बोली जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई । मेरे सिर चोट   है,   इतना बढ चलना अच्छा नहीं । अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएं तो पडे रोने दो । बातचीत तो ठीक हो चुकी ।
पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुंवर उदैभान अपने घोडे की पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुंचे । कुंवर ने चुपके से यह कहला भेजा - अब मेरा कलेजा टुकडे-टुकडे हुए जाता है । दोनों महाराजाओं को आपस में लडने दो । किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास बुला लो । हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय । एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुंवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखडी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुंचा दी । रानी ने उस चिट्ठी को अपनी आंखों से लगाया और मालिन को एक थाल भरके मोती दिए; और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुंह की पीक से यह लिखा -ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर चील-कौवों को दे डाले, तो भी मेरी आंखों चैन और कलेजे सुख हो । पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं ।
इसमें एक बाप दादे के चिट लग जाती है; अब  जब  तक  मां  बाप  जैसा  कुछ  होता  चला  आता  है उसी डोल से  बेटे-बेटी  को  किसी  पर  पटक  न  मारें  और  सिर  से  किसी  के  चेपक  न  दें, तब  तक  यह एक      जी    तो   क्या, जो  करोड  जी  जाते  रहें  तो  कोई  बात  हैं  रुचती  नहीं । यह चिट्ठी जो बिस भरी कुंवर तक जा पहुंची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है । और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है और उस चिट्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बांध लेता है । आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड पर से और कुंवर उदैभान और उसके मां-बाप को हिरनी हिरन कर डालना जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलाश पहाड पर रहता था, लिख भेजता है- कुछ हमारी सहाय कीजिए । महाकठिन बिपता भार हम पर आ पडी है । राजा सूरजभान को अब यहां तक वाव बॅहक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है ।
सराहना जोगी जी के स्थान का कैलास पहाड जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लोग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई 90 लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था । सोना, रूपा, तांबे, रॉगे का बनाना तो क्या और गुटका मुंह में लेकर उड ना परे  रहे, उसको  और  बातें  इस  इस  ढब  की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं । मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था । गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकडते थे । सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था । उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियां आठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोडे खडी रहती थीं ।
और वहां अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे- भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप । और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं-गुजरी, टोडी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली । जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उडाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुंह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे ।
जिस घडी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर पहुंचा देता है, गुरु महेंदर गिर एक चिग्घाड मारकर दल बादलों को ढलका देता है ।  बघंबर  पर  बैठे  भभूत  अपने  मुंह  से  मल  कुछ  कुछ  पढंत  करता हुआ  बाण  घोडे  भी  पीठ  लगा  और  सब  अतीत  मृगछालों  पर  बैठे  हुए  गुटके  मुंह  में  लिए  हुए  बोल  उठे - गोरख जागा और मुंछदर जागा और मुंछदर भागा ।  बस यहां की यहीं रहने दो । फिर कल सुनो ….

इससे आगे

7 October 2009

सुकुल पाकड़ के बहाने ईँशा अल्लाह - रानी केतकी की कहानी

Technorati icon
VIVIDHA-thumb

प्रसँगतः यह सूत्रपात : मेरे  सह-कर्मचारी  अवधेश द्विवेदी  का  रविवार  को  सुबह सुबह  फोन   आया कि, " सर  मैं  अभी  नहीं  आ  पाऊँगा,  बाबू  ने  मेले  में  दुकान  लगायी  है, उनकी  सहायता  करनी  है ।" अवधेश  फ़ैज़ाबाद  और  बस्ती   की  सीमा  पर  बसे  एक  गाँव  से हैं । कल  शाम  लौट  कर  उन्होंनें  बताया  कि ’ सुकुल पाकड़ ’ का मेला था ।

सहसा ध्यान आया कि बस्ती से लगभग 20-25 किलोमीटर पर गाँव अगौना तो मैं भी 2003 में जा चुका हूँ , सहज उत्सुकतावश, प्रयोजन केवल ’ सुकुल पाकड़ ’ देखने का ही था । कुछ ख़ास नहीं, एक चबूतरे के मध्य विशाल पाकड़ का पेड़, किन्तु कुछ ख़ास भी क्योंकि इस पेड़ के नीचे ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी भाषा का इतिहास, रस मीमाँसा, रहस्यवाद के तत्व को रचने एवँ जायसी ग्रँथावली, गोस्वामी तुलसीदास को सँकलित करने  की साधना की थी ।

उनके दोनों पुत्र तो अब मिर्ज़ापुर और बनारस में बस गये हैं,किन्तु गाँव वाले हर वर्ष कार्तिक के पहले दिन हिन्दी तिथिनुसार उनके जन्मदिन पर एक मेला ’ शुक्ल मेला ’ कहिये कि सुकुल मेला आयोजित करते हैं । वह सरकारी प्रश्रय या हिन्दी सँस्थान के सहायता की बाट नहीं जोहते । यह एक अनुकरणीय मिसाल है ।

और एक अकारण स्पष्टीकरण : हिन्दी  दिवस  और  पखवाड़े  के  बाद  इस  पर  एक  पोस्ट  का सँयोजन  किया  था, पर   एक   अनाम  अनिच्छा  के  चलते  प्रकाशित  नहीं  किया । कल  शाम  अगौना  के ग्रामवासियों के गर्व और उत्साह का उदाहरण देख यह लगा कि देर से सही मुझे अपना भूलसुधार कर ही लेना चाहिये ।

 अस्तु ईँशा अल्लाह : हमारा देश पखवाड़ा प्रधान देश है । अभी अभी हिन्दी पखवाड़ा गुज़र के जा चुका है । बड़ी  तकरीरें  हुईं  होंगी, सेमिनार  गोष्ठियों  का  बिल  भी  पास  हो  चुका होगा । गणमान्य अतिथियों ने अपने पिछले वर्ष के भाषण को थोड़ा हेर-फेर के साथ श्रोताओं के कान में उड़ेला होगा । बीकानेर प्राधिकरण के वेबसाइट पर दिये गये एक तकरीर की बानगी देखिये ।

" ..... .. निदेशक डा. के. एम. एल. पाठक ने कहा कि हिन्दी के माध्यम से ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन को सार्थक अभिव्यक्ति मिली थी। वस्तुत: हिन्दी को आगे बढ़ने में किसी दूसरी भाषा से प्रतिद्वन्द्विता नहीं है। केन्द्र की हिन्दी गृह पत्रिका मरुवाणी के 11 वें अंक को लोकार्पित कर उन्होंने कहा कि हिन्दी हमारी संस्कृति है, हिन्दी को लेकर कोई बहस करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। "

दूसरी तरफ़ प्रमोद ताम्बट साहब कनाडा की हिन्दी साप्ताहिकी Hindiabroad के  स्टाफ़ लेखक  फ़िरोज़ ख़ान के सँदर्भ से फरमाते हैं कि, " यह पखवाड़ा है, बीच बाज़ार में इसे घायल पड़ा देखकर मातमपुर्सी करने के लिए । जिसे मर्ज़ी हो मातमपुर्सी करे या फिर चाहे तो नजरें बचा कर निकल जाए । "

अब यह सवाल उठना लाज़िमी है, कि आख़िर जिसे हिन्दी कहा जाता है, वह क्या है ? इसका वर्तमान स्वरूप सर्वग्राह्य नहीं हो पा रहा है क्योंकि अपने देश के  भाषा विशेषज्ञों का तो दुनिया में कोई सानी ही नहीं है। उन्होंने हमेशा चौकस रहते हुए इस बात का ध्यान रखा कि कैसे हिन्दी को ना समझ में आने वाली क्लिष्टतम भाषा बनाए रखा जा सके ताकि लोग अपनी राष्ट्र भाषा को जन्म-जन्मान्तर तक समझ ही ना पाएँ और इससे बिदककर अंग्रेजी की शरण में जा खडे़ हों या गाली- गलौच की सुप्रचलित भाषा का आदान-प्रदान कर अभिव्यक्ति की अपनी समस्या खुद ही सुलझा लें, और भूलकर भी हिन्दी के दरवाज़े पर आकर खड़े ना हों ।
इससे एक दूसरा सवाल निकल कर आता है कि, हिन्दी  का  प्रारँभिक  स्वरूप  जिसे  जनजन ने हाथों-हाथ लिया था , वह कैसी रही होगी ? मेरी खोजबीन की सनक का एक दौर आरँभ हुआ, और.. 
अब तक मेरा ज्ञान यहीं तक सीमित था कि, हिन्दी की पहली कहानी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की ’ उसने कहा था ’ है । अभी हाल में मेरी एक स्वनामधन्य से नोंक-झोंक हो गयी, हम एकमत नहीं हो पा रहे थे । अँत में उन्होंने अपनी खीझ यह कह कर निकाली कि, " तो,  तुम लटके रहो अपने ही ज्ञान की फ़ुनगी पर... पर कम से कम इसे शिखर समझने का भ्रम भी न रखो । "  अपने  सीमित  ज्ञान   को  विस्तार  देते  रहने  की मेरी सनक ने ललकारा, ’ चल रे डाक्टर, जरा और गहरे पानी पैठ !" और.. यह प्रयास व्यर्थ न गया । एक अनोखे और नये तरह के उद्गार से रूबरु हुआ ।

एक  अनोखी  बात  का  एक  दिन  बैठे-बैठे  यह  बात  अपने  ध्यान  में  चढी  कि  कोई  कहानी  ऐसी कहिए कि जिसमें  हिंदणी  छुट  और  किसी  बोली  का  पुट  न  मिले, तब जाके  मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले । बाहर  की  बोली  और  गँवारी कुछ उसके बीच में न हो । अपने मिलने वालों में से एक कोई पढे-लिखे, पुराने  धुराने,  डाँग,  बूढे घाग  यह खटराग लाए । सिर हिलाकर, मुंह थुथाकर, नाक भी चढाकर आंखें फिरा  कर  लगे  कहने -  यह बात होते दिखाई नहीं देती । हिंदणीपन भी निकले और भाखापन भी न हो ।  बस  जैसे  भले  लोग अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों  का  त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी   की  न  हो,  यह  नहीं  होने  का । " 

मुझे लगता है  कि,  यह ललकार स्वीकार की गयी, और...
लखनऊ के एक अदीब ने आज लगभग खँडहर हो चुके अहाते ड्योढ़ी आग़ाबाक़र के ज़नाब सैय्यद इब्ने इँशा अल्लाह खाँ ने लगभग  सन 1801 या 1803 में ’ रानी केतकी की कहानी ’ लिखी  । एक सँदर्भ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का भी दिया गया, किन्तु  वह  मुझे ढ़ूढ़ें न मिला । बाबू श्याम सुन्दर दास ने अवश्य इसे हिन्दी यानि कि खड़ी बोली की पहली कहानी माना है, अलबत्ता इसकी लिपि उर्दू है, और इसकी प्रति लखनऊ विश्वविद्यालय की टैगोर लाइब्रेरी में बाल साहित्य में पड़ी हुई है | उन दिनों किस्सों अफ़सानों का स्वरूप सँभवतः ऎसा ही रहा करता होगा, इसलिये  अपने  आकार  प्रकार  में यह आधुनिक लँबी कहानी में रखी जा सकती है । अपनी टँकण क्षमता और पाठकों की सुविधा के दृष्टिगत इस कहानी को चार हिस्सों में बाँटने के लिये विवश हूँ 

रानी केतकी की कहानी

सिर झुकाकर नाक रगडता हूं उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया । आतियां जातियां जो साँ सें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँ से हैं । यह कल का पुतला जो अपने उस खिलाडी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पडे और कडवा कसैला क्यों हो । उस फल की मिठाई चक्खे जो बडे से बडे अगलों ने चक्खी है । देखने को दो आँखें दीं ओर सुनने को दो कान । नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान ।। मिट्टी के बसान को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड सके । सच हे, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनाने वाले को क्या सराहे और क्या कहें । यों जिसका जी चाहे, पडा बके । सिर से लगा पांव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियां खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करें ।

इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूं उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिए यों कहा है- जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है । मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लडके वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है । और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता । मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से क्या पडी ! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूं तीसों घडी ।

डौल डाल एक अनोखी बात का एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदणी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले । बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो । अपने मिलने वालों में से एक कोई पढे-लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढे धाग यह खटराग लाए । सिर हिलाकर, मुंह थुथाकर, नाक भी चढाकर आंखें फिराकर लगे कहने - यह बात होते दिखाई नहीं देती । हिंदणीपन भी निकले और भाखापन भी न हो । बस जैसे भले लोग अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नहीं होने का । मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर झुंझलाकर कहा - मैं कुछ ऐसा बढ-बोला नहीं जो राई को परबत कर दिखाऊं, जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकलता ? जिस ढब से होता, इस बखेडे को टालता ।

इस कहानी का कहने वाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है । दहना हाथ मुँह फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूंद-फाँद, लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आपके ध्यान का घोडा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अल्हडपन में है, हिरन के रूप में अपनी चौकडी भूल जाए । टुक घोडे पर चढ के अपने आता हूं मैं । करतब जो कुछ है, कर दिखाता हूं मैं ॥ उस चाहने वाले ने जो चाहा तो अभी । कहता जो कुछ हूं । कर दिखाता हूं मैं ॥ अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर देखिए, किस ढंग से बढ चलता हूं और अपने फूल के पंखडी जैसे होंठों से किस-किस रूप के फूल उगलता हूँ । जारी है…

इससे आगे
इन रचनाओं के यहाँ होने का मतलब
अँतर्जाल एवं मुद्रण से समकालीन साहित्य के
चुने हुये अँशों का अव्यवसायिक सँकलन

(संकलक एवं योगदानकर्ता के निताँत व्यक्तिगत रूचि पर निर्भर सँग्रह !
आवश्यक नहीं, कि पाठक इसकी गुणवत्ता से सहमत ही हों )

उत्तम रचनायें सुझायें, या भेजे !

उद्घृत रचनाओं का सम्पूर्ण स्वत्वाधिकार सँबन्धित लेखको एवँ प्रकाशकों के आधीन
Creative Commons License
ThisBlog by amar4hindi is licensed under a
Creative Commons Attribution-Non-Commercial-Share Alike 2.5 India License.
Based on a works at Hindi Blogs,Writings,Publications,Translations
Permissions beyond the scope of this license may be available at http://www.amar4hindi.com

लेबल.चिप्पियाँ
>

डा. अनुराग आर्य

अभिषेक ओझा

  • सरल करें! - बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था – “अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।” यादों का ऐसा है कि क...
    2 years ago
  • तुम्हारा दिसंबर खुदा ! - मुझे तुम्हारी सोहबत पसंद थी ,तुम्हारी आँखे ,तुम्हारा काजल तुम्हारे माथे पर बिंदी,और तुम्हारी उजली हंसी। हम अक्सर वक़्त साथ गुजारते ,अक्सर इसलिए के, हम दोनो...
    4 years ago
  • मछली का नाम मार्गरेटा..!! - मछली का नाम मार्गरेटा.. यूँ तो मछली का नाम गुडिया पिंकी विमली शब्बो कुछ भी हो सकता था लेकिन मालकिन को मार्गरेटा नाम बहुत पसंद था.. मालकिन मुझे अलबत्ता झल...
    9 years ago

भाई कूश