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छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

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27 September 2009

क्राँति की तलवार - इन्क़लाब ज़िन्दाबाद

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शहीद भगत सिंह जन्मदिन पर विशेष

From INTERNET

अलीपुर बमकाँड के आरोपी श्री यतीन्द्रनाथ दास 63 दिन के  singh_b_unshavenआमरण  अनशन  के  पश्चात   ब्रह्मलीन हो गये  । सँभवतः ब्रिटिश सरकार उनको मिसगाइडेड हूलीगन से अधिक कुछ और न मानती थी । यह इसलिये भी कि शायद न तो इनका कोई राजनैतिक कद बन पाया था और न ही इनके सत्याग्रह को कोई राजनैतिक समर्थन मिल सका । नेतृत्व स्तर पर यह उपेक्षित रखे गये । इसके बावज़ूद भी आम जनता ने इनकी मृत्यु को शहादत का दर्ज़ा दिया और पूरे देश में इन्क़लाब ज़िन्दाबाद की लहर गूँज उठी । यह इन्क़लाब का सही मायनों में सूत्रपात था, जब यह नारा खुल कर प्रयोग हुआ । इस नारे के औचित्य पर अँग्रेज़ी सरकार तो क्या भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी प्रश्नचिन्ह लगाये और इसकी भरपूर आलोचना हुई । इनमें मार्डन रिव्यू के सम्पादक रामानन्द चट्टोपाध्याय प्रमुख थे । भगत सिंह और बी.के.दत्त (  बटुकेश्वर दत्त ) ने सम्पादक को इसका जोरदार उत्तर दिया । प्रस्तुत है, इस पत्र का अविकल रूप, जिसमें वह स्पष्ट करते हैं कि’ इन्क़लाब ज़िन्दाबाद क्या है ? ’Bhagat_singh_Batukeshwer

श्री सम्पादक जी,                                                                                                            मार्डन रिव्यू

आपने अपने सम्मानित पत्र के दिसम्बर, 1929 के अँक में एक टिप्पणी ’ इन्क़लाब ज़िन्दाबाद ’ शीर्षक से लिखी है और इस नारे को निरर्थक ठहराने की चेष्टा की है । आप सरीखे परिपक्व विचारक तथा अनुभवी और यशश्वी सम्पादक की रचना  में  दोष  निकालना  तथा  उसका  प्रतिवाद  करना, जिसे  प्रत्येक भारतीय सम्मान की दृष्टि से देखता है, हमारे  लिये  एक  बड़ी  घृष्टता  होगी । तो भी इस प्रश्न का उत्तर देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि इस नारे से हमारा क्या अभिप्राय है ।

यह आवश्यक है, क्योंकि  इस  देश  में इस  समय  इस  नारे  को  सब लोगों  तक  पहुँचाने  का  कार्य  हमारे हिस्से में अया है । इस नारे की रचना हमने नहीं की है । यही नारा रूस के क्राँतिकारी आँदोलन में प्रयोग किया गया था है । प्रसिद्ध समाजवादी लेखक अप्टन सिक्लेयर ने अपने उपन्यासों ’ बोस्टन ’ और ’ आईल ’ में यही नारा कुछ अराजकतावादी क्रान्तिकारी पात्रों के मुख से प्रयोग कराया है । इसका अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सशस्त्र सँघर्ष सदैव जारी रहे और कोई भी व्यवस्था अल्प समय के लिये भी स्थायी न रह सके, दूसरे शब्दों में- देश  और समाज में अराजकता फैली रहे ।

दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऎसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है, जो सँभव है कि भाषा के नियमों  एवँ  कोष  के  आधार  पर  इसके  शब्दों  से  उचित  तर्कसम्मत  रूप  से  सिद्ध  न  हो  पाये, परन्तु   इसके  साथ  ही  इस  नारे  से  उन  विचारों को पृथक नहीं किया जा  सकता, जो  इसके साथ जुड़े हुये हैं । ऎसे समस्त नारे एक ऎसे स्वीकृत अर्थ के द्योतक हैं, जो  एक  सीमा  तक  उनमें  उत्पन्न  हो  गये  हैं तथा एक सीमा तक उसमें निहित है ।

उदाहरण के लिये हम यतीन्द्रनाथ ज़िन्दाबाद का नारा लगाते हैं । इससे हमारा तात्पर्य यह होता है कि उनके  जीवन  के  महान  आदर्शों  तथा  उस  अथक  उत्साह  को  सदा सदा  के  लिये   बनायें  रखें, जिसने  इन महानतम  बलिदानी को उस  आदर्श के  लिये  अकथनीय कष्ट झेलने एवँ असीम बलिदान करने की प्रेरणा  दी । यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है कि हम भी अपने आदर्शों के लिये ऎसे ही अचूक उत्साह को अपनायें । यही वह भावना है, जिसकी हम प्रशँसा करते हैं । इसी  प्रकार ’ इन्क़लाब ’ शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिये । इस  शब्द  का उचित  एवँ  अनुचित  प्रयोग करने  वालों  के  हितों  के  आधार  पर  इसके  साथ  विभिन्न  अर्थ  एवँ  विभिन्न  विशेषतायें  जोड़ी  जाती  हैं । क्रान्तिकारियों की दृष्टि में यह एक पवित्र वाक्य है । हमने इस बात को ट्रिब्यूनल के सम्मुख अपने वक्तव्य में स्पष्ट करने का प्रयास किया था ।

इस वक्तव्य में हमने कहा था कि क्राँति ( इन्क़लाब ) का अर्थ अनिवार्य रूप से सशस्त्र  आन्दोलन  नहीं  होता । बम और पिस्तौल कभी कभी क्राँति को सफल बनाने के साधन हो सकते हैं । इसमें भी सन्देह नहीं है कि  कुछ  आन्दोलनों  में  बम  एवँ  पिस्तौल  एक महत्वपूर्ण  साधन  सिद्ध होते हैं, परन्तु  केवल  इसी  कारण  से बम और पिस्तौल क्राँति के पर्यायवाची नहीं हो जाते ।  विद्रोह  को  क्राँति  नहीं  कहा  जा  सकता, यद्यपि हो सकता है कि विद्रोह का अन्तिम परिणाम क्रान्ति हो ।

एक  वाक्य  में  क्रान्ति  शब्द  का  अर्थ ’ प्रगति के लिये परिवर्तन की भावना एवँ आकाँक्षा ’ है । लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार से ही काँपने लगते हैं । यही एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके  स्थान  पर  क्रान्तिकारी  भावना  जागृत करने  की आवश्यकता है । दूसरे  शब्दों  में  कहा जा  सकता  है  कि  अकर्मण्यता का  वातावरण  निर्मित  हो  जाता  है और रूढ़ीवादी शक्तियाँ मानव समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं । यही परिस्थितियाँ मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं ।

क्रान्ति की इस  भावना  से  मनुष्य  जाति  की  आत्मा  स्थायी  रूप  पर  ओतप्रोत  रहनी  चाहिये, जिससे कि रूढ़ीवादी शक्तियाँ मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिये सँगठित न हो सकें । यह आवश्यक  है  कि  पुरानी  व्यवस्था  सदैव  न  रहे  और  वह  नयी  व्यवस्था  के  लिये  स्थान  रिक्त  करती  रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था सँसार को बिगड़ने से रोक सके । यह है हमारा अभिप्राय जिसको हृदय में रख कर हम ’ इन्क़लाब ज़िन्दाबाद ’ का नारा ऊँचा करते हैं ।

22, दिसम्बर, 1929                                                                                         भगत सिंह - बी. के. दत्त

पत्र का मूलपाठ आभार - भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़ / प्रथम सँस्करण 1986 / सँकलन सँपादन – जगमोहनसिंह  & चमनलाल / राजकमल प्रकाशन
अँतर्जाल सँदर्भ
: 1. On the slogan of 'Long Live Revolution'
                        2.Bhagat Singh Study        
                        3.sepiamutiny.com
                        4.wikibrowser.net/dt/hi/भगत सिंह

चलते चलते : इतिहास से कुछ छवियाँbhagat%20singh%201liveindia_Bhagat_Singhletter by bhagat singh from lahore jail


 

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23 September 2009

कवि हृदय वैज्ञानिक का चकित आध्यात्म्य

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From PRINT
समँदर की लहरें,
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री
रामेश्वरम द्वीप कि वह छोटी-पूरी दुनिया
सबमें तू निहित
सबमें तू समाहित
अधिकाँश पाठक इस वैज्ञानिक के परिचय  को  लेकर  उत्सुक  हो  उठे  होंगे । 
शायद  इनकी  इस कविता  के  इतने  अँश से ही आप इनका अँदाज़ा भी लगा चुके हों ।

मेरा इन दिनों डाक्टर अवुल पाकिर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम की विंग्स आफ़ फ़ायर का पुनर्वलोकन चल रहा है । पर इस बार पढ़ने में मैं मैं कई कई जगह ठहरने को बाध्य हुआ । यदि  अपनी  बात  कहूँ  तो, एक  डाक्टर  के नाते जीवन के तत्व को लेकर मेरे विचार उन अपार विद्युत-चुम्बकीय ऊर्ज़ाओं तक जाकर ठहर जाती है, जो  कि  इस  शरीर  के  हर  क्रियाकलाप, यहाँ तक कि सभी जैविक भावनाओं तक को सँचालित करती है और इ्सी बिन्दु पर आकर मेरी विज्ञान का विद्यार्थी होने की विशिष्टता लड़खड़ा जाती है । यह सच ही है, अब  तक  हम  इस  अथाह  समुद्र  के  तट  तक  ही पहुँच पाये हैं, जिसको  विज्ञान  कहा  जाता  है । पर, वस्तुनिष्ठता  की  आड़  में  इसकी  तलहटी  तक  का  भेद  जान  लेने  के मिथ्याभिमान से व्यामोहित हैं । आज डाक्टर कलाम की इस आत्मकथात्मक प्रस्तुति को दुबारा पढ़ते समय मैं कई कई जगह ठहर गया, भला ऎसा क्यों ? यह तो आप स्वयँ ही पढ़ कर देखिये.. ..


जब मैं सेंट ज़ोसेफ़ कालेज के अँतिम वर्ष में था तभी मुझे अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ने का चस्का लग गया । मैंने टाल्स्टॉय, स्काट और हार्डी को पढ़ना शुरु किया । उसके बाद दर्शन की ओर झुकाव हुआ तथा उस पर काम भी किया । यह वह समय था जब मेरी भौतिकी में गहरी रुचि हो गयी थी ।
सेंट ज़ोसेफ़ के मेरे भौतिकी के शिक्षकों प्रो. चिन्ना  दुरै  और  प्रो. कृष्णमूर्ति  ने  मुझे परमाणवीय भौतिकी के अध्यायों में मुझे पदार्थों के अर्धजीवनकाल की अवधारणा और उनके रेडियो-एक्टिव क्षय के बारे में ज्ञान कराया । रामेश्वरम में मेरे विज्ञान के शिक्षक  शिवसुब्रह्मण्यम अय्यर ने मुझे कभी यह नहीं बताया था कि परमाणू अस्थिर होते हैं और एक निश्चित समय के बाद दूसरे परमाणू में परिवर्तित हो जाते हैं । यह सब मैं पहली बार ही जान रहा था ।
                                            लेकिन जब उन्होंने मुझे हर पल कड़ा परिश्रम करने की बात कही,  क्योंकि   यौगिक  पदार्थों   का  क्षय  अपरिहार्य  है, तो  मुझे  लगा  कि  क्या  वे  एक  ही तथ्य के बारे में बात नहीं कर रहे थे । मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ लोग विज्ञान को इस तरह से क्यों देखते हैं, जो व्यक्ति को ईश्वर से दूर ले जाये । जैसा कि मैंनें इसमें देखा कि केवल हृदय के माध्यम से ही हमेशा विज्ञान तक पहुँचा जा सकता है । मेरे लिये विज्ञान हमेशा आध्यात्मिक रूप से समृद्ध होने और आत्मज्ञान का रास्ता रहा ।

मैं ब्रह्मांड के बारे में खूब उत्सुकता से किताबें पढ़ा करता हूँ तथा खगोलीय पिंडो के बारे में अधिक-से-अधिक जानने में मुझे बहुत आनन्द आता है । कई मित्र मुझसे अँतरिक्ष उड़ानों से सँबन्धित बातें पूछ  लेते हैं और कई बार चर्चा ज्योतिष में चली जाती है । ईमानदारी से मैं वाकई अभी तक इस बात का कारण नहीं समझ पाया हूँ कि क्यों लोग ऎसा मानते हैं कि हमारे सौर परिवार के दूरस्थ ग्रहों का जीवन के रोजमर्रा की घटनाओं पर प्रभाव पड़ता है ।
एक कला के रूप में मैं ज्योतिष के ख़िलाफ़ नहीं हूँ । लेकिन अगर विज्ञान की आड़ में इसे गलत तरीके स्वीकार किया जाता है तो मैं इसे नहीं मानता । मूझे नहीं पता कि ग्रहों, नक्षत्रों, तारामँडलों और यहाँ तक कि उपग्रहों के बारे में इन मिथकों ने जन्म कैसे लिया । ब्रह्माँडीय पिंडों की अत्यधिक क्षुद्र गति की जटिल गणनाओं में हेरफेर करके यदि व्यक्तिपरक नतीज़े निकाले जायें तो वे मुझे अतार्किक लगते हैं ।
जैसा मैं देखता हूँ कि पृथ्वी ही सबसे अधिक सक्रिय, शक्तिशाली  और  ऊर्ज़ावान  ग्रह है । जान मिल्टन ने इसे ’ पैराडाइज़ लॉस्ट’ पुस्तक VIII ’ में बड़ी ही खूबसूरती से व्यक्त किया है -
’ होने दो सूर्य को
दुनिया का केन्द्र
और सितारों की धुरी ।
मेरी यह धरती
कितनी गरिमामय
घूमें धीमे-धीमे
तीन अलग धुरियों पर ।’

इस ग्रह पर आप जहाँ भी जाते हैं वहाँ गति और जीवन है, वैसे ही निर्जीव वस्तुओं जैसे चट्टानों, धातुओं, लकड़ी, चिकनी मिट्टी में भी आँतरिक गतिशीलता विद्यमान है । हर नाभिक के चारों ओर इलेक्ट्रान चक्कर काट रहे हैं । नाभिक इन इलेक्ट्रान को अपने चारों ओर बाँधे रखता ह ।  इसी की प्रतिक्रिया में इलेक्ट्रान उसके चारों ओर घूमते रहते हैं और यही इनकी गति का स्रोत है । इलेक्ट्रान को बाँधे रखने वाले इसी यही विद्युत-बल इन्हें ज्यादा से ज्यादा करीब लाने भी कोशिश करते हैं । इलेक्ट्रान एक निश्चित ऊर्ज़ा वाले उस पृथक कण के रूप में है जो नाभिक से बँधा हुआ है । इलेक्ट्रानों पर नाभिक की पकड़ जितनी मज़बूत होगी, अपनी कक्षा में इलेक्ट्रानों की गति ही उतनी तीव्र होगी । वास्तव में यह गति एक हज़ार किलोमीटर प्रति सेकेन्ड तक की होती है । उस अत्यधिक वेग के कारण परमाणु एक ठोस गोले की भाँति नज़र आता है; जैसे  तेज  गति  से  घूमने  वाला  पँखा एक थाल की तरह दिखता है । परमाणुं को सँपीडित करना या कहें तो एक दूसरे के और करीब लाना बहुत ही मुश्किल  है  और  यही  किसी  पदार्थ  का  दिखने वाला भौतिक स्वरूप होता है । इस प्रकार हर ठोस वस्तु के भीतर काफ़ी खाली स्थान होता है और हर स्थिर वस्तु के भीतर काफ़ी हलचल होती रहती है । यह ठीक उसी तरह है जैसे हमारे जीवन के हर क्षण में भगवान शिव का शाश्वत नृत्य हो रहा होता है ।
प्रो. ए. पी. जे. कलाम के आत्मकथ्य ’ विंग्स आफ़ फ़ायर ’ से
अँग्रेज़ी से अनूदित पृष्ठ सँ. 35-36 का अँश

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9 September 2009

मज़बूत होता जाता रिश्ता

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" शारीरिक जीवन के इस कैदखाने में आने से पहले हम कहाँ थे और क्या थे ? "
" ये समझदार, सँज्ञाशील और शरीर में  बेचैन रहने वाली आत्मायें हमारे शरीर में आने से पहले कहाँ थीं और क्या थीं ? इससे पहले कि ज़माना हमें निरर्थक आवाज़ बना कर दुनिया में लाया, हम किस सँतोष की साँस ले रहे थे ? "

" हमारे प्राण इन स्वरूपों में बदलने से पहले किस स्थिति में थे ? "
" सपनों की दुनिया में बोलती हुई यह जागृति, विचारों से सजा यह चिंतन, यह आनन्द और दुःख, प्रेम और घृणा से बँधी हुई अभिलाषायें माताओं के पेट में ही पैदा हुई या आकाश के वायुमँडल में ? "
"क्या इससे पहले की आकाँक्षा हमें जीवन की गोद में ले आई, हम कुछ भी न थे ? "

होश सँभालते ही मैंने यह सवाल अपनी आत्मा से पूछे । मेरी आत्मा ने इन सवालों के ज़वाब कुछ ऎसे सँदिग्ध वाक्यों में दिये, जो मेरी समझ से परे थे । मेरा चिन्तन उन वाक्यों को एक गहरी ख़ामोशी की तरफ़ ले गया, जिस तरफ़ बरफ़ के टुकड़े पानी में गिर कर पानी हो जाते हैं ।

gibranकल  एक  नयी  घटना  मेरे  सामने  आई, जो  अदृश्य जगत के भेद मुझ पर खोल देती है । यह घटना मेरे कल्पनालोक को उस ज़माने के पास ले गयी जब मेरा वाह्य शरीर प्रकट नहीं हुआ था । मैंने एक आदमी को  देखा, जो  अपनी आत्मा के सँबन्ध में कुछ बता रहा था । उसके शब्दों ने मुझ पर ऎसा ज़ादू कर दिया कि मेरे सीमित चिंतन और अल्पबुद्धि का वह बारीक रिश्ता और मज़बूत होने लग पड़ा । 


इस अँश का अँग्रेज़ी से अनुवाद : डा. अमर कुमार


अब ब्लागर पर प्रकाशित ज़िब्रान की एक लघुकथा

  • सच्चा प्यार

–उसने पुरुष से कहा, ''मैं तुम्हें प्रेम करती हूँ।''
पुरुष ने कहा, ''मैं भी तुम्हारा प्रेम पाने को लालायित रहा हूं।''
स्त्री ने कहा, ''लगता है तुम मुझे नहीं चाहते।''
सुनकर आदमी ने ध्यान से उसकी ओर देखा, पर कहा कुछ भी नहीं।
इस पर वह औरत चीख पड़ी, ''मुझे तुमसे नफरत है।''
पुरुष ने कहा, ''मेरी दिली इच्छा है कि किसी तरह तुम्हारी नफरत ही पा सकूँ।''

    आलेख-अँश आभार :

कथाकार / सुकेश साहनी / ब्लागपोस्ट 16 मई 2008 / खलील ज़िब्रान:जीवन और लघुकथायें

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    6 September 2009

    इनकी डायरी में कैद उनकी वर्दियाँ

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    बहुचर्चित शशि हत्याकाण्ड की गूँज कुछ थम सी गयी है ।  पर  मक़तूल  के  रिश्तेदार, कातिल   और पैरोकार तो इसे अपने अपने ढँग से जी ही रहे हैं !  इस  हत्याकाण्ड  के  मुख्य  आरोपी  आनन्द सेन  के साथ अन्य आरोपियों में सीमा आज़ाद भी सह-आरोपी ठहरायी गयी हैं, केस  विचाराधीन  है.. ज़ाहिर है, कानून का पहिया अपनी ही रफ़्तार से घूमेगा । फिलहाल सभी अभियुक्त सलाखों की निगहबानी में हैं । जैसा कि अक्सर होता है, आदमी  ज़ेल  की  तन्हाईयों  में  चिंतक  और  कवि  हो  जाता है । भला सीमा आज़ाद ही अछूती क्यों रहें ? आजकल वह भी कवितायें लिखने लग पड़ी हैं ।

    इस वक़्त सीमा ज़मानत पर ज़ेल से बाहर हैं पर उनकी डायरी जो कि ज़ेल में लिखी जा रही थी, कुछ  ऎसा  व्यक्त  कर  रही  हैं मानों  उन्हें सत्य   की  ज्ञान  प्राप्ति  हो  गयी  हो । जो वह  सत्ता और सत्तानसीनों के सानिध्य में रह कर न देंख पायी होंगी, उनके  ज्ञानचक्षुओं  को  अब  अनायास ही  यह  सब  दिखने  लग  पड़ा  है । एक बानगी है, उनकी  एक  कविता ’ वर्दियाँ ’ की कुछ पँक्तियाँ..

    • वर्दियाँ

    सच्चाई का सबूत मिटाती हैं वर्दियाँ,
    किस तरह गुनहगार बनाती है वर्दियाँ
    इनसे कोई भी बात बताना फ़िज़ूल है
    सच को सच न कहो यही इनका उसूल है
    किस तरह सरे-आम सताती हैं वर्दियाँ
    इनका कोई भी न धर्म है न ही कर्म है कोई,
    इनको किसी का डर है न ही शर्म है कोई
    अपना ज़मीर भी बेच खाती हैं,वर्दियाँ

    आगे और भी है..
    क़ातिल को घुमाती हैं सरे-आम सड़क पर,
    देती हैं खुले आम कातिलों का साथ ये
    सुनती नहीं लाचार ग़रीबों की सिसकियाँ
    हादसा होता नहीं इनके सलाह बिन
    पहुँचेंगे देर से ही ये हो रात चाहे दिन
    दामन को अपने साफ बताती हैं वर्दियाँ

    कविता स्रोत : नाम अज्ञात रखने की शर्त पर एक प्रेसकर्मी मित्र के सौजन्य से
    सम्पूर्ण पोस्टिंग उत्तरदायित्व : डा. अमर कुमार

    इससे आगे

    4 September 2009

    फुल्ली फालतू चैनल का कवर स्टोरी: घासी राम की भैँस

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    सबसे पहले -  श्री राजशेखर रेड्डी हमारे बीच न रहे । यहाँ कोई भी शरीर स्थायी परमिट लेकर नहीं आता है, तो उसके न रहने का शोक क्यों ? जिस तरह से उनको विदा होना पड़ा, वह वाकई दुःखद है । किसी भी राजनैतिक पार्टी के पर्ति कोई विशेष प्रतिबद्धता न रखते हुये भी मैं उनका प्रशँसक रहा । उनकी डाउन टू अर्थ कार्यशैली मुझे यदा कदा अचँभित तो करती ही थी, साथ  ही वह मेरे दूर के मौसेरे भाई भी थे { डाक्टरों के प्रति लोग जैसी छवि बनाते जा रहे हैं, उसे देख उनके चिकित्सा स्नातक होने के नाते मैंनें स्वतः ही उनसे ऎसा रिश्ता जोड़ लिया था } परमपिता उनको सदगति प्रदान करे ।
    इस दुःख को हमारे इलेक्ट्रोनिक मीडिया के व्यवहार ने और भी गाढ़ा कर दिया । चैनलों पर कल रात्रि से लगातार चल रही  उत्तेजना , और  एक एक्साइटमेन्ट ? का अँत हुआ । कमसिन बालायें जैसे भाड़े पर आँखें घुमाने और हाथ नचाने से मुक्ति पा गयीं ।  वह मिलेंगे.. वह नहीं मिलेंगे.. वह ज़िन्दा हैं.. वह घायल और अचेत हैं.. वह ज़ँगल के नज़ारे देखने को कहीं रुक गये हैं... या  वह  नक्सलियों  के हाथों  में  हैं .. जैसे तमाम  सवालात  उनको  परेशान  जो  करते रहे  । उनके अवसान की पहली ख़बर कौन परोसे, यह उतावलापन स्पष्ट दिख रहा था !  आजतक वाले तो, अगला मुख्यमँत्री कौन, की मुहिम में लग पड़े

    सर्वप्रथम रहने की दौ्ड़ इस हद तक तक़लीफ़देह है, कि एक साहब नें वाईकेपिडीया पर सायँ 6.30 या 7.00 बजे ही उनकी मृत्यु  दर्ज़ कर डाली ( मैंने यह रात्रि में 9.45 के आसपास ही देखा )
    पिछली पोस्ट पर, अभिषेक ओझा की टिप्पणी ने जैसे एक ट्रिगर-इफ़ेक्ट  कर दिया हो क्योंकि मुझे यह धुँधला सा याद था कि, बुनो  कहानी  पर  जीतेन्द्र चौधरी  ने  मीडिया  के  ऎसे  प्रहसन  को ’ कवर स्टोरी : घासीराम की भैंस ’ में  बड़े  अनोखे  अँदाज़  में  चित्रित  किया  था ।  जिसे  तत्कालीन  फ़ुरसतिया ’अनूप  शुक्ल ’ने अपने गाँव ढक्कनपुरवा से एक दूधिये की भैंस भाग जाने पर एक चलताऊ चैनल चर्चा  पर दो दिन पहले ही ब्लागित किया  था  और  इसके  कारक  बने  । इसी विषय की कड़ी को डा  पद्मनाभ मिश्र ’ आदि यायावर ’ ने फुल्ली फालतू चैनल का कवर स्टोरी: घासी राम की भैँस पर और भी आगे बढ़ाया । वह अब सक्रिय न सही, पर नेट पर तो मौज़ूद ही हैं
    तो.. लीजिये, पढ़िये

    फुल्ली फालतू चैनल का कवर स्टोरी : घासी राम की भैँस 

    पिछले अँक मे आपने पढा: यहाँ क्लिक कीजिए. घासी राम की भैँस ढक्कनपुरवा गांव से उस समय रस्सी तोडकर तबेले से भाग गयी जब घासी राम अपने दोस्त कल्लू के शवयात्रा मे गया था. टी.आर.पी. महिमा के लिए इसको फ़ुल्ली फ़ालतू नामक एक टी.वी. चैनल पर कवर स्टोरी बना कर दिखाया जा रहा था. चैनल के मालिक गुल्लु को इस खबर से बहुत ज्यादा टी.आर.पी. और एस.एम.एस से बहुत पैसा जोगाड़्ने की उम्मीद थी. कातिल अदाँए वाली निधि खोजी, ओवरटाइम का पैसा नही माँगने वाला टप्पू सँवाददाता और समाचार वाचिका रुपाली अभी-अभी हुए ब्रेक के बाद लौटी हैँ. सुन्दरी  नामक  भैँस  को कवर  स्टोरी  बनाने  के  लिए  उसको  तालाब  मे  तैराकी  का  प्रैक्टिस  छोडवाकर  फुल्ली-फालतू  चैनल  के स्टूडियो मे रखा गया है. अब आगे पढिए...

    ब्रेक के बाद चैनल स्टूडियो मे कुछ नए लोग आते हैँ. टप्पू ने अपने विश्वस्त सूत्रो से पहले ही पक्का कर लिया था कि स्टूडियो मे घासी-राम के भैँस की कहानी पर अपना राय देने वाले सारे लोग अपने अपने क्षेत्र के एक्स्पर्ट है जिनका वर्णन निम्न्लिखित हैँ.

    जोखन डाक्टर: जोखन डाक्टर ग्यारह साल पहले १३ लाख मे एम.बी.बी.एस. की डीग्री पढ कर आए थे. शुरु के आठ साल तो चूँगी पर बैठ कर आदमी का डाक्टर बने रहे. आदमी का डाक्टरी तो चली नही गलत दवा देने से पाँच लोगो के मौत का मुकदमा हो गया. तब से अकल ठीकाने आई और फिलहाल पिछले तीन साल से जानवर का डाक्टर बने पडे हैँ. बुजूर्गोँ ने समझाया इसमे रिस्क नही है.

    सेवकराम साइको: पहले इनका नाम था सेवकराम शर्मा. पिछले बीस साल से साइकेट्रिक डाक्टर हैँ और अपना बिजिनेस बढाने के लिए अपने नाम के आगे साइको लगाया है. गल्लू से पहुत पहले इनका करार हुआ था. इनको टी.वी. पर लाइव दिखाने पर सेवकराम साइको गल्लू को १० हजार रुपैया देगा.

    कालू प्रसाद "देशप्रेमी": आजकल के सत्तारुढ पार्टी का एम.एल.ए और अपने पार्टी का प्रवक्ता. जब से पिछली सरकार ने इनके उपर लगा बलात्कार का आरोप सी.बी.आई से जाँच करने को कहा ये अपने नाम के आगे देशप्रेमी जोड लिया. अभी  तो  सत्तारुढ़  पार्टी  मे  हैँ लेकिन विपक्ष कहती है कि लोगों का अटेन्सन दूर करने के लिए अपना नाम के आगे देशप्रेमी लगाए हैँ.

    टी.वी.स्क्रीन पर फुल्ली फालतू चैनल फिर से आता है. रुपाली अपने बालोँ की लटो को एक बार फिर से झटकती है और और बोलने लगती है.

    रुपाली:  दर्शकोँ हम फिर से हाजिर हैँ घासीराम के सुन्दरी का एक्सक्लूसिव रिपोर्ट लेकर. जैसा कि पहले बताया जा चुका है,  हम  दूनिया  मे  पहली  बार  इस  खबर  को प्रसारित कर रहे हैँ कि आखिर घासीराम की सुनदरी भैँस रस्सी तोडकर गयी किधर. जो लोग अभी-अभी टी.वी आन किए है उनके लिए मै बता दूँ कि आज सुबह सुबह ढकनपुरबा गाँव के श्री घासीराम जी जी सुन्दरी नाम की भैँस रस्सी तोडकर भग गई है. हम अपने इस चैनल पर एक्स्क्लूसिवली रिपोर्ट दिखा रहे हैँ कि आखिर सुन्दरी को वह कौन सा बात खराब लग गई जिससे वह घर छोडकर चली गई. क्या उसका किसी से चक्कर था ? या वह  किसी  मानसिक  प्रताडना  का  शिकार  थी. घासीराम  के बातोँ से तो यह नही लगता है कि उसने सुन्दरी को भगाया है. आज इसी बात पर चर्चा करने के लिए हमने कुछ एक्स्पर्ट को बुलाया है. आज हमारे साथ मौजूद हैँ, एक जाने माने पशु चिकित्सक श्री जोखन डाक्टर, प्रसिद्ध मनोवैग्यानिक श्री सेवक साइको, और ढकनपुरवा गाँव के स्थानीय विधायक श्री कालू प्रसाद "देशप्रेमी". और हमारे सँवाददाता निधि खोजी मौजूद हैँ घटनास्थल पर. हम समय समय पर दर्शको का राय भी लेते रहेँगे. आप अपना राय टाइप करके हमे भेजेँ. हमारा नम्बर है ४५४७६. तो हम बिना समय गँवाए सीधे मुद्दे पर आते हैँ और पहला सवाल करते हैँ हमारे आज के एक्स्पर्ट सेवकराम साइको जी से.

    रुपाली: सेवकराम जी हमारे स्टूडियो मे आपका स्वागत है. आप तो पिछले बीस साल से मनोवैग्यानिक रहे हैँ. आपको क्या लगता है. सुन्दरी की मान्सिक स्थिति कैसी रही होगी. वह घासीराम का घर छोडकर क्योँ भाग गयी.

    सेवकराम साइको: रुपाली' जी मुझे अपने स्टूडियो मे बुलाने के लिए धन्यावाद. मुझे तो सुन्दरी का केस पुरा साइकोलोजिकल लगता है. और लगता है कि वह "साइक्लोजिकल डिसओर्डर सिन्ड्रोम" से ग्रसित है. इस तरह के बीमारी मे भैँस क्या आदमी भी अपना घर छोडकर चला जाता है और भी बिना कुछ बताए. अभी हाल मे ही एक औरत अपने पति को छोडकर अपने प्रेमी के साथ भाग गई थी और उसको जाँच करने के बाद पता चला कि वह भी इसी सिन्ड्रोम से ग्रसित थी. 

    कालूप्रसाद देशप्रेमी: (  इन सभी का बात काटते हुए बीच मे ही बोल उठा.) रुपाली जी, इसमे मुझे किसी बिमारी का कोई बात नही लगता है. यह तो विपक्षी पार्टी का काम है. घासीराम के भैँस को भगाकर उसमे अल्पसँख्यक वर्ग का नाम बिगाडने की साजिस है. हम यह काम नही होने देँगे. हमारी सेकुलर पार्टी देश मे इस तरह के कम्यूनल पार्टी का पर्दा फास करेँगे.

    तभी निधि खोजी का खबर आता है और बीच मे ही रुपाली सबको चुप कराते हुए बोलती है.

    रुपाली: दर्शकोँ हमारी संवाददाता अभी ढकनपुरबा गाँव मे मौजूद है. निधि क्या आप मेरा आवाज सुन रही हैँ. क्या माहुल है वहाँ का?

    निधि (अपने कान का टेपा सही करते हुए): जी रुपाली पूरा गाँव सुन्दरी के जाने से गमगीन है. पडोस का भैँसा अभी तक चारा नही खाया है. घासी-राम का रो-रोकर हालत खराब है. लेकिन अभी तक स्पष्ट नही हो पाया है कि रुपाली आखिर भागी क्योँ. रुपाली के आस मे सब लोग रास्ता देख रहे हैँ. लोग बोलते हैँ मेरी रुपाली-मेरी रुपाली...

    रुपाली: (अचानक घबराकर चौँक जाती है और धीरे से फुसफुसाती है) अरे  निधि  रुपाली  नही  सुन्दरी...सुन्दरी... (और भी धीरे से-- स्टूपिड नोन्सेन्स)

    निधि (एक ही बार मे स्टूपिड शब्द समझने के बाद फिर से अपने बालोँ को झटकते हुए): जी हाँ रुपाली नही माफ कीजिएगा हम निधि की बात ...ओह सोरी.. घासीराम की भैँस सुन्दरी की बात कर रहे थे. अपने पास खडे हुए यूवक को पूछते हुए. हाँ तो आप मुझे बताएँ कि सुन्दरी क्योँ भागी ?

    यूवक (कैमरा के बजाए निधि को देखते हुए): वो क्या है मैडम, हम सुबह सुबह मैदान को गए थे. देखो तो उधर से दो भैँस कहीँ जा रहे थे. हमे पक्का विश्वास है कि वह सुन्दरी ही रही होगी. पिछले छओ महीना से उसका पडोस के भैँसे से जबरदस्त चक्कर रहा है. हम तो कई बार समझाए घासी राम को लेकिन उ माने तब ना. जान्बुझ के पडोस के भैसे के सामने मे बान्धता था. ससुरा घासी-राम को बुढापे मे जवानी सुझत रहल है. भैसन के प्रेम सम्बन्ध बनाबे मे मदद करत रहल है. मैने मना किया तो माना नही, अब भुगतो ससूरा, भैस भाग गई ना.

    कालू-प्रसाद "देशप्रेमी" (बीच मे ही रुपाली को रोकते हुए): इसमे जरूर विपक्षी पार्टी का हाथ रहा होगा. हमारे क्षेत्र मे से भैस को भगवाकर शान्ति भँग करना चाहते हैँ. हम सेकुलर हैँ. ऐसे कम्यूनल पार्टी को हम नही बक्शेँगे.

    बीच मे ही रुपाली सबको रोकते हुए बोलती है. देशप्रेमी जी हम फिर से वापस होते हैँ लेकिन इस छोटे से ब्रेक के बाद. और दौड्कर रेस्ट रूम चली जाती है.

                  डा० पद्मनाभ मिश्र Dr. Kumar Padmanabh  बनाम Adi Yayavar आदि यायावर

    पोस्ट आभार : फुल्ली फालतू चैनल / मेरा बकवास / ब्लागपोस्ट 3 नवम्बर, 2007 / आलेख आदि यायावर 

    सँदर्भित लिंक
    पोस्ट  : एक चलताऊ चैनल चर्चा / फ़ुरसतिया / ब्लागपोस्ट 3 दिसम्बर 2006 / अनूप शुक्ल
    पोस्ट : कवर स्टोरी घासीराम की भैंस / बुनो कहानी /  ब्लागपोस्ट 5 दिसम्बर  2006 / जीतेन्द्र चौधरी

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    3 September 2009

    भिखारी और लिपस्टिक

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    #कल डा० अनुराग की पोस्ट ने कुछ समय तक अशाँत रखा। मेरे ख़्याल से यह कथ्य कोलाज़ समाज के विस्तृत कैनवास के चित्रण का एक फ़ैशनेबुल रिपीटेशन था, जो एक कोने पर ही टिक कर रह गया है । कुश के स्वर में निहित प्रतिवाद और अनूप शुक्ल की प्रशँसात्मक उलाहना से जैसे मुझे भी बल मिला हो

    विसँगतियों के विद्रूप का एक अन्य पहलू ’ यह भी खूब रही ’ के प्रयास कुछ अलग तरह से रखते हैं ।

    सिग्नल पर होता मेकअप
    अप्रैल 16, 2008

    दफ्तर आते हुए ट्रैफिक सिग्नल पर एक अजीब सा नजारा देखा…
    एक ३०-३२ वर्ष की गोरी-चिट्टी मोहतरमा अपनी लंबी सी गाडी में बैठी सिग्नल के हरे होने के इंतज़ार कर रही हैं. इंतजार कुछ लंबा है क्यों ना दर्पण से गुफ्तगु की जाये. बस रियर-व्यु मिरर्र में लगी अपना चेहरा निहारने और गाडी बन गयी ब्यूटी पार्लर.
    तभी ठक-ठक की आवाज से उनकी एकाग्रता भंग हुई. देखा कोई २५-२८ साल का एक नौजवान, अपने दोनों हाथों और दोनों पैरों की साहयता से एक चौपाये की तरह चल रहा था, भीख माँग रहा था. उन मोहतरमा ने एक नफरत भरी नजर उस पर डाली और फिर लिप्स्टिक निकाल कर अपने होटों की आभा बढाने लगी.

    मैं उनके लाल-गुलाबी चमकते होठों को निहार रहा था तभी मुझे उस भिखारी का ख्याल आया और मैंने उसके होटों की तरफ देखा. उसके सुखे होटों पर ना खत्म होने वाली एक प्यास थी. फिर उस सुंदरी ने आई-लाईनर लगा कर अपनी सुंदर आँखों को और सुंदर बनाया. मैने भिखारी की उनींदी और अलसाई आँखों की तरफ देखा, उनमें कुछ पाने की लालसा अभी भी दम साधे खडी थी. आँखों के बाद गालों का नम्बर आया. धूप से गुलाबी हुए गालों को और गुलाबी किया जा रहा था. भिखारी के पिचके और भीतर धंसे हुए गाल शायद गुलाबी गालों से इर्ष्या कर रहे थे.
    इस दौरान कभी-कभी स्वप्न सुंदरी भिखारी की तरफ भी देख लेती थी शायद पूछ रही हो-कैसी लग रही हूँ ? हल्की सी मुस्कुराहट के साथ हाथ अब रंग-बिरंगी बिंदी को एड्जैस्ट करने के लिये माथे पर पहुँच चुके थे. और  वो  भिखारी  उसके  हाथ  भी  माथे  पर थे पसीना पोंछ रहा था या शायद अपनी तकदीर को एड्जैस्ट कर रहा था…पता नहीं.
    तभी सिग्नल हरा हो गया और गाडी फर्राटे से निकल गयी. पता नहीं कितने सिग्नलों पर कितनी बार वह गाडी रुकेगी और कितनी बार वह अपने रूप को सँवारेगी और कितने ही भिखारीयों को उनके वाकई भिखारी होने का एहसास करवायेगी.
    उस भीखारी को मैंने बहुत ध्यान से देखा था. उसके  चेहरे  पर एक  सवाल  मुँह  बाये  खडा  था. क्यों भगवान, इतना फर्क क्यों किया ? तूने अमीर को अमीर बनाया मुझे उससे शिकायत नहीं. किंतु कम-से-कम मेरे हाथ-पैर तो सलामत बना देता.
    तभी ड्राईवर की आवाज से तंद्रा टूटी, “क्यों सर मजा आ गया” ? मैं फीकी सी हँसी हँस दिया.

    पोस्ट आभार: सिग्नल पर होता मेकअप / ब्लागपृष्ठ : यह भी खूब रही / 16 अप्रैल 2008 / लेखक-प्रयास

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    2 September 2009

    कुंठित कनेक्शन

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    इस आलेख पर मैं अपनी तरफ़ से कोई टिप्पणी न दूँगा । बेहतर होगा कि यदि आपके पास सोचने के लिये पल दो पल हों, तो आप इसे स्वयँ ही पढ कर कोई निष्कर्ष निकालें, । सँकलक– डा० अमर  कुमार

    कुंठित कनेक्शन

    स्त्री-पुरुष संबंध, सृष्टि की बेहद भरोसेमंद बुनियाद ।  परस्पर  विपरीत  होकर  भी  एक-दूसरे  के  लिए समर्पित, ऐसा समभाव जहां न कोई छोटा न बड़ा । बावजूद इसके जब हम आधी दुनिया में झांकते हैं तो यह खूबसूरत कनेक्शन एक कुंठित कनेक्शन बतौर सामने आता है । इस कुंठा से घर भी महफूज नहीं । हर चेहरे की अपनी कहानी है । सदियों से होते आए व्यभिचार में आज बड़ा टि्वस्ट आया है । आज की लड़की तूफान से पहले ही किसी सायरन की तरह गूंज जाना चाहती है..

    हर कहानी के पहले चंद पंक्तियां होती हैं-`इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं। इनका सच होना महज संयोग हो सकता है, लेकिन हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि खुशबू की कथा के सभी पात्र सच्चे हैं और इनका सच होना महज संयोग नहीं, बल्कि वास्तविक होगा ।´

    सजला अपने नाम के उलट थी । रोना-धोना उसकी फितरत के विपरीत था, पर आज आंखें बह रही थीं । पन्द्रह साल की काव्या ने जो यथार्थ साझा किया था, उसे सुनकर वह कांपने लगी थी । काव्या ने बताया कि पिछले रविवार जब हम मौसाजी के घर गए थे तो ऊपर के कमरे में काव्या को अकेली देख उन्होंने उसे बाहों में भींचकर किस करने की कोशिश की । काव्या ने अपने पूरे दांत उस हैवान के गालों पर जमा दिए और भाग छूटी । सजला ने बेटी को समझाया । चुप बेटी इस बात का जिक्र भी किसी से नहीं करना, वरना तेरी मौसी की जिंदगी...नहीं मम्मी आपको चुप रहना है तो रहिए, मैं  चुप  नहीं रहूंगी । मौसी , पापा सबको बताऊंगी । आपको नहीं मालूम उन्होंने मोना  ( सजला की बहन की बेटी ) के साथ भी यही सब किया था । काव्या यह सब कहे जा रही थी… ..

    लेकिन सजला का वहां केवल तन था । मन तो अतीत की अंधेरी गलियों में पहुंच चुका था । सजला अपने बड़े जीजाजी के दुष्कर्मों का शिकार हो चुकी थी । तब वह केवल चौदह साल की थी । न जाने किन अघोषित मजबूरियों के चलते उसने घटना का विरोध तो दूर कभी जिक्र भी नहीं किया । वह घृणित शख्स सबकी मौजूदगी में हमेशा सहज और सरल बना रहता । सजला बिसूरती रह जाती ।

    आज जब काव्या का रौद्र और मुकाबलेभरा रुख सजला ने देखा तो अपने लिजलिजे व्यक्तित्व पर बेहद शर्म आई । न जाने कितनी स्त्रियों के साथ कितनी बार ये हादसे पेश आए होंगे, इसका  अंदाजा  लगाना  उन  स्त्री और पुरुषों लिए कतई सहज नहीं है, जो  संयोग  से  बच  गईं  और जो स्वभाव से संयमी और चरित्रवान हैं । सहनशील बनों, दूसरों के लिए खुद को न्यौछावर कर दो , जोर से नहीं बोलो जैसी जन्म घुटि्टयों ने स्त्री को न जाने किन बंधनों में बांध दिया कि वह हर अन्याय सहने के लिए प्रस्तुत रहीं । यौन उत्पीड़न को भी खुद की इज्जत से जोड़कर देखने लगी । अगर कुछ कहा तो लोग उसे ही बदनाम करेंगे । इस अलिखित बदनामी ने उसे इतना भीरू और कमजोर बना दिया कि वह चुप्पी में ही भलाई देखने लगी । नजमा ऐसी नहीं थी ।

    अब्बू की लाड़ली नजमा को देख जब घर के पीछे रहने वाले चचा ने अश्लील इशारे किए तो वह चुप नहीं रही । मूंछों पर बट देने वाले चचा अब छिपे छिपे फिरते हैं । मीरा नायर की फिल्म `मानसून वेडिंग´ की  एक  पात्र  अपने  चाचा  की  हरकतों  की  शिकार बचपन में ही हो गई थी । उस उम्र में जब लड़की  अच्छे-बुरे, मान-अपमान  से  परे  होती  है । शातिर अपराधी इसी उम्र और रिश्ते की निकटता का फायदा उठाते हैं । अपने चाचा का विरोध वह बड़ी होकर तब कर पाती है, जब चाचा एक और मासूम बच्ची को चॉकलेट का लालच दे रहे होते हैं ।

    चौबीस साल की नीता एमबीए है और प्राइवेट कंपनी में एक्ज़िक्यूटिव । ट्रेन में सूरत से जयपुर आ रही थी, रात का वक्त था । एसी थ्री कोच में एक अधेड़ अपनी सीट छोड़कर उसके पास आकर लेट गया । नीता चीखकर भागी तो वह उसका पीछा करने लगा । बेटी-बेटी क्या हुआ । नीता नहीं पिघली । रेलवे पुलिस को शिकायत कर उसे गिरफ्तार करवाया और हर पेशी पर पूरी ईमानदारी से जाती है । न्यायिक पचड़ों के अलग पेंच हैं, उस पर रोशनी फिर कभी ।

    पूनम के जीजाजी बड़े रसिया किस्म के थे । जीजी सब जानती थीं या अनजान बनी रहती थीं, पूनम को समझ नहीं आया । जीजाजी बड़े मशगूल होकर स्त्रियों के अंगों-प्रत्यंगों का ब्यौरा देते रहते । जीजी कभी छोटी हंसी तो कभी बड़े ठहाके लगाया करती । एक दिन मौका देखकर जीजा महाशय पूनम के साथ ज्यादती पर उतारू थे । पूनम चूंकि इस अंदेशे को भांप चुकी थी, इसलिए स्कूल में सीखे जूडो-कराते के भरपूर वार जीजा पर किए और उसके पिता के सामने पूरा ब्यौरा रख दिया । सारी बातें इतने वैज्ञानिक तरीके से सामने रखी गई कि जीजाजी को लगा कि जमीन फट जाए और वो गड़ जाएं । पूनम फिर कभी जीजी के घर गई नहीं और न ही इस बात की परवाह की कि जीजी और जीजाजी के संबंधों का क्या हुआ होगा ।

    अंजू के हॉकी कोच निहायत शरीफ और समर्पित नजर आते थे । अंजू उनके अंदाज और खेल पर फिदा थी, कोच  साहब  जब  अपना  दर्जा  भूल ओछी हरकत पर उतर आए तो फिर अंजू ने भी एसोसिएशन के पदाधिकारियों के सामने कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया ।

    आज की लड़कियां सजला की तरह इस्तेमाल होने को अपनी नियति नहीं मानती और न ही घृणित हरकतों पर परदा डालने में यकीन करती हैं । स्वाभिमान को ठेस उन्हें बर्दाश्त नहीं । यह आत्मविश्वास उन्हें शिक्षा ने दिया है। आर्थिक आजादी ने दिया है जहां वे किसी के रहमोकरम पर पलने वाली बेचारी लड़की नहीं है । आर्थिक आजादी हासिल कर चुकी कामवाली महिला में भी आप इस आत्मविश्वास को पढ़ सकते हैं । घरेलू हिंसा और यौन आक्रमणों का प्रतिकार वह करने लगी है ।

    कभी भारतीय रेलवे के शौचालयों की दीवारों पर गौर किया है आपने । भारतीय समाज की यौन कुंठाओं का कच्चा चिट्ठा होता है वह । भद्दी गालियां, स्त्री  अंगों  की  संरचना  के  अश्लील  रेखाचित्र  किसी  भी शालीन शख्स को गुस्से और घृणा से भर देते हैं । मनोवैज्ञानिक भले ही इसे बीमारी की संज्ञा दें, लेकिन हमारा समाज ऐसा नहीं मानता । वह इसी नजरिए से देखने का अभ्यस्त है, लेकिन  वह  मां क्या करे, जिसके  बच्चे  अभी-अभी  पढ़ना  सीखे  हैं और  हर  शब्द  को  पहचानने  की  समझदारी  दिखाने में  कहीं  चूकना  नहीं  चाहते ?

    बसों  के  हवाले  से  मनजीत  कहती  है  मैंने  दिल्ली  की  बसों  में  यात्रा  की  थी कभी । यात्रा नहीं यातना थी , पुरुष  भीड़  की  आड़  में  सट के खडे़ होते और अश्लील हरकतें करते। मैंने जब एक थप्पड़ रसीद किया तो वह क्या है क्या है कह कर मुझ पर हावी होने लगा लेकिन मौजूद लोगों ने मेरा साथ दिया

    छेड़खानी का एक मामला पंजाब पुलिस के तत्कालीन डीजीपी के पी एस गिल से भी जुड़ा है । बीस साल पहले उन्होंने एक पार्टी में आईएएस रूपन देओल बजाज को स्पर्श कर अभद्र टिप्पणी की थी । सत्रह साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने गिल को दो लाख रुपए जुर्माना और पचास हजार रुपए मुकदमे की कीमत अदा करने के निर्देश दिए ।

    इन दिनों एक शब्द अक्सर अकसर इस्तेमाल किया जाता है `ऑनर किलिंग´ । आरुषि-हेमराज मामले में नोएडा पुलिस ने भी किया । लड़की से कोई मामला जुड़ा नहीं कि माता-पिता उसे खानदान की इज्जत से तौलने लग जाते हैं । मानो  इज्जत एक लड़की के सर पर सदियों से रखा मटका हो, जिसके फूटते ही सब-कुछ खत्म हो जाएगा । हम यह भूल जाते हैं कि सबसे पहले हम इनसान हैं, जहां गलती की गुंजाइश रहती है । कब तक हम लड़की के लड़की होने का दोष देते रहेंगे ।

    यदि वाकई लड़कों को इस सोच के साथ पाला जाए कि लड़की खूबसूरत कोमल काया के अलावा कुछ और भी है तो यकीनन हम स्त्री को देखने की दृष्टि भी बदली हुई पाएंगे । रिश्तों की आड़ में सक्रिय दरिंदे लड़की के कमजोर व्यक्तित्व का लाभ उठाते हैं । तीर निशाने पर न भी लगे तब भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता । वे जानते हैं कि अधिकांश बार दोष लड़की में ही देखते हैं । वे मुक्त हैं । जब तक लड़की होना ही अपराध की श्रेणी में आता रहेगा, तब  तक  अपराधी  यूं  ही  बचते  रहेंगे  । समय के बदलाव ने काव्या को मुखर बनाया है । वह सजला जैसी दब्बू और अपराधबोध से ग्रस्त नहीं है । उसे गर्व है अपने स्त्रीत्व पर । ख़ुद पर गर्व किए बिना वह अपनी लड़ाई कभी नहीं जीत पाएगी ।

    साभार : लिख-डाला / ब्लागलेखन : वर्षा / प्रकाशित ब्लागपोस्ट : 9 जुलाई 2008

    नोट : पढ़ने की सुविधा हेतु मूल अविकल  रचना, यहाँ पैराग्राफ़िंग और फ़ारमेटिंग  के साथ  रखी गयी है !

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