at-hindi-weblog

छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

पोस्ट सदस्यता हेतु अपना ई-पता भेजें

20 April 2011

जला है जिस्म जहाँ

Technorati icon

राही मासूम रज़ा को पढ़ना अपने आप में एक तज़ुर्बा तो है, ख़ास तौर से तब जबकि उनके बयान-ए-अफ़साना का अँदाज़ टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी,आधा गाँव से बिल्कुल अलहदा हो । हालही में उनका उपन्यास ’ दिल एक सादा कागज़ पढ़ा, कई कई जगह उनके अँदाज़े-बयाँ की खूबसूरती से ठिठक गया । मन बनाया कि इसे आप सब से साझी ज़रूर करूँगा, पर वह सारे टुकड़े एक साथ यहाँ परोसना मुमकिन न होता, सो बस एक हिस्सा आपसे बाँट रहा हूँ, जिसका उन्वान है, ” जला है जिस्म जहाँ |” ( पेज़ 188 )

romantic-landscape-mushtaq-bhat आदमी को यह भूलने में खासी देर लगती है कि वह एक अच्छा साहित्यकार है । काफी दिन तो यह फैसला करने ही में लग जाते है कि यह बात भूल जायी जाये या न भूली जाये ।
रफ़्फ़न भी इसी दोराहे पर था । साहित्य जरूरी है या घर का किराया ? साहित्य का महत्व ज्यादा है या राशन कार्ड का ? जिन्दगी को एक खूबसूरत नज्म, एक उदास चैपाई ज्यादा खूबसूरत बनाती है या पत्नी की एक आसूदा मुस्कुराहट ? गालिब का दीवान या धोबी का हिसाब ? लड़ाई या कम्प्रोमाइज ?
कम्प्रोमाइज ।
पर जिन्दगी और सयद अली रफअत जैदी, बागी आजमी के झगड़े में बीच-बचाव कराने वाला था कौन ।
भाई जानू ढाके में है ।
जन्नत बाजी रफअत से मिलने लन्दन गयी हुई है।
जैदी विला गाजीपुर में है ।
रामअवतार नारायणगंज में कांग्रेस कमेटी का सेक्रेटरी हो गया है ।
चन्द्रशेखर जेल में है ।
और जन्नत सामने बैठी चाय बना रही है । यह भी नहीं पूछ रही थी कि घर आने में इतनी देर क्यों हुई ।
रफ़्फ़न ने जो सिगरेट सुबह की चाय के लिए बचा रखी थी, उसे वह जलानी पड़ी ।
थक गये होंगे । जन्नत ने कहा, सो जाओ ।
उसने अपने आपमें जन्नत की तरफ देखने की हिम्मत न पायी । वह जन्नत का यह राज भांप चुका था कि उसने सपने देखना छोड़ दिया है । रूपये के साथ-साथ सपने भी सिकुड़ गये है । अब मनुष्य भविष्य के सपने नही देखता । वर्तमान के सपने देखता है । यह देखता है कि अरहर की दाल दो रूपये किलो नहीं है बल्कि रूपये की चार किलो है। यह सोचने तक की हिम्मत नहीं पड़ती कि दाल रूपये की बीस किलो या घी रूपये किलो है । बढ़ती हुई कीमतों ने आदमी को कितना यर्थाथवादी बना दिया है ।
तेज चलने लगी गुरबत में हवा
गर्द पड़ने लगी आईने पर
जागते रहने का हासिल क्या है
आओ, सा जाओ मेरे सीने पर
ख्वाब तो दोस्त नहीं है कि बदल जायेंगे।
ख्वाब तो दोस्त नहीं है,
कि हमें,
धूप में देखे तो कतरायेंगे
ख्वाब तो दोस्त नहीं है,
कि जो बिछड़ेगे तो याद आयेंगे
जागते रहने का हासिल क्या ळे
अव्वले ‘शब उसे देखा था जहां
चांद ठहरा है उसी जीने पर
आओ, सो जाओ मेरे सीने पर
जन्नत ने उसके सीने में मुंह छिपा लिया । वह बन्द आंखों से छत की तरफ देखता रहा । और जागते हाथों से जन्नत को थपकता रहा…
आओ, हम तुम चले,
नींद के गांव में
धुन्ध के ‘शहर में सारी परछाइयां सो गयी ।
इस पसीने के गहरे समुन्दर के साहिल पे टूटी हुई,
सारी अंगडाइयां सो गयीं ।
सो गये क्या ? जन्नत ने पूछा ।
नहीं । उसने जन्नत को बांहों में कस लिया । उसके बालों की महक अब भी बिल्कुल वैसी ही थी । नये-नये खिले हुए फूल की तरह ।
‘शोर कम हो गया ।
कहकहे सो गये ।
सिसकिंया सो गयीं ।
सरी सरगोशियां सो गयी ।
क्हानी नहीं बिकी तो घबराते क्यों हो । जन्नत ने कहा, मैं घर का खर्चा और कम कर लूंगी ।
रास्ते चलते-चलते घरों में समाते गये
शहर अकेला खड़ा रह गया
क्यों न हम
इस अकेले, भटकते हुए ‘शहर को।
साथ लेते चलें
नींद के गांव में
“जन्नो, मैं तो थक गया यार ।” उसने कहा “सोचता हूं…..”
जन्नत ने उसके होठों पर अपने होंठ रख दिये । बात अधूरी रह गयी ।
रात ढलने लगी
आंख जलने लगी
लफ़्ज़ खुद अपनी आवाज के बोझ से दब गये ।
तुमने सरगोशियों की रिदा ओढ़ ली
आओ,
सरगोशियों ही को,
रख्ते-सफर की तरह बांध लें
आओ,
हम-तुम चलें
नींद के गांव में
धुन्ध के ‘शहर में सारी परछाइयां खो गयी ।
जन्नत उसके होंठों पर अपने होठ रखे-रखे सो गयी थी और रफ़्फ़न अपने गालों पर उसके आसुंओं की नमी महसूस कर रहा था और जाग रहा था । जाग रहा था क्योंकि नींद नहीं आ रही थी ।
एक चुटकी नींद की मिलती नहीं
अपने जख्मों पर छिड़कने के लिए
हाय हम किस ‘शहर में मारे गये !
रफ़्फ़न ने, बड़े एहतिआत से जन्नत का सिर अपने सीने से उठाकर तकिये पर रख दिया । तकिये से उसका सीना बहुत दूर नहीं था, पर उसे लगा कि जैसे जन्नत बहुत दूर चली गयी है और वह अपने बिस्तर के लम्बे-चैड़े रेगिस्तान में अकेला खड़ा अपनी परछाइयों को ढूंढ रहा है।
जैदी विला
मिसेज नाथ्
अब्दुस्समद खां
शर्फ़ुआ
मौलवी तकी
सैदानी बी
भाई जानू
जन्नत बाजी
नारायणगंज
रामअवतार
शेखर
शायदा…………जिसने आज पहचानने से इन्कार कर दिया । आज इन्कार किया है या कल इन्कार किया था ?
रात के जगमगाते हुए शहर में
मेरी परछाइयां खो गयी है कहीं
गैर है आस्मां
अजनबी है जमीं
मैं पुकारू किसे
चल के जाउं कहाँ
रात के जगमगाते हुए ‘शहर में
खो गयी मेरी परछाइयां!
रफ़्फ़न ने जन्नत की तरफ देखा । वह बहुत खुश दिलायी दे रही थी।  आंसू की सूखी हुई लकीर गाल पर थी । पर वह खुश दिखायी दे रही थी। वह शायद कोई ख्वाब देख रही थी।
जन्नत की तरफ देखते रहने की हिम्मत न पड़ी तो वह पलटकर अपनी पिछली जिन्दगी की तरफ देखने लगा ।
आखिर मैंने क्या खोया है
आखिर मैंने क्या पाया है ।
खोया तो शायद सब-कुछ है ।
पाया ‘शायद कुछ भी नहीं है ।
और तब उसे एकाएक याद आया कि आज उसकी शादी की साल-गिरह है ।
कौन सी साल-गिरह है ? पता नहीं बुरे दिनों के बरस कितने दिनों के होते है ।
वह जाग रही थी । मुस्कुरा कर उसने उसके गले में बांहें डाल दी ।
वह उस चुम्बन की अनकही, बेशब्दी जबान समझ गयी थी ।
रफफन ने जन्नत को अपनी बांहों में ले लिया ।
यार जन्नत एक बात बताओ ।
क्या बात
जो कहानी मैंने उस हरामजादे को आज सुनायी थी, वह खासी बुरी थी, पर इतनी बुरी नहीं थी कि वह सुनकर फड़क जाता ।
जन्नत ने कुछ नहीं कहा ।
मैं इससे भी ज्यादा खराब कहानी लिख सकता हूँ ।
जन्नत फिर भी कुछ नहीं बोली ।
अब तुम यह फैसला करो कि बुरी कहानियां लिखूँ या तुम्हें तलाक दे दूँ ।
मुझे तलाक दे दो ।
रफ़्फ़न ने जन्नत को भींच लिया । बिस्तर पर थोड़ी देर सन्नाटा रहा । फिर नीचे, सड़क से बसों और टकों और दूध बेचने वाले भईयों की आवाजें आने लगी नहीं । रफफन ने कहा, मैं खराब कहानियां लिखूंगा ।
बिस्तर पर फिर सन्नाटा हो गया ।
जन्नत के रोने में यही तो कमाल था कि बेआवाज रोती थी ।

स्रोत: दिल एक सादा कागज़ ( उपन्यास )
लेखक: राही मासूम रज़ा
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

तकनीकी कारणों से यह ब्लॉग स्व-पोषित वर्डप्रेस डॉमेन पर स्थानान्तरित हो गया है, कृपया अपनी फीड अपडेट कर लें ।

इससे आगे

6 June 2010

अमेरिका का राष्ट्रपति… और उसके मज़े

Technorati icon

पिछले दिनों, करीब दो-ढाई माह पहले एक फ़ीचर पढ़ा था, “ अफ़गानिस्तान में फँसा अभिमन्यु – अमेरिका “ !  हालाँकि इसमें सामयिक वस्तुस्थितियाँ पूरी ईमानदारी से बयान की गयीं थी, पर मुझे इस फ़ीचर के शीर्षक में अभिमन्यु का होना नागवार गुज़रा था । हठात मुझे बरसों पहले एक कविता याद आयी, “ अमेरिका के राश्ट्रपति के मज़े “ उसके शब्द भले ही मानस से विस्मृत हो गये थे, पर अपने भाव के साथ उस कविता का पूरा प्रभाव  मुझ पर अरसे तक बना रहा । वह सब अनायास ही ताज़ा हो आया, पुनः पढ़ने की चाह हुई !

और… जैसा कि होता है, इस कविता को पुनः पढ़ने की चाह एक बेचैनी में बदल गयी । साहित्यानुराग जब व्यसन बन जाये, तो किताबों से अटी आलमारियाँ पुराने सँदर्भों को तलाशने में आपके छक्के छुड़ा देती हैं । टुकड़ों टुकड़ों में कई दिनों के बाद कुछ सफ़हों पर बरामद हुये ’ मज़े करते हुये अमेरिका के राष्ट्रपति ’ ! तेजी से बदलते हुये घटनाक्रम में भी अब तक यह रचना अपनी प्रासँगिकता को पूरी  तरह से  बखूबी जी रही है ।

oh-ho-president-usa

अमेरिका का राष्ट्रपति होने के बड़े मजे हैं 
 इसे इस तरह भी कहा जा सकता है
यदि किसी देश का राष्ट्रपति होने के मजे हैं
तो वह बस अमेरिका का राष्ट्रपति होने में हैं
या इस तरह भी यदि कहीं किसी राष्ट्रपति के
मजे है तो वह बस अमेरिका के हैं

अमेरिका के राष्ट्रपति की क्या यह कोई कम मजेदारी है
कि वह जब चाहे किसी छोटे बड़े देश को
अपने सामने कान पकड़कर उठक बैठक लगवा सकता है
यारी यारी में किसी भी मित्र देश के साथ वह
गर्दन में बांह डालकर चलते हुए
जरा सी बात पर उसकी गर्दन दबा सकता है
अपने पैरों पर दौड़ने की कोशिश में जुटे किसी भी देश की
गति में चुपके से मारकर टंगड़ी उसे मुंह के भर धड़ाम से
जमीन पर गिरने के लिये कर सकता है विवश

उसके क्या मजे हैं कि वह किसी भी देश का
शासन संभालने के लिए अपनी छाया भेज सकता है
और उस तरह अमेरिका का राष्ट्रपति
उस देश का भी राष्ट्रपति हो सकता है

वह कभी भी संयुक्त राष्ट संघ पहुंच कर पीछे से
महासचिव के सिर पर धप्पा मारकर छुप सकता है
जरूरतमंदों के लिए मदद भरकर आगे बढ़ चुके
टकों के पहियों की बीच रास्ते में हवा निकाल सकता है
कभी भी अंतराष्टीय मुद्रा कोष का स्ट्राँग रूम खुलवा कर
उसमें रखे पैसे गिन सकता है विश्व बैंक के दरवाजे पर
ताला लटका कर उसकी चाबी अपनी जेब में रख सकता है
और तो और इतने सबके बाद वह अंगूठे से अपनी नाक
उठा कर अपना हाथ नचाते हुए स्टेचू
फ लिबर्टी के पास
खड़ा हो कर वह सबको अपनी जीभ चिढ़ा सकता है

अमेरिका के राष्ट्रपति होने के जो मजे है उनमें से
एक मजा ये भी है कि किसी उम्र में उसका चेहरा
प्लेब्वाय के मुख पृष्ठ पर छपने लायक बना रहता है
उसके पुरूषार्थ के धब्बे उसके दफतर की युवा
महिला कर्मचारियों के अधोवस्त्रों पर सगर्व पाये जाते हैं
वह खुद नियमों कानूनों को नहीं मानता तो
उसके बच्चे भी कुछ नहीं सीख पाते उससे और इस वजह से
अक्सर सुधारगृहों में सजा भुगतते सुधरते पाये जाते है
यह भी कितना मजेदार है कि अमेरिका के राष्ट्रपति का घर
सुधारगृह के स्तर का भी नहीं है

उसके इतने मजे हैं कि उसे इस बात से
कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उससे कितनी नफरत करता है
उसके चाहने भर से किसी को भी उससे
उसके प्रति अपनी नफरत के बराबर प्रेम या
अपने प्रेम के बराबर नफरत करनी पड़ सकती है
न चाहते हुए भी अपने बच्चों को
अ से अमेरिका ब से ब्रिटेन यह वर्णमाला पढ़ाने
के लिये होना पड़ सकता है लाचार

मजे-मजे वह जब चाहे पेन्टागन की बनी अपनी
एक ऐसी कार जिसके दरवाजों से, दोस्ता और दुश्मन
दोनों की तरह बाहर निकलने की सुविधा है,
वह अपने मूँछ पर ताव देता बाहर निकल सकता है
वह अपने ही पैदा किये दुश्मन को मारने अपनी गेंद ढूंढते
जिद्दी बच्चे की तरह किसी भी देश को खंगाल सकता है
वह वारिसों को ही अपनी विरासत लूटने के लिये उकसा सकता है
वह वियतनाम को अपने सिर की तरह खुजा सकता है  
कंबोदिया को नोच सकता है ब्रिटेन की तरह

वह अपने इतिहास को पूरी दुनिया में  
मुख्य इतिहास की तरह संभालने
और शेष दुनिया को अपना अपना इतिहास
उपइतिहास की तरह मानने की दे सकता है हिदायत
अपने ही देशवासियों के साथ साथ चढ़ाते हुए
अपने हथियारों की बाहें अन्य देशों से भी
कह सकता है जो मेरी लड़ाई में साथ नहीं मेरे
वह इतिहास में भी साथ नहीं होंगे मेरे
और मेरे बिना इतिहास भी दुनिया का क्या इतिहास
अमेरिका के राष्ट्रपति होने के जितने मजे हैं वह
दुनिया के किसी देश के राष्ट्रपति होने के नहीं

आप हो जायें किसी भी देश के राष्ट्रपति
आपके राष्ट्रपति होने का तब क्या मतलब
जब आपकी जेबें डालरों से न भरी हों
इस मामले में एक अमेरिका का राष्ट्रपति ही है
जिसकी जेब उलीचने की हद तक डालरों से भरी रहती है

अपने कोट की जेबों में भरे डालरों के मजेदार खेल में 
वह इतना माहिर होता है कि उसके दायीं जेब से
डालर निकालकर बायीं तरफ उछालते ही
इराक हो जाता है और बायीं जब से निकालकर
दायीं तरफ उछालते ही हो जाता है अफगान
वह यूरों को पुचकारता है उसे ज्यादा न उछलने की
सलाह देता है और डालर के कान में
धीरज बनाये रखने के लिए फुसफुसाता है

अमेरिका का राष्ट्रपति बस अमेरिका का राष्ट्रपति
होने की वजह से इतने मजे में दिखाई देता है
कि उसकी रगड़ने की वजह से अक्सर
लाल हो जाती आंखों में लगातार किरकिरी सा चुभता
क्यूबा किसी को दिखाई ही नहीं देता
अपने प्रेम के बराबर नफरत करनी पड़ सकती है न चाहते हुये
क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति होने के अपने ही मज़े हैं

मूल स्रोत : पहल’ 86..   त्रैमासिकी अँक - मई, जून, जुलाई 2007..
खँड - पहल-कवितायें-विशेष .. .. रचना- श्री पवन करण पृष्ठ 52-54

प्रpledge of labor party-usaसँगतः  अँतर्जाल से एक अन्य छवि

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मुझे लगता है कि इस कविता की प्रासँगिकता पर आज भी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं उठ सकता, सो इसे यहाँ सहेज़ दिया । जबकि यह बता दूँ कि यह कविता श्री पवन करण द्वारा सन 2005 के पूर्वार्ध में लिखी गयी थी और पहल ’86 के  अँक में  प्रथम  बार  दृष्टिगोचर  हुई  है । स्थितियाँ जस की तस हैं, बल्कि वह बदतर की ओर ही घिसटती जा रही हैं । अमेरिका और अमेरिकी राष्ट्रपति का मूल चरित्र अपनी जगह बरकरार है, राष्ट्रपति का नाम और नस्ल बदल जाने मात्र से क्या होता है ? 

इससे आगे

12 May 2010

तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके, मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ........

Technorati icon
गुलज़ार पर कुछ लिखना जैसे मन के कितने कोनो से गुजरना है .....कितनी जिंदगियो को रिवाइंड करना है .....वो मेरे लिए उस कोर्स की किताब की  माफिक है जिसे जितनी बार पढ़ा जाये.भीतर से
हर बार नया कुछ निकाल देती है ........
इक नज़्म की चोरी इक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में,
गोल तिपाई के ऊपर थी!
विस्की वाले ग्लास के नीचे रक्खी थी
शाम से बैठा,
नज़्म के हल्के-हल्के सिप मैं घोल रहा था होठों में,
शायद कोई फ़ोन आया था-
अंदर जा के, लौटा तो फिर नज़्म वहाँ से गायब थी।

अब्र के ऊपर नीचे देखा
सुर्ख़ शफ़क़ की जेब टटोली
झाँक कर देखा पार उफुक के
कहीं नज़र न आई, फिर वो नज़्म मुझे!

आधी रात आवाज़ सुनी, तो उठ के देखा
टाँग पे टाँग रखे, आकाश में
चाँद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया को अपनी कहके नज़्म सुनाने बैठा था।


रिश्तो को गर केनवस पर रोका जाता .तो शायद सबसे अलहदा रंग उनके केनवस पर होता ....."मैंने तो एक ही बार बुना था रिश्ता "लिखने वाले गुलज़ार ...एक ही रिश्ते को अलग अलग एंगल से देखते है ....
रिश्ता शायद उनके फेवरेट टोपिक है ......शायद   रिश्तो   से उनका भी कोई रिश्ता है ....... तभी रिश्तो   पर कोई भी नज़्म .....अजीब सा  पर्सनल टच देती है ....
मसलन.....तीन मिसाले .......




वक़्त वक़्त को जितना गूँध सके हम! गूँध लिया
आटे की मिक़्दार कभी बढ़ भी जाती है
भूख मगर इक हद से आगे बढ़ती नहीं
पेट के मारों की ऐसी ही आदत है-
भर जाए तो दस्तरख़्वान से उठ जाते हैं।

आओ, अब उठ जाएँ दोनों
कोई कचहरी का खूँटा दो इंसानों को
दस्तरख़्वान पे कब तक बाँध के रख सकता है
कानूनी मोहरों से कब रुकते हैं, या कटते हैं रिश्ते
रिश्ते राशन कार्ड नहीं हैं।


ख़ुदकुशी !!

बस एक लमहे का झगड़ा था....
दर-ओ-दीवार पर ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई, उड़ती हुई, जलती हुई किरचियाँ
नज़र में, बात में, लहज़े में
सोच और साँस के अंदर
लहू होना था एक रिश्ते का, सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा कर फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्ज़ें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग ना जाए
बस एक लमहे का झगड़ा था........




इस वाली नज़्म के कई टुकड़े आपके भीतर हमेशा के लिए बस जाते है .......




मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको

मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुँधलाने लगा है अब तख़य्युल* में
बदलने लग गया है अब वह सुबह शाम का मामूल
जिसमें तुझसे मिलने का भी एक मामूल** शामिल था

तेरे खत आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके
मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ
कि जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में

तेरा बे को दबा कर बात करना
वॉव पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गए देखा नहीं ना खत मिला कोई
बहुत दिन हो, गए सच्ची
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं




"सोना" ओर "बिट्टू " दो नाम भर है .पर गुलज़ार ने इन्हें सिर्फ नाम नहीं रहने दिया है ...उनकी  नज्मो के ये चेहरे है ...जिनकी सूरत जाने कितनी सूरतो से मिलती है ....जिनकी सीरत जाने कितनी सीरतो से ....मोहब्बत के जिस रंग को वे कागजो में बिखेरते है .....अजीब बात है के हर शख्स उससे इतेफाक रखता महसूस होता है .....

मुझे अफ़सोस है मुझे अफ़सोस है सोना
कि मेरी नज़्म से हो कर गुज़रते वक़्त बारिश में
परेशानी हुई तुम को

बड़े बे वक़्त आते हैं यहाँ सावन,
मेरी नज़्मों की गलियाँ यूँ भी अक्सर भीगी रहती हैं
कई गढ़ों में पानी जमा रहता है,
अगर पाँव पड़े तो मोच आ जाने का ख़तरा है।

मुझे अफ़सोस है लेकिन
परेशानी हुई होगी कि मेरी नज़्म में कुछ रौशनी कम है
गुज़रते वक़्त दहलीज़ों के पत्थर भी नहीं दिखते
कि मेरे पैरों के नाखून कितनी बार टूटे हैं
हुई मुद्दत कि चौराहे पे
अब बिजली का खंबा भी नहीं जलता
परेशानी हुई तुम को-
मुझे अफ़सोस है सचमुच।


आदमी को ....जिस तरह से वे भीतर से पकड़ते है ...लगता है रूह को कोई फ़कीर अपने हाथो से टटोल रहा है.......ओर  मय  इस्त्री उसे वापस कर रहा है ......

जिस्म मुझे मेरा जिस्म छोड़कर बह गया नदी में
अभी उसी दिन की बात है
मैं नहाने उतरा था घाट पर जब
ठिठुर रहा था-
वो छू के पानी की सर्द तहज़ीब डर गया था।

मैं सोचता था,
बग़ैर मेरे वो कैसे काटेगा तेज़ धारा
वो बहते पानी की बेरुखी जानता नहीं है।
वो डूब जाएगा-सोचता था।

अब उस किनारे पहुँच के मुझको बुला रहा है
मैं इस किनारे पे डूबता जा रहा हूँ पैहम
मैं कैसे तैरूँ बग़ैर उसके।

मुझे मेरा जिस्म छोड़कर बह गया नदी में।


सिग्नल !!!!!

होठ हिलते है भिखारी के 

सुनाई नहीं देता /

हाथ के लफ्ज़ उछालते है ,

वो कुछ बोल रहा है /

थपथपाता है हर इक कार का शीशा आकर/ 

ओर /

उजलत में है .ट्रेफिक के सिग्नल पे नज़र है

/ चेंज है तो सही/कौन इस गर्मी में ..

.अब कार का शीशा खोले/

अगले सिग्नल पे सही/ 

रोज कुछ देना जरूरी है/

खुदा राजी रहे



सिर्फ एक पोस्ट में उन्हें रोकना किसी समन्दर को हथेली में भरने जैसा है ....इसलिए उनकी  कुछ  नज्मो को यहाँ ला के रखने की कोशिश करूँगा .के शायद किसी  किताब के पन्ने से अलग कंप्यूटर के परदे पर भी ये नज्मे .....जिंदा रहे ....बरसो .धड़कती रहे....नए सेलो के साथ.....


इससे आगे

26 April 2010

अज़ीब आदमी

Technorati icon

weblogpar

उन दिनों सरकार  ने  बाहर  जाने  पर  कड़ी  पाबंदी  लगा  रखी  थी   और  क्योंकि  बुलावा  केवल  धर्म  और  रणधीर  का था, इसलिए मंगला और दिल्लू नहीं जा सकती थी। बड़ी दौड़-भाग की, लेकिन  वक्त  न हीं था । धर्म  ने कहा कि वह  भी नहीं जाएगा, तो रणधीर ने कहा, वह अकेला चना क्या भाड़ फोड़ने जाएगा ।

_______________________________
नहीं भई, अपनी पहली फिल्म जा रही है । आप लोगों का जाना बहुत जरूरी है । केशव ने राय दी।
नहीं, मंगला नहीं जा सकती, इसलिए मै नहीं जाउंगा ।
अरे तो क्या हुआ तुम चले जाओ । विलायत भागा थोड़े ही जाता है, फिर चले जाएंगे । मंगला ने आग्रह किया। उसके फरिश्तों को भी मालूम न था कि जरीना और आमिना इंग्लैण्ड गई हुई है । वहां से वह भी जर्मनी जाएंगी। मीना को उसके पतिदेव ने नहीं जाने दिया, क्योंकि उनका भी बुलाया नहीं था, बेचारी रो-पीट कर चुप हो गई ।

बात बिगड़ने पर तुली हुइ्र थी । किसी फुर्तीले फोटाग्राफर ने दूसरे ही दिन अखबार के लिए वहां खींचे हुए फोटो भेज दिए और जब वे फोटो छपे तो मंगला पर जैसे बिजली गिर पड़ी । बच्चे पार्क में खेलने गए हुए थे । वह फटी-फटी आंखों से फोटो देखती रही । हर फोटो में धर्म और जरीना साथ थे । चालाक फोटोग्राफर ने आमिना और रणधीर को इस सफाई से काटा था कि सिर्फ़ उनके ही वहाँ होने का सन्देह भी न होता था, और उनके सम्बन्ध में सांकेतिक रूप से कुछ छींटे भी कसे गए थे । पुराने तनाव का भी जिक्र था, मंगला की अनुपस्थिति का हवाला भी दिया था । ऐसा मालूम होता था, धर्म जानबूझकर उसे नहीं ले गया, ताकि वहां दोनों गुलछर्रें उड़ा सकें । कई बार जी चाहा, गिलास में सारी की सारी नींद लाने वाली गोलियां उडेलकर इस जानलेवा दुख को खत्म कर डाले कि पीछा छूटे ।
लेकिन फिर सोचा, वह तो वे दोनों चाहते ही है । नहीं इस जन्म में तो उन्हें खुख नहीं करना है । लेकिन जब ले जाने का इरादा नहीं था, तो उसने कहा क्यों था । शायद इसलिए कि मैं नागपुर न जा सकूं, मेरा प्रोग्राम भंड करके खुद चला जाए क्योंकि उसमें मुहम्मद रफी है । मुहम्मद रफी से बैर है ।  इसलिए कि वह मुझे काम देता है तो श्रीमानजी की बेइज्जती होती है ।

सुबह रफी की पार्टी नागपुर जा रही है । उसने फौरन फोन किया । लेकिन वहां गाउंगी क्या ? कुछ तैयारी भी नहीं की है । रहने दो ।
अरे नहीं, नहीं यह नहीं हेा सकता । तुम्हें चलना पड़ेगा । कुछ भी गा देना ।
रफी और मंगला रात डेढ़ बजे तक हारमोनियम पर रिहर्सल करते रहे ।

धर्म को प्लेन ही में मालूम हेा गया था कि वहां वह भी आ रही है । वह बड़ी उदारता और लापरवाही से हंस दिया ।
कैसी हो ? धर्म ने जरीना को देखकर औपचारिकता से पूछा ।
अच्छी हूं, आप तो बहुत बिजी है न, पिक्चर शुरू हो गई है न ? इंग्लैण्ड में बड़ा मजा आया । मैनें तो कहा, आओ आमिना आपा यहां खो जाए.........। बड़बड़ बड़बड़ घँटों वह बकती रही । धर्म के माथे पर नमी आई ।
धर्म ने उसके कंधे को छुआ और जब मुड़ी तो उसके सामने हथेली फैला दी ।
सदियां भागती-दौड़ती गुजर गई, युग बीत गए ।
वह मुटिठयां भींचे उसके हथेली को घूर रही थी ।
वह देखा, आमिना ने घसीटकर उसे अपने आगे कर लिया । और फव्वारे के पास छूटती हुई आतिशबाजी देखती रही ।
धर्म ने मुटठी बंद करके जेब में डाल ली । उसकी नर्म-नर्म आखों में आतिशबाजी का अक्स धड़धड़ जल रहा था । वह रात रणधीर ने मोर्चें पर बिताई । उसे धर्म के पागलपन में कोई शक नहीं रहा था । उसने कभी एक इंसान को बिना खून की एक बूंद बहाए यों फड़फड़ाते नहीं देखा था ।
___________________________________
नागपुर का प्रोग्राम काफी सफल रहता अगर ऐन वक्त पर मंगला जरूरत से ज्यादा पीकर स्टेज पर न आ जाती । किसी को आशंका न थी कि वह इस हद तक आदी हो चुकी है । सुबह से वह होटल में अपने कमरे में बन्द पड़ी थी । जब वह झूमती-लड़खड़ाती स्टेज पर आई तो सब अचम्भे में रह गए । उलझे बाल, बेतरतीब कपड़े । इधर आर्केस्टा ने साज मिलाए उधर उसे बड़े जोर की उबकाई ने धर दबोचा । मारे सडांध के नाकें सड़ गई । बड़ी मुश्किल से उसे बाहर ले गए ।
अखबार में पूरे विवरण के बाद लिखा था कि धर्म जर्मनी गया हुआ है और शायद मंगला का पैर भारी है ।
क्या जरूरत थी जाने की ? मैने मना किया था । वह एकदम नर्म पड़ गया, मुझे बताया भी नहीं मंगलू ने ।
तुम्हें फुर्सत मिले तो बताए । यार, गर्दन उड़ा देने के काबिल हो । तुम जैसी उसकी बेकद्री करते हो, वही है जो बर्दाश्त कर ही है । कोई और होती तो कभी की तुम्हारे जनम में थूक कर अलग हो गई होती ।
अबकी फिर बिटिया दो, और हम भी ऐसी सुपर हिट फिल्म बनाएंगे कि दुनिया देखती रह जाएगी । उसने मंगला के बेड पर बैठकर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा ।
बिटिया । हुंह, भगवान न करें । उसने धर्म का हाथ झटक दिया और ऐसे दूर हट गई जैसे वह कोढ़ी हो ।
मंगलू......................
बाबा, यह चोंचले वहीं बघारो जाकर । वह बेड से उठकर डेसिंग टेबुल पर जा बैठी । दराज खोलकर उसने गिलास में थोड़ी सी व्हिस्की डाली और कंघी करने के लिए चोटी खोलने लगी ।
मंगलू, यह सबेरे सबेरे..।
तो ? मंगला ने जैसे उसे चिढ़ाने के लिए नीट पीनी शुरू कर दी ।
यह अच्छा नहीं मंगला ।
क्या अच्छा है और क्या अच्छा नहीं, यह मैं भी जानती हूं । तुम क्यों फिक्र में घुलू जाते हो ।
मंगला ।
अरे बाबा, जाओ न अपनी गुलबदन के पास । बड़ी मुश्किल से तो रूठी देवी को मनाया है, कहीं फिर न रूठ जाए ।
धर्म उसकी आखों का जहर न बर्दाश्त कर सका, तेजी से बाहर निकल गया । मंगला ने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया और कुंडी चढ़ा ली ।

___________________________________________
अभी मंगला और धर्म के अलग हेा जाने के बारे में हर एक को मालूम न हुआ था ।
बाहर दरवाज़े पर फ़रीद खड़ा था और फरीद ने तो अभी इंडस्ट्री में पांव भी न रखा था । फिल्मी पति घरों में कम ही मिलते है । मंगला ने धर्म के घर में न होने की कोई चर्चा न की ।
बोलने जा रही थी, अरे उनके कहने का क्या ठीक ! लेकिन फिर वह संभल गई, बोली कि भूल गए होंगे ।
मैं यह पूछने आया था कि शूटिंग है कि नहीं । उन्होंने कहा था, शूटिंग शुरू होगी तब सेट पर ही टेस्ट लेंगे । टेलीफोन पर कोई ठीक से जवाब नहीं देता ।
फिल्म लाइन पसन्द है ।
हां, अगर चांस मिल जए तो..............।
अरे बड़ी गन्दी लाइन है, कुछ और काम करो न ।
कहां मिलता है काम ! एक फिल्म लाइन है जहां योग्यता धरी रह जाती है बस किस्मत चलती है ।
अरे दुनिया में हजारों काम है ।
मगर फिल्म लाइन में क्या बुराई है ?
क्या बुराई नहीं यह पूछो । तुम तो रोज मजे करते फिरोगे, बीबी सिर पकड़कर नसीब को रोएगी ।
बीबी है ही नहीं तो रोएगी कहां से ! वह हंसा ।
कभी तो आयेगी ।
क्या आएगी ? मैं शादी हीं नहीं करूंगा ।
हाय राम, घर नहीं बसाओगे । मंगला अपनी धुन में कहती चली जा रही थी । उसे एकाएक ऎसी बातें नहीं छेड़नी चाहिए थी ।
चाय लोगे कि कुछ ठंडा ?
जी, अब चलूंगा।
वह खड़ा हो गया ।
अरे बैठो न.........उसने फरीद का आस्तीन पकड़कर बैठा लिया । जब उसने व्हिस्की पेश की तो फरीद सिटपिटा गया ।
क्यों, पियो न बहुत जरा सी दी है मैंने ।
नहीं । फरीद तकल्लुफ करने लगा ।
अरे इतना बड़ा ताड़ सरीखा हो गया । क्या अभी तक दूध ही पीता हैं मंगला मूड में थी ।
डैडी.. वह झिझक गया ।
तेरे डैडी नहीं पीते ? खूब पीते है । कभी तुझे नहीं पिलाई ? सच्ची कि झूठ बोल रहा है ?
फरीद हंसने लगा, यार दोस्तों के साथ चखी तो है ।
तो बस, लो दो बूंद तो है ही । बड़े तक्ल्लुफ से उसने गिलास ले लिया ।

_____________________________________
इन्सानी रिश्तों के नाजुक पहलुओ पर अभिनय करते-करते वह यह याद न रख सके कि यह मात्र एक्टिंग है और कुछ नहीं ? और बस अन्दर ही अन्दर एक नई प्रणय कथा पनपने लगी....एसी परिस्थितियां जिन्होंने न केवल धर्म को ही अजीब आदमी बना डाला, बल्कि जरीना भी एक रहस्य बनकर रह गई.................

साभार : अज़ीब आदमी - इस्मत चुग़ताई

अब चँद अल्फ़ाज़ मेरे भी :
झकरोर देने वाला उपन्यास-अँश, यही न ? ऎसा ही कुछ पिछले दिनों डा. अनुराग आर्य से बातचीत के दौरान हमने महसूस किया कि जो कुछ हम पढ़ते हैं, या पढ़ चुके हैं.. वह फौरी तौर पर आपको अपसेट कर देते हैं, कुछ हफ़्तों तक यादों में बसे रहते हैं, बाद के महींनों में वह आपको हॉन्ट तो करते हैं, पर जैसे धुँधले साये की मानिंद । वह हूबहू   अपनी शक्लो सूरत के साथ दिमाग में नहीं चढ़ते, बस अपने होने की ताक़ीद करते रहते हैं, " जरा याद करो, तुमने मुझे पढ़ा था " गोया आपकी बिसरी हुई महबूबा रिश्तों के गुज़र-बीतने का याकि भुला दिये जाने का उलाहना दे रही हो । जैसे वह बेवफ़ाई की लानतें भेज रहीं हों कि, कभी मैंनें इन लफ़्ज़ों के जरिये तुम्हारे ज़ज़्बातों को सींच सींच कर इस मुकाम पर ला खड़ा किया, और.. तुम ? अलसाये हुये तन्हा लम्हों में आप उस तक पहुँचना चाहते हैं, उसे दुबारा सहला कर अपने को ताज़ा करना चाहते हैं, पर आलस का अपना एक अलग  तक़ाज़ा आपको बेबस किये रहता है, " तुम शायद पीछे कमरे के सेल्फ़ में पड़ी होगी, इस मुई आलस से फ़ारिग़ होकर मैं तुम तक बस पहुँचता ही हूँ !"
उन सफ़हों से जिन्होंने हमें सहारा दिया, ऎसे ऎसे ज़ज़्बे दिये कि हम हँस पड़े तो रोये भी हैं, हमारे नाशुक्रेपन की यह बातें आयी गयी हो जाती हैं । तो.. अनुराग से बातचीत में सोचा यह गया कि अग़र हम ऎसा कुछ पढ़ें, तो उसे नेट के किसी कोने पर दर्ज़ कर दिया करें, यही एक ऎसा ज़रिया है कि, हम हिन्दोस्ताँ में पढ़े सफ़हे, तलब लगने पर कनाडा में भी हासिल कर सकते हैं । वाह, क्या बात है.. और हमने एक दूसरे से विदा ली ! इस दरम्यान तमाम समय मुझे इस्मत आपा का यह अज़ीब आदमी याद आता रहा । इसे पिछले 15 सालों में मैंनें तकरीबन 20 बार तो पढ़ा ही होगा, जबकि बीच बीच में इसके पन्नों का उलटते रहना इसमें शामिल नहीं है । इस क़दर कि मेरी दुर्गा-सप्तशती की तरह यह भी बेशुमार पैबन्दों के सहारे मेरे पास बावस्ता है । इसकी एक और भी वज़ह है, उसका खुलासा इन लाइनों के बाद..
जब यह एक उर्दू रिसाले में सिलसिलेवार छप रहा था, उसी समय से यह कयास लगने लगा कि इस अफ़साने के किरदारों में..  ज़रीना शायद वहीदा रहमान हैं
मँगला गीता दत्त को मान लीजिये ( उन दिनों का उनका गाया गीत ’ आज सज़न मोहे अँग लगा ले, जनम सफल हो जाये, हिरदै की पीड़ा प्रेम की अग्नी.. " दर्द की कुदरती शिद्दत के साथ आज भी मुझे उतना ही परेशान करती है, जितना गीतादत्त को उनकी तन्हाईयों और रुसवाईयों ने किया होगा )
धर्म को गुरुदत्त न मानने की लोगों ने कोई वज़ह न देखी ।
वक़्त के पहले की सोच पर चलने वाले गुरुदत्त मेरे पसँदीदा तो हैं ही, ग़र वह इस्मत आपा की कलम से मौज़ूँ हुये हों.. तो फिर इस नॉवेल को पैबन्दों के सहारे कौन न ज़िन्दा रखना चाहेगा ?
और फ़रीद ? फ़रीद मैं आप पर छोड़ता हूँ !

 

 

इससे आगे

12 April 2010

किसी का मुंह जो यह बात हमारे मुंह पर लावे

Technorati icon

.... ... के हमने यह नायाब अफ़साना जो रानी केतकी के नाम से चलता है, पूरा न किया ?
वापस आकर देखता हूँ,
तो डेढ़ महीने पूरा होना चाहते हैं.. और रानी का किस्सा कोने पड़ा मेरी राह तक रहा है । ज़माने की रुसवाईंयों ने मुझे खुद से रुबरू होने का इतना मौका भी न दिया कि रानी को लेकर किया मेरा कौल वखत पर तामील हो । तो महज़ अफ़सोस व तरद्दुद इसकी भरपाई क्योंकर करें ? गुम रह जाता यह खयाल के हाथ में लिया एक काम रहा जाता है, गर मेरे भाई सरीखे एक यार बातचीत की बेतार मशीन से मुझे आवाज़ न लगाते, " बरखुरदार, कहाँ रहते हो ? इतने ग़ाफ़िल भी न रहो के अपने यार की नाक कटाओ, और ज़लद ब ज़ल्द सबको पूरा किस्सा पढ़वाओ । " उनने हूबहू वही बात कही जो यहाँ बयान है । ज़नाब ने रोज़ी की ख़ातिर  मलेच्छ मुलुक में अपना डौल बनाया तो क्या, दिल तो उनका जैसे यहीं अपने वतन के गिर्द टँगा दिखता है । ऎलान करता हूँ भाईबन्द यार मेरे, कि  चाहे  जो  भी  गुज़र  जाये  पर  आज केतकी के किस्से को पूरा किये बिना अपनी जगह से भी न हिलूँगा । अगर कल को टाला, तो  इन  नाज़ुक  माहज़बीं  रानी  का  किस्सा  मेरे  नामाकूल हाथों से हौलनाक अफ़साना बनने का कलँक दे जायेगा । परवाह नहीं पीछे के बयानात को किसीने गौर न लिया तो भी  क्या.. चँद  पढ़ने  वाले यह नुकसान क्योंकर सहें ?
तो ज़नाब इब्ने ईँशा साहब यह फरमा चुके हैं कि
" खेलो, कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो । अच्छी घडी- शुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीत चाही ठीक कर लावे और शुभ घडी शुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के मां-बाप के पास भेजा । ब्राह्मन जो शुभ मुहूरत देखकर हडबडी से गया था, उस पर बुरी घडी पडी । सुनते ही रानी केतकी के मां-बाप ने कहा - हमारे उनके नाता नहीं होने का " अब आगे का हवाल..... ..

उनके बाप-दादे हमारे बाप दादे के आगे सदा हाथ जोडकर बातें किया करते थे और दो टुक जो तेवरी चढी देखते थे, बहुत डरते थे । क्या हुआ, जो अब वह बढ गए, ऊंचे पर चढ गए । जिनके माथे हम न बाएं पांव के अंगूठे से टीका लगावें, वह महाराजों का राजा हो जावे । किसी का मुंह जो यह बात हमारे मुंह पर लावे ! ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - अगले भी बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं । राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं । यह कुंवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती । नहीं तो ऐसी ओछी बातें कब हमारे मुंह से निकलती । यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की चंगेर फेंक मारी और कहा - जो ब्राह्मण की हत्या का धडका न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता । और अपने लोगों से कहा- इसको ले जाओ और ऊपर एक अंधेरी कोठरी में मूंद रक्खो। जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान ने सुनी। सुनते ही लडने के लिए अपना ठाठ बांध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ आया । जब दोनों महाराजों में लडाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगी; rani-ketki-ki-kahani-dr.amar-at-amar4hindi और दोनों के जी में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा ।
इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे । राजपाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता । सूरजभान के हाथ से आपने बचाया । अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा ? अपने आप में तो सकत नहीं । फिर ऐसे राज का फिट्टे मुंह कहां तक आपको सताया करें । जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा - तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो, दनदनाओ, सुख चैन से रहो । अब वह कौन है जो तुम्हें आंख भरकर और ढब से देख सके । यह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया । जो कुछ ऐसी गाढ पडे तो इसमें से एक रोंगटा तोड आग में फूंक दीजियो । वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुंचेंगे। रहा भभूत, सो इसीलिए है जो कोई इसे अंजन करे, वह सबको देखें और उसे कोई न देखें, जो चाहे सो करें। जाना गुरुजी का राजा के घर गुरु महेंदर गिर के पांव पूजे और धनधन महाराज कहे । उनसे तो कुछ छिपाव न था । महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए । सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगडे । उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी । रानीकेतकी ने भी गुरुजी को दंडवत की; पर जी में बहुत सी गुरु जी को गालियां दी । गुरुजी सात दिन सात रात यहां रहकर जगतपरकास को सिंघासन पर बैठाकर अपने बंधवर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ धमके और राजा जगत परकास अपने अगले ढब से राज करने लगा । रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना ।

दोहरा : (अपनी बोली की धुन में)
रानी को बहुत सी बेकली थी । कब सूझती कुछ बुरी भली थी ॥ चुपके-चुपके कराहती थी । जीना अपना न चाहती थी॥ कहती थी कभी अरी मदनबान । हैं आठ पर मुझे वही ध्यान ॥ यां प्यास किसे किसे भला भूख । देखूं वही फिर हरे हरे रुख ॥ टपके का डर है अब यह कहिए । चाहत का घर है अब यह कहिए ॥ अमराइयों में उनका वह उतरना । और रात का सांय सांय करना ॥ और चुपके से उठके मेरा जाना । और तेरा वह चाह का जताना ॥ उनकी वह उतार अंगूठी लेनी । और अपनी अंगूठी उनको देनी ॥ आंखों में मेरे वह फिर रही है । जी का जो रूप था वही है ॥ क्योंकर उन्हें भूलूं क्या करूं मैं । मां बाप से कब तक डरूं मैं ॥ अब मैंने सुना है ऐ मदनबान । बन बन के हिरन हुए उदयभान ॥ चरते होंगे हरी हरी दूब । कुछ तू भी पसीज सोच में डूब ॥ मैं अपनी गई हूं चौकडी भूल । मत मुझको सुंघा यह डहडहे फूल ॥ फूलों को उठाके यहां से ले जा । सौ टुकडे हुआ मेरा कलेजा ॥ बिखरे जी को न कर इकट्ठा । एक घास का ला के रख दे गट्ठा ॥ हरियाली उसी की देख लूं मैं । कुछ और तो तुझको क्या कहूं मैं ॥ इन आंखों में है फडक हिरन की । पलकें हुई जैसे घासवन की ॥ जब देखिए डबडबा रही हैं । ओसें आंसू की छा रही हैं ॥ यह बात जो जी में गड गई है । एक ओस-सी मुझ पे पड गई है ।

इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती । रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत का, जो गुरुजी दे गए थे, आँख मिचौबल के बहाने अपनी मां रानी कामलता से । एक रात रानी केतकी ने अपनी मां रानी कामलता को भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा - गुरुजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया है, वह कहां रक्खा है और उससे क्या होता है ? रानी कामलता बोल उठी - आंख मिचौवल खेलने के लिए चाहती हूं । जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूं और चोर बनूं तो मुझको कोई पकड न सके । महारानी ने कहा - वह खेलने के लिए नहीं है । ऐसे लटके किसी बुरे दिन के संभलने को डाल रखते हैं । क्या जाने कोई घडी कैसी है, कैसी नहीं । रानी केतकी अपनी मां की इस बात पर अपना मुंह थुथा कर उठ गई और दिन भर खाना न खाया । महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं । तब रानी कामलता बोल उठी - अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आंख मिचौवल खेलने के लिए वह भभूत गुरुजी का दिया मांगती थी । मैंने न दिया और कहा, लडकी यह लडकपन की बातें अच्छी नहीं । किसी बुरे दिन के लिए गुरुजी गए हैं । इसी पर मुझसे रूठी है । बहुतेरा बहलाती है, मानती नहीं ।

राजा इंदर का कुँवर उदैभान का साथ करना राजा इंदर ने कह दिया, वह रंडियाँ चुलबुलियाँ जो अपने मद में उड चलियाँ हैं, उनसे कह दो-सोलहो सिंगार, बास गूँधमोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड न खटोलों का इस राज से लेकर उस राज तक अधर में छत बाँध दो । कुछ इस रूप से उड चलो जो उडन-खटोलियों की क्यारियाँ और फुलवारियाँ सैंकडों कोस तक हो जायें । और अधर ही अधर मृदंग, बीन, जलतरंग, मँुहचग, घँुगरू, तबले घंटताल और सैकडों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ। और उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनवेधे मोतियों के झाड और लाल पटों की भीड भाड की झमझमाहट दिखाई दे और इन्हीं लाल पटों में से हथफूल, फूलझडियाँ, जाही जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब से छूटने लगें तो देखने वालों को छातियों के किवाड खुल जायें । और पटाखे जो उछल उछल फूटें, उनमें हँसती सुपारी और बोलती करोती ढल पडे । और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से मोतियों की लडियाँ झडें जो सबके सब उनको चुन चुनके राजे हो जायें। डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड छेड सोहलें गाओ। दोनों हाथ हिलाके उगलियाँ बचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह ताव भाव वह चाव दिखाओ; ठुड्डियाँ गिनगिनाओ, नाक भँवे तान तान भाव बताओ; कोई छुटकर न रह जाओ । ऐसा चाव लाखों बरस में होता है । जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की झपक के साथ वही होने लगा । और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने कह दिया था, सब कुछ उसी रूप से ठीक ठीक हो गया । जिस ब्याह की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ फैलावा  क्या  कुछ  होगा, यही  ध्यान  कर  लो । ठाटो करना गोसाई महेंदर गिर का जब कुँवर उदैभान को वे इस रूप से ब्याहने चढे और वह ब्राह्मन जो अँधेरी कोठरी से मुँदा हुआ था, उसको भी साथ ले लिया और बहुत से हाथ जोडे और कहा-ब्राह्मन देवता हमारे कहने सुनने पर न जाओ । तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो । एक उडन खटोले पर वह भी रीत बता के साथ हो लिया । राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर ऐरावत हाथी ही पर झूलते झालते देखते भालते चले जाते थे । राजा सूरजभान दुल्हा के घोडे के साथ माला जपता हुआ पैदल था । इसी में एक सन्नाटा हुआ । सब घबरा गए । उस सन्नाटे में से जो वह 90 लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले मोतियों की लडियों की गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढब की बाँधे हुए मिरिगछालों और बघंबरों पर आ ठहर गए । लोगों के जियों में जितनी उमंगें छा रही थी, वह चौगुनी पचगुनी हो गई । सुखपाल और चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महारानी लछमीदास के पीछे चली आतियाँ थीं । सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी का सवाँग आया । कहीं जोगी जातियाँ आ खडे हुए । कहीं कहीं गोरख जागे कहीं मुछंदारनाथ भागे । कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामन रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम लछमन सीता सामने आई, कहीं रावन और लंका का बखेडा सारे का सारा सामने दिखाई देने लगा कहीं कन्हैया जी की जनम अष्टमी होना और वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ चलना, गाए चरानी और मुरली बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका रहस और कुब्जा का बस कर लेना, वही करील की कुंजे, बसीबट, चीरघाट, वृंदावन, सेवाकुंज, बरसाने में रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का सब ज्यों की त्यों आँखों में आना और द्वारका जाना और वहाँ सोने का घर बनाना, इधर  बिरिज  को  न  आना  और  सोलह  सौ  गोपियों  का तलमलाना सामने आ गया । उन गोपियों में से ऊधो क हाथ पकड कर एक गोपी के इस कहने ने सबको रूला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रूँधे हुए जी को खोले थी । चौचुक्का जब छांडि करील को कुँजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय बसे । कलधौत के धाम बनाए घने महाजन के महाराज भये । तज मोर मुकुट अरू कामरिया कछु औरहि नाते जाड लिए । धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए । अच्छापन घाटों का कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे, पक्के चाँदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे। निवाडे, भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर, और जितनी ढब की नावे थीं, सुनहरी रूपहरी, सजी सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं । उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, डोमिनियाँ भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती कूदती फाँदती घूमें मचातियाँ अँगडातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढुली पडतियाँ थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो साने रूपे के पत्तरों से मढी हुई और सवारी से भरी हुई न हो । और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे । उन पर गायनें बैठी झुलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हडों में गा रही थीं । दल बादल ऐसे नेवाडों के सब झीलों में छा रहे थे ।

आ पहुँचना कुँवर उदैभान का ब्याह के ठाट के साथ दूल्हन की ड्योढी पर बीचों बीच सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी छत और किवाड और आंगन में आरसी छुट कहीं लकडी, ईट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी । चाँदनी सा जोडा पहने जब रात घडी एक रह गई थी । तब रानी केतकी सी दुल्हन को उसी आरसी भवन में बैठकर दूल्हा को बुला भेजा । कुँवर उदैभान कन्हैया सा बना हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाँधे उसी तडावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखडा लिए जा पहुँचा । जिस जिस ढब में ब्राह्मन और पंडित बहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होती चली आई थी, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठजोडा हो लिया । अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले । घास के जो फूल कुम्हालाए हुए थे फिर खिले ॥     चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन । रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन ॥ ऐ खिलाडी यह बहुत सा कुछ नहीं थोडा हुआ। आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोडा  हुआ । चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें। दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें ॥  वह उडनखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थी, भर भर झोलियाँ और मुठ्ठियाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के लिए उतर आइयाँ और उडन-खटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे हुए खडे रहे । और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेर होने में पिस गइयाँ । सभों को एक चुपकी सी लग गई । राजा इंदर ने दूल्हन को मुँह दिखाई में एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक पेडी पुखराज की दी और एक परजात का पौधा जिसमें जो फल चाहो सो मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया । और एक कामधेनू गाय की पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लौंडि या उन्हीं उडन-खटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी गाती बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और उन्हें कह दिया-रानी केतकी छूट उनके दूल्हा से कुछ बातचीत न रखना, नहीं तो सब की सब पत्थर की मूरत हो जाओगी और अपना किया पाओगी । और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख रत्ती जो उसकी इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा-यह भी एक खेल है । जब चाहिए, बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटकी छोड दीजै; कंचन हो जायेगा । और जोगी जी ने सभी से यह कह दिया-जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन रात सोने की नदियों के रूप में मनि बरसे । जब तक जिएँ, किसी बात को फिर न तरसें । 9 लाख 99 गायें सोने रूपे की सिगौरियों की, जड जडाऊ गहना पहने हुए, घुँघरू छमछमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड दिया गया । बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊँट रूपयों के तोडे लादे हुए लुटा दिए । कोई उस भीड भाड में दोनों राज का रहने वाला ऐसा न रहा जिसको घोडा, जोडा, रूपयों का तोडा, जडाऊ कपडों के जोडे न मिले हो । और मदनबान छुट दूल्हा दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जाए । बिना बुलाए दौडी आए तो वही और हँसाए तो वही हँसाए । रानी केतकी के छेडने के लिए उनके कुँवर उदैभान को कुँवर क्योडा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को सौ सौ रूप से सँवारती थी

दोहरा
घर बसा जिस रात उन्हीं का तब मदनबान उसी घडी । कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कडी ॥ जी लगाकर केवडे से केतकी का जी खिला । सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पडी ॥ क्या न आई लाज कुछ अपने पराए की अजी । थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हडबडी ॥ मुसकरा के तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा । मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलछडी ॥ जी में आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी । बल बें ऐं रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी की घडी ॥

बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाडों में उदैभान उदैभान चिघाडती हुई आ निकली । एक ने एक को ताडकर पुकारा-अपनी तनी आँखें धो डालो । एक डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड हुई । गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाडों में कूक सी पड गई । दोहरा छा गई ठंडी साँस झाडों में । पड गई कूक सी पहाडों में । दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छांव को ताडकर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने लगीं । बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा । जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी । रानी केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी- दोहरा हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे । हैं वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे ॥ अब तो सारा अपने पीछे झगडा झाँटा लग गया । पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग गया ॥ पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पँुछते चले । उन्ने यह बात कही-जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजडे हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ । गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजडे हुओं की मुट्ठी में हैं । अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं । पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पडी बकती है । मैं इस पर बीडा उठाती हूँ । बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें । मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना चितचाही बात सुनना मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खडी हुई और कहने लगी-लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये । रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ । उन्हीं के हाथों की लिखी चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए । महाराज ने उस बधंबर में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के फूँक दिया । बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सर्वाग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और कहा- बघंबर इसीलिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो तो इसका एक बाल फूँक दीजियो । तुम्हारी यह गत हो गई । अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे ? पर तुम क्या करो यह खिलाडी जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे । भभूत लडकी को क्या देना था । हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था । फिर उन तीनों को जैसा का तैसा करना कोई बडी बात न थी । अच्छा, हुई सो हुई।  अब उठ चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो । अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूँगा । महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घडी यह कह दिया सारी छतों और कोठों को गोटे से मढो और सोने और रूपे के सुनहरे सेहरे सब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की लडियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठा रहूँगा, और छ: महिने कोई चलने वाला कहीं न ठहरे । रात दिन चला जावे । इस हेर फेर में वह राज था । सब कहीं यही डौल था । जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी केतकी के लिये फिर महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे । गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढावा दिया और कहा-तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने घर सिधारो । अब मैं बेटे उदैभान को लिये हुए आता हूं । गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो  तो  वह  सिधारते  हैं । आगे  जो  होगी  सो  कहने  में  आवेंगी -यहाँ पर धूमधाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये । महाराज जगतपरकास ने अपने सारे देश में कह दिया-यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी । गाँव गाँव में अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपडे उन पर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने बड पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के सेहरे बडे-बडे ऐसे जिसमें सिर से लगा पैदा तलक पहुँचे बाँधो । चौतुक्का पौदों ने रंगा के सूहे जोडे पहने । सब पाँण में डालियों ने तोडे पहने ।। बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने । जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहने ॥ जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेहंदी की रचावट के साथ जितनी सजावट में समा सके, कर  लिये  और  जहाँ  जहाँ  नयी  ब्याही  ढुलहिनें  नन्हीं नन्हीं फलियों की ओर सुहागिनें नई नई कलियों के जोडे पंखुडियों के पहने हुए थीं । सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे जिस ढण  से  हो  सकता  था  खेती  बारी  करके, हल जोत के और कपडा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें । और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड सालों की खँडसालें उनमें उडेल गई और सारे बानों और पहाड तनियाँ में लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी । और जितनी झीलें थीं उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड गया और केसर भी थोडी थोडी घोले में आ गई ।

तो.. इस प्रकार यहाँ हिन्दी की पहली कहानी का समापन हुआ । प्रस्तुत यह अँतिम कड़ी  समय-व्यवधान सँभावी मान कर लम्बी हो गयी है । अतः पाठकगण क्षमा करें पर बुकमार्क  सोपान बनाने का यथासँभव प्रयास किया गया है । केवल अपने विस्तार के चलते ही इसे लघु-औपन्यासिक कृति कहा जा सकता है, और इसके कहानी होने पर सवाल उठाये जाते रहे हैं । इसके कहानी होने के सवाल पर  विस्तृत जानकारी अनिल कान्त के ब्लॉग पर उपलब्ध है, जिसमें से मैं केवल इतना अँश उद्घृत करना पर्याप्त समझता हूँ । " समझ नहीं आता कि शुक्ल जी का ध्यान 'इन्दुमती' से पहले लिखी गयी 'रानी केतकी की कहानी' और 'ग्यारह वर्ष का समय' से पहले लिखी गयी 'एक टोकरी भर मिट्टी' पर क्यों नहीं जाता.क्या उन्हें इन दोनों में मार्मिकता नहीं दिखाई देती. डॉक्टर गणपति चन्द्र गुप्त पहले तो लिखते हैं कि हिंदी गद्य में कहानी शीर्षक से प्रकाशित होने वाली रचना 'रानी केतकी की कहानी' है जो सन् 1803 में लिखी गई, किन्तु आगे चलकर वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि किशोरीलाल गोस्वामी हिंदी के प्रथम कहानीकार हैं. डॉक्टर रामरतन भटनागर ने भी 'रानी केतकी की कहानी' को हिंदी की पहली कहानी माना है किन्तु वह जयशंकर प्रसाद की 'ग्राम' नामक कहानी को आधुनिक हिंदी की पहली मौलिक कहानी मानते हैं.डॉक्टर देवेश ठाकुर लिखते हैं कि 'रानी केतकी की कहानी' कहानी नहीं है, बल्कि औपन्यासिक कहानी है. भले ही इंशाअल्लाह ने इसे कहानी कहा है लेकिन इसमें कहानी तत्व की अपेक्षा कथा तत्व ही अधिक है और आगे चलकर अपनी विवेचना में यह कहते हैं कि कालक्रम की दृष्टि से 'रानी केतकी की कहानी' ही पहली कहानी ठहरती है. "

इससे आगे

15 March 2010

हमारे दरमिया ऐसा कोइ रिश्ता नहीं था .....

Technorati icon
परवीन शाकिर...गर आज़ाद नज़्म को बेबाकी से कहना भी एक हुनर है ... तो यकीन मानिये इस हुनर में इनका जवाब नहीं.....
हमारे  दरमिया  ऐसा कोइ  रिश्ता नहीं  था 
तेरे  शानो  पे  कोई चाहत   नहीं थी  
मेरे  जिम्मे  कोई  आँगन  नहीं  था 
कोई  वादा  तेरी ज़ंजीर -ए -पा  बनने  नहीं पाया 
किसी  इक़रार  ने  मेरी कलाई  को  नहीं  थामा  
हवा -ए -दश्त  की  मानिंद  
तू  आज़ाद  था 
रास्ते  तेरी  मर्जी  के  तबे  थे  
मुझे  भी  अपनी  तन्हाई  पे  
देखा  जाए  तो  
पूरा  तसर्रुफ़  था  
मगर  जब  आज  तू  ने  
रास्ता  बदला  
तो  कुछ ऐसा  लगा मुझ  को  
के  जैसे  तू  ने  मुझ  से  बेवफाई  की 
 
 
2) 
खलिश 

अजीब  तर्ज़ -ए -मुलाक़ात  अब  के  बार  रही  

तुम्ही  थे  बदले  हुए  या  मेरी  निगाहें  थी  
तुम्हारी  नज़रो . से  लगता  था  जैसे  मेरी  बजाये  
तुम्हारे  घर  में . कोई  और  शख्स  आया  है  
तुम्हारे  ओहदे  की  देने . तुम्हें  मुबारक  

सो  तुम  ने  मेरा  स्वागत  उसी  तरह  से  किया  
जो  अफसरान -ए -हुकूमत  के  ऐताकाद  में . है  
तकल्लुफ़ान  मेरे  नज़दीक  आ  के  बैठ   गए  
फिर  एहतमाम  से  मौसम  का  ज़िक्र   छेड़   दिया  

कुछ  उस  के  बाद  सियासत  की  बात  भी  निकली  
अदब  पर  भी  कोई  दो  चार  तबसरे  फरमाए  
मगर  न  तुम  ने  हमेशा  की  तरह  ये  पूछा  
क्या  वक़्त  कैसा  गुज़रता  है  तेरा  जान -ए -हयात  

पहाड़  दिन  की  अज़ीयत  में . कितनी  शिद्दत  है  
उजाड़  रात  की  तन्हाई  क्या  क़यामत  है  
शबो  की  सुस्त  रवी  का  तुझे  भी  शिकवा  है  
गम -ए -फ़िराक  के  किस्से  निशात -ए -वस्ल  का  ज़िक्र  
रवायातन  ही  सही  कोई  बात  तो  करते  

3)
पूरा  दुःख  और  आधा  चाँद  
हिज्र  की  शब्  और  ऐसा  चाँद  

 इतने  घने  बादल  के  पीछे  
कितना  तनहा  होगा  चाँद  

मेरी  करवट  पर  जाग  उठे  
नींद  का  कितना  कच्चा  चाँद  

सेहरा  सेहरा  भटक  रहा  है  
अपने  इश्क  में . सच्चा  चाँद  

रात  के  शायद  एक  बजे  है . 
सोता  होगा  मेरा  चाँद  


4)

सब्ज़  मद्धम  रोशनी  में  सुर्ख  आँचल  की  धनक  
सर्द  कमरे  में  मचलती  गर्म  साँसों  की  महक  

बाजूओं  के  सख्त  हल्के  में . कोई  नाज़ुक  बदन  
सिलवटें  मलबूस  पर  आँचल  भी  कुछ  ढलका  हुआ  

गरमी -ए -रुखसार  से  दहकी  हुई  थांडी  हवा 
नर्म  जुल्फों  से  मुलायम  उँगलियों  की  छेड़  छाड़ 

सुर्ख  होंठो  पर  शरारत  के  किसी  लम्हे  का  अक्स  
रेशमी  बाहों  में  चूड़ी  की  कभी  मद्धम  धनक  

शर्मगी . लहजो .में . धीरे  से  कभी  चाहत  की  बात  
दो  दिलो  की  धडकनों  में  गूँजती  थी  एक  सदा  

कांपते  होंठो पे  थी  अल्लाह  से  सिर्फ  एक   दुआ  
काश  ये  लम्हे  ठहर  जाए . ठहर  जाए  ज़रा  

 5)
गुमान 

मै  कच्ची नींद  में  हूँ  
और  अपने  नीम _ख्वाबीदा  तनफ्फुस   में . उतरती  
चाँदनी  की  चाप    सुनती हूँ  
गुमान  है  
आज  भी  शायद  
मेरे  माथे  पे  तेरे  लब  
सितारे  सबात  करते  है .


6)एक उलझन-

रात अभी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूँ
इनको थामूँ
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहखानों में उतरूँ
या अपने कमरों में ठहरूँ
चाँद मिरी खिड़की पे दस्तक देता है

7)जान-पहचान-
शोर मचाती मौज-ए-आब
साहिल से टकरा के जब वापस लौटी तो
पाँव के नीचे जमी हुई चमकीली सुनहरी रेत
अचानक सरक गई
कुछ-कुछ गहरे पानी में
खड़ी हुई लड़की ने सोचा
ये लम्हा कितना जाना-पहचाना लगता है

8)इस्म-

बहुत प्यार से
बाद मुद्दत के
जब से किसी शख़्स ने चाँद कहकर बुलाया है
तब से
अंधेरों की खूगर निगाहों को
हर रोशनी अच्छी लगने लगी है
9)एक मुश्किल-
टाट के परदों के पीछे से
एक तरह बारह-तेरह साला चेहरा झाँका
वो चेहरा
बहार के फूल की तरह शफ़्फ़ाफ़
लेकिन उसके हाथ में
तरकारी काटते रहने की लकीरें थीं
और उन लकीरों में
बर्तन मांझने वाली राख जमी थी
उसके हाथ
उसके चेहरे से बीस साल बड़े थे

इससे आगे
इन रचनाओं के यहाँ होने का मतलब
अँतर्जाल एवं मुद्रण से समकालीन साहित्य के
चुने हुये अँशों का अव्यवसायिक सँकलन

(संकलक एवं योगदानकर्ता के निताँत व्यक्तिगत रूचि पर निर्भर सँग्रह !
आवश्यक नहीं, कि पाठक इसकी गुणवत्ता से सहमत ही हों )

उत्तम रचनायें सुझायें, या भेजे !

उद्घृत रचनाओं का सम्पूर्ण स्वत्वाधिकार सँबन्धित लेखको एवँ प्रकाशकों के आधीन
Creative Commons License
ThisBlog by amar4hindi is licensed under a
Creative Commons Attribution-Non-Commercial-Share Alike 2.5 India License.
Based on a works at Hindi Blogs,Writings,Publications,Translations
Permissions beyond the scope of this license may be available at http://www.amar4hindi.com

लेबल.चिप्पियाँ
>

डा. अनुराग आर्य

अभिषेक ओझा

  • सरल करें! - बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था – “अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।” यादों का ऐसा है कि क...
    2 years ago
  • तुम्हारा दिसंबर खुदा ! - मुझे तुम्हारी सोहबत पसंद थी ,तुम्हारी आँखे ,तुम्हारा काजल तुम्हारे माथे पर बिंदी,और तुम्हारी उजली हंसी। हम अक्सर वक़्त साथ गुजारते ,अक्सर इसलिए के, हम दोनो...
    4 years ago
  • मछली का नाम मार्गरेटा..!! - मछली का नाम मार्गरेटा.. यूँ तो मछली का नाम गुडिया पिंकी विमली शब्बो कुछ भी हो सकता था लेकिन मालकिन को मार्गरेटा नाम बहुत पसंद था.. मालकिन मुझे अलबत्ता झल...
    9 years ago

भाई कूश