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छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

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23 September 2009

कवि हृदय वैज्ञानिक का चकित आध्यात्म्य

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समँदर की लहरें,
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री
रामेश्वरम द्वीप कि वह छोटी-पूरी दुनिया
सबमें तू निहित
सबमें तू समाहित
अधिकाँश पाठक इस वैज्ञानिक के परिचय  को  लेकर  उत्सुक  हो  उठे  होंगे । 
शायद  इनकी  इस कविता  के  इतने  अँश से ही आप इनका अँदाज़ा भी लगा चुके हों ।

मेरा इन दिनों डाक्टर अवुल पाकिर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम की विंग्स आफ़ फ़ायर का पुनर्वलोकन चल रहा है । पर इस बार पढ़ने में मैं मैं कई कई जगह ठहरने को बाध्य हुआ । यदि  अपनी  बात  कहूँ  तो, एक  डाक्टर  के नाते जीवन के तत्व को लेकर मेरे विचार उन अपार विद्युत-चुम्बकीय ऊर्ज़ाओं तक जाकर ठहर जाती है, जो  कि  इस  शरीर  के  हर  क्रियाकलाप, यहाँ तक कि सभी जैविक भावनाओं तक को सँचालित करती है और इ्सी बिन्दु पर आकर मेरी विज्ञान का विद्यार्थी होने की विशिष्टता लड़खड़ा जाती है । यह सच ही है, अब  तक  हम  इस  अथाह  समुद्र  के  तट  तक  ही पहुँच पाये हैं, जिसको  विज्ञान  कहा  जाता  है । पर, वस्तुनिष्ठता  की  आड़  में  इसकी  तलहटी  तक  का  भेद  जान  लेने  के मिथ्याभिमान से व्यामोहित हैं । आज डाक्टर कलाम की इस आत्मकथात्मक प्रस्तुति को दुबारा पढ़ते समय मैं कई कई जगह ठहर गया, भला ऎसा क्यों ? यह तो आप स्वयँ ही पढ़ कर देखिये.. ..


जब मैं सेंट ज़ोसेफ़ कालेज के अँतिम वर्ष में था तभी मुझे अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ने का चस्का लग गया । मैंने टाल्स्टॉय, स्काट और हार्डी को पढ़ना शुरु किया । उसके बाद दर्शन की ओर झुकाव हुआ तथा उस पर काम भी किया । यह वह समय था जब मेरी भौतिकी में गहरी रुचि हो गयी थी ।
सेंट ज़ोसेफ़ के मेरे भौतिकी के शिक्षकों प्रो. चिन्ना  दुरै  और  प्रो. कृष्णमूर्ति  ने  मुझे परमाणवीय भौतिकी के अध्यायों में मुझे पदार्थों के अर्धजीवनकाल की अवधारणा और उनके रेडियो-एक्टिव क्षय के बारे में ज्ञान कराया । रामेश्वरम में मेरे विज्ञान के शिक्षक  शिवसुब्रह्मण्यम अय्यर ने मुझे कभी यह नहीं बताया था कि परमाणू अस्थिर होते हैं और एक निश्चित समय के बाद दूसरे परमाणू में परिवर्तित हो जाते हैं । यह सब मैं पहली बार ही जान रहा था ।
                                            लेकिन जब उन्होंने मुझे हर पल कड़ा परिश्रम करने की बात कही,  क्योंकि   यौगिक  पदार्थों   का  क्षय  अपरिहार्य  है, तो  मुझे  लगा  कि  क्या  वे  एक  ही तथ्य के बारे में बात नहीं कर रहे थे । मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ लोग विज्ञान को इस तरह से क्यों देखते हैं, जो व्यक्ति को ईश्वर से दूर ले जाये । जैसा कि मैंनें इसमें देखा कि केवल हृदय के माध्यम से ही हमेशा विज्ञान तक पहुँचा जा सकता है । मेरे लिये विज्ञान हमेशा आध्यात्मिक रूप से समृद्ध होने और आत्मज्ञान का रास्ता रहा ।

मैं ब्रह्मांड के बारे में खूब उत्सुकता से किताबें पढ़ा करता हूँ तथा खगोलीय पिंडो के बारे में अधिक-से-अधिक जानने में मुझे बहुत आनन्द आता है । कई मित्र मुझसे अँतरिक्ष उड़ानों से सँबन्धित बातें पूछ  लेते हैं और कई बार चर्चा ज्योतिष में चली जाती है । ईमानदारी से मैं वाकई अभी तक इस बात का कारण नहीं समझ पाया हूँ कि क्यों लोग ऎसा मानते हैं कि हमारे सौर परिवार के दूरस्थ ग्रहों का जीवन के रोजमर्रा की घटनाओं पर प्रभाव पड़ता है ।
एक कला के रूप में मैं ज्योतिष के ख़िलाफ़ नहीं हूँ । लेकिन अगर विज्ञान की आड़ में इसे गलत तरीके स्वीकार किया जाता है तो मैं इसे नहीं मानता । मूझे नहीं पता कि ग्रहों, नक्षत्रों, तारामँडलों और यहाँ तक कि उपग्रहों के बारे में इन मिथकों ने जन्म कैसे लिया । ब्रह्माँडीय पिंडों की अत्यधिक क्षुद्र गति की जटिल गणनाओं में हेरफेर करके यदि व्यक्तिपरक नतीज़े निकाले जायें तो वे मुझे अतार्किक लगते हैं ।
जैसा मैं देखता हूँ कि पृथ्वी ही सबसे अधिक सक्रिय, शक्तिशाली  और  ऊर्ज़ावान  ग्रह है । जान मिल्टन ने इसे ’ पैराडाइज़ लॉस्ट’ पुस्तक VIII ’ में बड़ी ही खूबसूरती से व्यक्त किया है -
’ होने दो सूर्य को
दुनिया का केन्द्र
और सितारों की धुरी ।
मेरी यह धरती
कितनी गरिमामय
घूमें धीमे-धीमे
तीन अलग धुरियों पर ।’

इस ग्रह पर आप जहाँ भी जाते हैं वहाँ गति और जीवन है, वैसे ही निर्जीव वस्तुओं जैसे चट्टानों, धातुओं, लकड़ी, चिकनी मिट्टी में भी आँतरिक गतिशीलता विद्यमान है । हर नाभिक के चारों ओर इलेक्ट्रान चक्कर काट रहे हैं । नाभिक इन इलेक्ट्रान को अपने चारों ओर बाँधे रखता ह ।  इसी की प्रतिक्रिया में इलेक्ट्रान उसके चारों ओर घूमते रहते हैं और यही इनकी गति का स्रोत है । इलेक्ट्रान को बाँधे रखने वाले इसी यही विद्युत-बल इन्हें ज्यादा से ज्यादा करीब लाने भी कोशिश करते हैं । इलेक्ट्रान एक निश्चित ऊर्ज़ा वाले उस पृथक कण के रूप में है जो नाभिक से बँधा हुआ है । इलेक्ट्रानों पर नाभिक की पकड़ जितनी मज़बूत होगी, अपनी कक्षा में इलेक्ट्रानों की गति ही उतनी तीव्र होगी । वास्तव में यह गति एक हज़ार किलोमीटर प्रति सेकेन्ड तक की होती है । उस अत्यधिक वेग के कारण परमाणु एक ठोस गोले की भाँति नज़र आता है; जैसे  तेज  गति  से  घूमने  वाला  पँखा एक थाल की तरह दिखता है । परमाणुं को सँपीडित करना या कहें तो एक दूसरे के और करीब लाना बहुत ही मुश्किल  है  और  यही  किसी  पदार्थ  का  दिखने वाला भौतिक स्वरूप होता है । इस प्रकार हर ठोस वस्तु के भीतर काफ़ी खाली स्थान होता है और हर स्थिर वस्तु के भीतर काफ़ी हलचल होती रहती है । यह ठीक उसी तरह है जैसे हमारे जीवन के हर क्षण में भगवान शिव का शाश्वत नृत्य हो रहा होता है ।
प्रो. ए. पी. जे. कलाम के आत्मकथ्य ’ विंग्स आफ़ फ़ायर ’ से
अँग्रेज़ी से अनूदित पृष्ठ सँ. 35-36 का अँश

इससे आगे
इन रचनाओं के यहाँ होने का मतलब
अँतर्जाल एवं मुद्रण से समकालीन साहित्य के
चुने हुये अँशों का अव्यवसायिक सँकलन

(संकलक एवं योगदानकर्ता के निताँत व्यक्तिगत रूचि पर निर्भर सँग्रह !
आवश्यक नहीं, कि पाठक इसकी गुणवत्ता से सहमत ही हों )

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