जबसे इस ब्लाग की परिकल्पना बनी, तभी से एक पोस्ट मन में बार बार घुमड़ रहा था । शायद अक्टूबर 2007 के आस पास पढ़े गये इस पोस्ट का कन्टेन्ट तो मोटा मोटी याद था, शीर्षक याद आये तो लिंक टटोलूँ ! मेरे कम्प्यूटरों में कितने हार्ड डिस्क आये और चले भी गये । लिंक क्या रक्खा रहता ? उसका न मिलना जैसे एक अपरिहार्य आवश्यकता बन गया । सहसा याद आया, कि उन दिनों ही नया नया राइटर लिया था..तो कच्चा पक्का जो भी मिलता, उनको तुरत-फुरत जला कर अपने सीडी सँग्रह का भरण पोषण किया करता । अब एक नई मुसीबत.. कि सीडी कहाँ ज़मींदोज़ है, इसकि ढ़ूढ़ में रोज पँडिताइन से एक चोट बकचुप होती रही ( वह यदि बकती हैं, मैं बरबस चुप ही रहता हूँ.. हो गया न एक बकचुप का अविष्कार ! ) मेरे सिड़ी विभूषित होते ही सीडी जी भी प्रकटे । लिंक मिला, पोस्ट है
भारतीय संस्कृति क्या है … लिंक इसी ब्लागपृष्ठ पर कहीं टहल रहा है, वह आप तलाशियेगा । अभी तो आप यह पोस्ट पढ़िये :
जबसे पंकज ने पूंछा-भारतीय संस्कृति क्या है तबसे हम जुट गये पढने में.सभ्यता,संस्कृति क्या है .भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में जितना इन दो दिनों में हम पढ गये उतना अगर हम समय पर पढ लिये होते तो शायद आज किसी वातानुकूलित मठ में बैठे अपना लोक और भक्तों का परलोक सुधार रहे होते.पर क्या करें जब भक्तों का परलोक सुधरना नहीं बदा है उनके भाग्य में तो हम क्या कर सकते हैं?
संस्कृति की बात करें तो सभ्यता का भी जिक्र आ ही जाता है.सभ्यता और संस्कृति की परस्पर क्रिया -प्रतिक्रिया होती है और दोनो एक-दूसरे को प्रभावित भी करती हैं. यह माना जाता है कि सभ्यता बाहरी उपलब्धि है और संस्कृति आन्तरिक.मनुष्य ने अपने सुख-साधन के लिये जो निर्मित किया वह सभ्यता है.इसमें मकान से लेकर महल और बैलगाङी से लेकर हवाईजहाज हैं.सुख की सामग्री है.
परंतु मनुष्य केवल बाहरी सुख-साधनों से संतुष्ट नहीं होता.वह मंगलमय जीवन मूल्यों को ग्रहण करना चाहता है.दया,प्रेम,सहानुभूति तथा दूसरे की मंगलकामना है.यह उदात्त है .इसमें सौन्दर्य की चाह है.यह संस्कृति है. नेहरूजी ने लिखा है - संस्कृति की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती. संस्कृति के लक्षण देखे जा सकते हैं.हर जाति अपनी संस्कृति को विशिष्ट मानती है.संस्कृति एक अनवरत मूल्यधारा है.यह जातियों के आत्मबोध से शुरु होती है और इस मुख्यधारा में संस्कृति की दूसरी धारायें मिलती जाती हैं.उनका समन्वय होता जाता है.इसलिये किसी जाति या देश की संस्कृति उसी मूल रूप में नहीं रहती बल्कि समन्वय से वह और अधिक संपन्न और व्यापक हो जाती है. भारतीय संस्कृति के बारे में जब बात होती है तो उसकी प्रस्तावना काफी कुछ इस श्लोक में मिलती है:-
सर्वे भवन्ति सुखिन:,सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चिद् दुखभाग् भवेत्.सब सुखी हों,सभी निरोग हों,किसी को कोई कष्ट न हो.यह लोककल्याण की भावना भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व है.पर देखा जाये तो सभी संस्कृतियां किसी न किसी रूप में लोककल्याण की बात करती हैं.फिर ऐसी क्या विशेष बात है भारतीय संस्कृति में?नेहरूजी अनुसार -समन्वय की भीतरी उत्सुकता भारतीय संस्कृति की खास विशेषता रही है.
आर्य जब भारत आये तो वे विजेता थे.तब यहां द्रविङ ( उन्नत सभ्यता ) और आदिवासी ( आदिम अवस्था ) थे . समय लगा पर आर्यों-द्रविङों में समन्वय हुआ .दोनों ने एक दूसरे के देवताओं और अनेक दूसरे तत्वों को अपना लिया.समन्वय की यह परंपरा तब से लगातार कायम है.तब से अनेक जातियां भारत आईं.कुछ हमला करने और लूटने और कुछ यहीं बस जाने.कुछ व्यापार के बहाने आये तो कुछ ज्ञान की खोज में. ग्रीक, शक, हूण, तुर्क, मुसलमान,अंग्रेज आदि -इत्यादि आये.रहे.कुछ लिया,कुछ दिया.कुछ सीखा कुछ सिखाया.जो आये वे यहीं रह गये.किसी जाति में समा गये.
जिस समय मारकाट चरम पर था उसी समय सूफी-संत प्रेम की अलख जगा रहे थे.धार्मिक कट्टरता को मेलजोल, भाईचारे,मानवतावाद , सदाचरण में बदलने की कोशिश की.अमीर खुसरो ने फारसी के साथ भारतीय लोक भाषा में लिखा:-
खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग,
तन मेरो मन पीउ को दोऊ भये एक रंग.यह समन्वय की प्रवत्ति ही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.यह वास्तव में लोक संस्कृति है.वह लोक में पैदा होती है और लोक में व्याप्त होती है.यह सामान्य जन की संस्कृति होती है-मुट्ठी भर अभिजात वर्ग की दिखावट नहीं.
जब संस्कृतियों की बात चलती है तो उनके लक्षणों की तुलना होती है.कहते हैं भारतीय संस्कृति त्याग की संस्कृति है जबकि पश्चिमी संस्कृति भोग की संस्कृति है.लोककल्याण की भावना हमारी विशेषता है, आत्मकल्याण की भावना उनकी आदत.यह सरलीकरण करके हम अपनी संस्कृति के और अपने को महान साबित कर लेते हैं. स्वतंत्रता,समानता और खुलापन पश्चिमी संस्कृति के मूल तत्व है.हमारे लिये ये तत्व भले नये न हों पर जिस मात्रा में वहां खुलापन है वह हमें चकाचौंध और नये लोगों को शर्मिन्दगी का अहसास कराता है-क्या घटिया हरकतें करते हैं ये ससुरे.फिर कालान्तर में वही घटिया हरकतें पता नही कैसे हमारी जीवन पद्धति बन जाती है ,पता नहीं चलता.इस आत्मसात होने में कुछ तत्वों का रूप परिवर्तन होता है.यही समन्वय है
तो देखा जाये तो हर संस्कृति में समन्वय की भावना रहती है. अमेरिका की तो सारी संस्कृति समन्वय की है.पर मूल तत्व की बात करें तो यह दूसरों के प्रति असहिष्णुता की संस्कृति है.अमेरिका में जब अंग्रेज आये तो यहां के मूल निवासियों ( रेड इंडियन ) को मारा, बरबाद कर दिया. रेड इंडियन उतने सक्षम ,उन्नत नहीं थे कि मुकाबला कर पाते ( जैसा भारत में द्रविङों ने आर्यों का किया होगा ). मिट गये.यह दूसरों के प्रति सहिष्णुता का भाव अमेरिकी संस्कृति का मूल भाव हो गया. जो हमारे साथ नहीं है वह दुश्मनों के साथ है यह अपने विरोध सहन न कर पाने की कमजोरी है .यह डरे की संस्कृति है .जो डरता है वही डराता है.
यह छुई-मुई संस्कृति है.हजारों परमाणु बम रखे होने बाद भी जो देश किसी दूसरे के यहां रखे बारूद से होने के डर से हमला करके उसे बरबाद कर दे.उससे अधिक छुई-मुई संस्कृति और क्या हो सकती है?
भोग की प्रवत्ति के बारे में तो लोग कहते हैं भोग की बातें वही करेंगे जिनका पेट भरा हो.जो सभ्यतायें उन्नत हैं .रोटी-पानी की चिन्ता से मुक्त है जो समाज वो भोग की तरफ रुख करेगा.रोमन सभ्यता जब चरम पर थी तो वहां लोग गुलामों ( ग्लेडियेटर्स ) को तब तक लङाते थे जब तक दो गुलामों में से एक की मौत नहीं हो जाती थी. रोमन महिलायें नंगे गुलामों को लङते मरते देखती थीं. इससे यौन तुष्टि ,आनन्द प्राप्त करती थीं.सभ्यता के चरम पर यह रोम की संस्कृति के पतनशील तत्व थे.बाद में उन्हीं गुलामों ने रोम साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया.
खुलेपन के नाम पर नंगापन बढने की प्रवत्ति के बारे में रसेल महोदय ने कहा है:-जब कोई देश सभ्यता के शिखर पर पहुंच जाता है तब उस देश की स्त्रियों की काम- लिप्सा में वृद्धि होती है और इसके साथ ही राष्ट्र का अध:पतन प्रारम्भ हो जाता है .इस समय अमेरिकन स्त्रियों में यह काम-लोलुपता अधिक दृष्टिगोचर होती है और 35 से 40 वर्ष की अवस्था की अमेरिकन स्त्री वेश्या का जीवन ग्रहण करना चाहती है ,जिससे उसकी कामपिपासा शान्त हो सके.
हम खुश हो के सारे विकसित देशों के लिये कह सकते हैं- इसकी तो गई.पर हम अपने यहां देखें क्या हो रहा है.हम पुराने आदर्शों को नये चश्में से देख रहे है.तुलसीदास ने उत्तम नारी के गुण बताये हैं:-
उत्तम कर अस बस मन माहीं,
सपनेंहु आन पुरुष जग नाहीं .
उत्तम नारी सपने में भी पराये पुरुष के बारे में नहीं सोचती. आज की जरूरतें बदली हैं.लिहाजा हमने इस चौपाई का नया अर्थ ले लिया ( उत्तम नारी के लिये सपने में भी कोई पुरुष पराया नहीं होता ) .पंजाब में लोगों ने इस समस्या का और बेहतर उपाय खोजा.महिलाओं की संख्या ही कम कर दी.न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. महिलायें रहेंगी ही नहीं तो व्यभिचार कहां से होगा. प्रिवेन्शन इज बेटर दैन क्योर.रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी कविता भरत तीर्थ में कहा है-भारत देश महामानवता का पारावार है.यहां आर्य हैं,अनार्य हैं,द्रविङ हैं और चीनी वंश के लोग भी हैं.शक,हूण,पठान और मुगल न जाने कितनी जातियों के लोग इस देश में आये और सब के सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गये.
यह समन्वय की प्रवत्ति ही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.भारतीय सँस्कृति की यह समन्वयवादी विवेचना बहुत ही स्पष्ट है । इसमें पँडित नेहरू की एक पँक्ति और जोड़ दी जाय, " यह सत्य की अनवरत खोज है ! " हालाँकि यह उन्होंनें हिन्दुत्व के लिये कहा था , और हमारे साथी हिमाँशु की मनपसन्द लाइनें हैं , मैं अपनी ओर से थोड़ा और जोड़ दूँ कि यह खोज मानवीय सत्यों की अनवरत खोज में निहित है और आधुनिक विज्ञान द्वारा ईंट रोड़ा जोड़ कर खोजे जाने वाले भौतिक सत्यों से निताँत परे है ! तो चलें.. अगले सप्ताह फिर मिलेंगे, एक और बिसरे - बिछड़े आलेख के साथ ! अरे, पहेली तो रह ही गयी ।
सुना कि शनीचरी पहेली हिट होतीं हैं, सो यह बड़ा आसान पड़ेगा आपको ! आपको केवल यह तलाशना है, या बताना है कि यह पोस्ट किसने और कब, क्यूँ लिखी थी ? एक हिन्ट भी दिये दे रहा हूँ, यह सन 2004 के दरमियान की है । और.. आज के एक हिट ब्लागर की नॉट-सो हिट पोस्ट की कतार में शुमार की जा सकती है । अब तो खुश ?
6 सुधीजन टिपियाइन हैं:
पोस्ट बहुत महत्वपूर्ण है। वैसे भी अपने विचारों से मेल खाती पोस्ट पसंद ही आएगी। इस लिए बहुत पसंद भी आई। पर पहेली नहीं बूझ पाए।
यह पोस्ट फायरफोक्स पर साइड बार के नीचे दिखाई दे रही है।
अलग-अलग ब्राऊज़र पर सबकुछ गड्मगड हो रहा
ध्यान दीजिए सर, पढ़ने में रूचि नहीं टिक रही :-(
जय हो! कहां कहां से बीन बटोर के लाते हैं चीजें आप भी। मैं मानता हूं कि हिन्दी ब्लाग जगत में कुछ जो बेहतरीन लेख लिखे गये हैं वे अनुगूंज में संकलित हैं! शानदार आयोजन होता था।
उत्कृष्ट लेख -आनंद आ गया !
और यह पढ़कर तो और भी -
खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग,
तन मेरो मन पीउ को दोऊ भये एक रंग.
दुबारा आया हूँ। अब ब्लाग सही सटीक दिखाई दे रहा है।
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !