सदाबहार ग़ुलज़ार का 75 वाँ जन्मदिन 18 अगस्त को चुपचाप आकर निकल भी गया । कोई शोर नहीं, कोई हलचल नहीं ! मैं उनके लिये कुछ लिखना चाहता था, लेकिन हज़ार चेहरों वाले ग़ुलज़ार के लिये लिखने का मेरा क़द नहीं, बल्कि ईमानदारी से कहूँ कि ड्राफ़्ट को लगभग पाँच दफ़े सुधारने के बाद भी लगता रहा कि “ समपूरन सिंह ग़ुलज़ार “ के लिये मेरी शब्दानुभूति बहुत बौनी है । वह तो विशाल हैं
समय के साथ ढलते हुये “ मोरा गोरा रँग लईले “ से लेकर आज की “ जय हो “ की गूँज यूँ ही नहीं है !
ब्लागर पर अनुराग वत्स के लिये श्री रवीन्द्र व्यास ने सबद पर ग़ुलज़ार की बड़ी समयानुकूल रचना दी है । सहेज रखने का मोह न त्याग सका, आप सबसे साझी है । – अमर
एक और रात
चुपचाप दबे पांव चली जाती है
रात खामोश है, रोती नहीं, हंसती भी नहीं
कांच का नीला-सा गुंबद है, उड़ा जाता है
खाली खाली कोई बजरा-सा बहा जाता है
चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन भी नहीं
चांद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की इक धूल उड़ी जाती है
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता
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ये देखो तो क्या होता है
गुलजार की जमीन और आसमान सरगोशियों से मिलकर बने हैं । ये सरगोशियां खामोशियों की रातें बुनती हैं । इन रातों में कई चांद डूबते-उतरते रहते हैं । कई टंगे रहते हैं, अपने अकेलेपन में जिनकी पेशानी पर कभी-कभी धुआं उठता रहता है । दूज का चांद, चौदहवीं का चांद और कभी एक सौ सोला रातों का चांद। कभी ये चांद किसी चिकनी डली की तरह घुलता रहता है । ये चांद ख्वाब बुनते रहते हैं । ख्वाबों में रिश्ते फूलों की तरह खिलते रहते हैं और उसकी खुशबू पलकों के नीचे महकती रहती है । ये रिश्ते कभी मुरझा कर ओस की बूंदों की तरह खामोश रातों में झरते रहते हैं ।
वे किसी गर्भवती स्त्री की तरह गुनगुनी धूप में यादों को गुनगुनाते महीन शब्दों से मन का स्वेटर बुनते हैं। इसमें उनकी खास रंगतें कभी उजली धूप की तरह चमकती रहती है। कभी इसमें सन्नाटों की धूल उड़ती रहती है। इसकी बनावट और बुनावट की धीमी आंच में रिश्तों के रेशे अपने दिलकश अंदाज में आपके मन को आपकी देह को रूहानी अहसास कराते हैं।
कहते हैं किसी की आत्मा पेड़ों में बसती है। किसी आत्मा एक फूल में बसती है। कहते यह भी हैं कि आत्मा एक पिंड में बसती है। और यह भी कि आत्मा एक स्वर्ग में बसती है, एक मुहूर्त में बसती है। क्या कहा जा सकता है कि गुलजार की गीतात्मा चांद में बसती है। और चांद यानी रात भी। और रात यानी तारे भी। और तारे यानी समूची कायनात। और इसके बीच वह भी जिससे हिज्र की रात में कहा जा रहा है कि काश इक बार कभी नींद में उठकर तुम भी ये देखो तो क्या होता है...
यह एक और रात है...
इस नज्म की पहली लाइन में रात के बहाने अपनी स्थिति बताने का एकदम सादगीभरा जलवा है । कोई बनाव नहीं । कोई श्रृगांर नहीं । लुभाने-रिझाने का कोई अंदाज नहीं । अकेलेपन में रात का चुपचाप, एकदम खामोश गुजरनाभर है । यह एक इमेज है । कहने दीजिए गुलजार इमेजेस के ही कवि हैं । दूसरी लाइन में कोई आहट नहीं, कोई गूंज नहीं । न रोना, न हंसना । एक अनकहे को पकड़ने की कोशिश । एक जरूरी दूरी पर खड़े होकर । न डूबकर, न उतरकर । अपने को भरसक थिर रखते हुए । तीसरी लाइन में रात के जादू को आकार में पकड़ने का वही दिलकश अंदाज है । इसमें चार चीजें हैं-कांच है, नीला है, गुंबद है और वह उड़ा जाता है । कांच, जाहिर है यह रात को उसकी नाजुकता में देखने की निगाह है । रात नीला गुंबद है । अहा। क्या बात है । इसमें एक कोई देखी मुगलकालीन भव्य इमारत की झीनी सी याद है ।
यह रात को कल्पना से तराशने का सधा काम है । रात को एक आकार देना । उसे देहधारी बनाना । और यह गुंबद है, जो उड़ा जाता है । यानी एक एक मोहक और मारक गति है । एक उड़ती हुई गति । जाहिर है इस गति में रात की लय शामिल है । बीतती लयात्मक रात । यह मोहब्बत का स्पर्श है जो गुंबद के भारीपन को किसी चिड़िया की मानिंद एक उड़ान देता है । विश्व विख्यात मूर्तिकार हेनरी मूर को याद करिए। वे पत्थर में चिड़िया को ऐसे ढालते हैं कि पत्थर अपने भारीपन से मुक्त होकर चिड़िया के रूप में उड़ने-उड़ने को होता है । यह फनकार की ताकत है, अपने मीडियम से मोहब्बत है ।
पांचवी लाइन बताती है कि यह शायर रातों की जागता है और रोज ही रातों को निहारता है । इसी जागने से यह एक और रात बनी है जिसमें कहा जा रहा है कि चांद की किरनों में वो रोज-सा रेशन नहीं । यह आपकी इंद्रियों का जागना भी है । कलाकार यही करता है । वह सभी इंद्रियों के प्रति आपको सचेत करता है । यह देखना-दिखाना भर नहीं है । छठी पंक्ति में चिकनी डली है । स्पर्श का अहसास है । फिर घुलना है। यह एक और रात कि घुली जा रही है। कि पर गौर फरमाएं। है न कुछ बात । और सातवीं लाइन में इन सबसे घुल-मिल कर एक सन्नाटा रात की तरह ही फैलता जा रहा है । वे इसे उड़ती धूल में पकड़ते हैं। महीन धूल। आठवीं और नौवीं लाइन मारू है। यह रात का जो जादू है, उसकी सुंदरता का जो भव्य स्थापत्य है, अकेलापन है, सन्नाटा है और खामोश गुजरना भर है, इसमें एक ख्वाहिश भी है कि कोई हिज्र की रातों में नींद से उठकर इसे देखे । यह भी कि- ये देखो तो क्या होता है । सबद से : प्रकाशित 10 सितम्बर 2008 ( सखा पाठ २ : गुलजार बजरिए रवींद्र व्यास Posted by anurag vats )
4 सुधीजन टिपियाइन हैं:
गुलजार साहब शतायु हों. आपका बहुत आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए.
गुलज़ार साहब के बारे में इतना सब लिखने के लिए आभार...वो यूँ ही अपने जन्म दिवस मनाते रहे और उनका कद यूँ ही ऊंचा होता रहे
Gulzar da jawaab naheen.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
गुलजार और निर्मल वर्मा अपने शब्दों से ऐसा रूमानी माहौल /महल बनाते हैं की बस कुछ न पूछिए -दिल कैद होकर रह जाता है ! बहुत आभार !
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !