किन्तु यह सुविधाजनक कूटनीति है, यह लिप्सा की राजनीति है ।
क्या कभी किसी ने यह सवाल उठाया है कि, बिना किसी लालच के " सारे ज़हाँ से अच्छा यह हिन्दुस्ताँ हमारा .." लिखने वाले शायर अल्लामा इक़बाल ग़ैर हिन्दुस्तानी सरहदों की ज़ानिब क्यों कूच कर गये ? यह ख़ामोशी भी तो एक सुविधाजनक कूटनीति है, नहीं ?
बावज़ूद इन हादसों के, मौज़ूदा दौर का यह हिन्दुस्तानी शायर तमाम तरह की ज़्यादतियों की वज़ह से आज़िज़ आकर अपनी ही कौम से नाराज़ रहा करता है । आख़िर मीडिया का माइक इसकी तरफ़ रुख़ करने से क्यों कतराता रहा है ? डर है कि, सरकारी ख़ज़ाने से इश्तिहारों के लिये निकलने वाला पैसा, शायद उससे मुँह न मोड़ ले ? यह भी लिप्सा की एक नीति ही तो है, नहीं ?
इन सबको नकारता हुआ, यह शायर ग़ुमनाम सा क्यों ? पिछले अक्टूबर और नवम्बर के धमाकों के बाद इसके नज़्मों को नवभारत टाइम्स ने पेश किया, और फिर एक ख़ामोशी छा गयी । ब्लागर पर सरपँच जी इसको सामने लाये । उस दौर में पूरे मुल्क में जैसे एक सैलाब आया था, उसके ज़्वार में यह तिनका फिर किनारों पर फेंक दिया गया । मैं तवारीख़ की नज़ीरें पेश करना नहीं चाहता, यह पन्ना उसके लिये नहीं है । और मैं किसी की सरपरस्ती भी नहीं कर रहा, पर क्या हमें अपनी सोच की पोस्टमार्टम करने की ज़रूरत तो नहीं है ? वरना लोग हमसे यूँ ही छिटकते जायेंगे !
ताकि सनद रहे - डा. अमर कुमार
पाकिस्तान के लोगों में पाकिस्तान की हकूमत और पाकिस्तानी मीडिया के ज़रिए ये बात फैलाई जाती है कि हिन्दुस्तान में जो मुसलमान हैं उन्हें बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...उनपर ग़मों के पहाड़ ढाए जाते हैं...इस बात को मद्देनज़र रखते हुए एक हिन्दुस्तानी शायर ने पाकिस्तान की मीडिया, पाकिस्तान की हुकूमत और पाकिस्तान की आवाम को मुखातिब करते हुए ये नज़्म कही... जो आपकी पेश-ए-खिदमत है ! ताकि सनद रहे - डा. अमर कुमार
तुमने कश्मीर के जलते हुए घर देखे हैं
नैज़ा-ए-हिंद पे लटके हुए सर देखे हैं
अपने घर का तु्म्हें माहौल दिखाई न दिया
अपने कूचों का तुम्हें शोर सुनाई न दिया
अपनी बस्ती की तबाही नहीं देखी तुमने
उन फिज़ाओं की सियाही नहीं देखी तुमने
मस्जिदों में भी जहां क़त्ल किए जाते हैं
भाइयों के भी जहां खून पिए जाते हैं
लूट लेता है जहां भाई बहन की इस्मत
और पामाल जहां होती है मां की अज़मत
एक मुद्दत से मुहाजिर का लहू बहता है
अब भी सड़कों पे मुसाफिर का लहू बहता है
कौन कहता है मुसलमानों के ग़मख़्वार हो तुम
दुश्मन-ए-अम्न हो इस्लाम के ग़द्दार दो तुम
तुमको कश्मीर के मज़लूमों से हमदर्दी नहीं
किसी बेवा किसी मासूम से हमदर्दी नहीं
तुममें हमदर्दी का जज़्बा जो ज़रा भी होता
तो करांची में कोई जिस्म न ज़ख्मी होता
लाश के ढ़ेर पे बुनियाद-ए-हुकूमत न रखो
अब भी वक्त है नापाक इरादों से बचो
मशवरा ये है के पहले वहीं इमदाद करो
और करांची के गली कूचों को आबाद करो
जब वहां प्यार के सूरज का उजाला हो जाए
और हर शख्स तुम्हें चाहने वाला हो जाए
फिर तुम्हें हक़ है किसी पर भी इनायत करना
फिर तुम्हें हक़ है किसी से भी मुहब्बत करना
अपनी धरती पे अगर ज़ुल्मों सितम कम न किया
तुमने घरती पे जो हम सबको पुरनम न किया
चैन से तुम तो कभी भी नहीं सो पाओगे
अपनी भड़काई हुई आग में जल जाओगे
वक्त एक रोज़ तुम्हारा भी सुकूं लूटेगा
सर पे तुम लोगों के भी क़हर-ए-खुदा टूटेगा..
जय हिन्द
- मसरूर अहमद
(मसरूर कलम के धनी हैं...ग़लत बात न सुनते हैं , न कहते हैं...शायद इसीलिए अल्लाताला ने उन्हें ये नेमत बख़्शी है...कहा है कि -जाओ धरती पर ...समंदर की सियाही लो...और धरती को काग़ज़ मानो--और लिखते जाओ...सो शरूआत की है उन्होंने । अल्ला उन्हें लंबी उम्र और उंगलियों में ताकत दे)
पोस्ट आभार : सरपँच, 1 दिसम्बर 2008 █ असल में ये कोना एक पंचायत है, जहां पंच हैं... लोगों की भीड़ है... और कई सवाल हैं जिनके जवाब हैं, मसले हैं जिन पर फैसलों की पूरी गुंजाइश हैं... यानी कोई खाली हाथ नहीं जाएगा... इस कोने का नाम सरपंच इसलिए है क्योंकि यहां आने वाला हर कोई कम से कम अपना सरपंच तो है ही... यानी जो बोले सो निहाल और जो खोले सो सरपंच █
3 सुधीजन टिपियाइन हैं:
खूबसूरत नज्म के साथ पोस्टमर्टम भी अच्छी लगी डा० साहब।
नज़्म बहुत खूबसूरत भी है, मौजूँ भी। उस के लिए जो कुछ तब्सरा किया गया है वह भी जरूरी है। यह पाकिस्तान और कराची के लिए है तो हिंदुस्तान और हरियाणा के लिए भी। आओ दोस्त, अपने अपने मकाँ दुरुस्त करें।
वाह साहब. क्या कहने इस पोस्ट के. और इस शायर का तो जवाब नहीं. हाँ ऐसे इंसान (शायर) का नाराज़ (गुस्सा) होना लाज़मी है. बहुत ही उम्दा नज़्म. और शुक्रिया आप का .... ये नज़्म पढ़वाने के लिए.
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !