हमारी हिंदी, जिसे हम इतना प्यार करते हैं अपंग है, वह जन्म से विकलांग नहीं थी लेकिन उसका अंग-भंग कर दिया गया. वह बहुत बड़ी सियासत का शिकार हुई, अभी वह बड़ी हो ही रही थी कि 1947 में उसके हाथ-पैर काटके उसे भीख माँगने के लिए बिठा दिया गया.
करोड़ों लोगों की भाषा क्या हो, कैसी हो, उसमें काम किस तरह किया जाए, इसका फ़ैसला रातोरात दफ़्तरों में होने लगा.राजभाषा विभाग बना और लोग उस अपंग की कमाई खाने लगे जिसका नाम हिंदी है. ऐसा दुनिया में कहीं और नहीं हुआ
ठीक ऐसा ही ताज़ा-ताज़ा पैदा हुए पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी हुआ, वे जिस्म के कुछ हिस्से काट लाए थे बाक़ी सब अरबी-फ़ारसी वाले भाइयों से माँगने थे, उन्हें किसी तरह जोड़ा जाना था. पाकिस्तान जहाँ कोई उर्दू बोलने वाला नहीं था वहाँ उर्दू राष्ट्रभाषा बनी. पंजाबी, सिंधी, बलोच, पठान सबको उर्दू सीखना पड़ा. ऊपर से तुर्रा ये कि उर्दू का देहली, लखनऊ या भोपाल से कोई ताल्लुक नहीं है, वह तो जैसे पंजाब में पैदा हुई थी.
इधर भारत में मानो 'सुजला सुफला भूमि पर किसी यवन के अपने पैर कभी रखे ही नहीं, इस पावन भूमि की भाषा तो देवभाषा संस्कृत है. यहाँ सब कुछ पवित्र-पावन-वैदिक है, विदेशी आक्रमणकारी आए थे, कुछ सौ साल बाद मुसलमान और क्रिस्तान दोनों चले गए, अपनी भाषा भी वापस ले गए, हम वहीं आ गए जहाँ इनके आक्रमण से पहले थे, इन्हें बुरा सपना समझकर भूल जाओ'...ऐसा कम-से-कम भाषा और संस्कृति में मामले में कभी नहीं हुआ. न हो सकता है.
भारत में सदियों से जो ज़बान बोली जा रही थी उसका नाम हिंदुस्तानी था, लेकिन मुसलमान चूँकि 'अपनी उर्दू' पाकिस्तान ले गए थे इसलिए ज़रूरी था कि जल्द-से-जल्द बिना उर्दू हिंदुस्तानी यानी हिंदी के लिए जयपुर फुट तैयार हो जाए और वह चल पड़े, इसके लिए सबके आसान काम था पलटकर संस्कृत की तरफ़ देखना. वही हुआ, ऐसे-ऐसे भयानक प्रयोग हुए कि बेचारी अपंग हिंदी दोफाड़ हो गई. एक हिंदी जो लोग बोलते हैं, एक हिंदी जो दफ़्तरों में शब्दकोशों से देखकर लिखी जाती है.
नेहरू की भाषा कभी सुनिए जो ख़ालिस हिंदुस्तानी थी लेकिन उन पर भी शायद अँगरेज़ी का जुनून इस क़दर सवार था कि उन्हें अपनी हिंदुस्तानी की फिक्र नहीं रही. देश का धर्म के आधार पर विभाजन होने के बाद समझदारी दिखाते हुए उसे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र घोषित किया गया, वहीं भाषा के मामले में ऐसा बचपना क्योंकर हुआ, समझ में नहीं आता.
भारत के विभाजन को साठ वर्ष पूरे होने वाले हैं. दुनिया का हर भाषाशास्त्री मानता है कि किसी भाषा को जड़ें जमाने में कई सौ वर्ष लगते हैं. ब्रज, अवधी, भोजपुरी के साथ अमीर खुसरो फ़ारसी मिला रहे थे, रसखान कृष्णभक्ति का माधुर्य घोल रहे थे, इनके बीच शेरशाह सूरी जैसे तुर्क-अफ़गान भी अपनी भाषा ले आए थे. इन सबसे मिलकर एक जादुई ज़बान बनने लगी जिसमें मीर-ग़ालिब-मोमिन-ज़ौक लिखने लगे, भारतेंदु-प्रेमचंद-रतननाथ सरसार-देवकीनंदन खत्री से लेकर मंटो, कृशनचंदर तक आए. एक सिलसिला बना था जो अचानक झटके से टूट गया.
एक ही रात में कई अपने शायर-कवि पराये हो गए, इधर भी-उधर भी. कई नए अंखुए उग आए जिन्होंने दावा किया कि वे सीधे जड़ से जुड़े हैं यानी संस्कृत या फ़ारसी से लेकिन उस भाषा का होश किसी को नहीं रहा जिसने उत्तर भारत में तीन-चार सौ साल में अपनी जगह बना ली थी और खूब परवान चढ़ रही थी. वह सबकी भाषा थी, जन-जन की भाषा थी, वह सहज पनपी थी, उसमें कोई बनावट नहीं थी, उसमें हिंदी-संस्कृत के शब्द थे, बोलियाँ-मुहावरे, ताने-मनुहार, दादरा, ठुमरी थी, अदालती ज़बान थी, जौजे-मौजे साक़िन, वल्द, रक़ीब, रक़बा था...क्या नहीं था.
एक ऐसी ज़बान जो मुग़लिया दौर में सारी ज़रूरतें पूरी कर रही थी और ठहर नहीं गई थी बल्कि आगे बढ़ रही थी, जिसने ज़रूरत भर अँगरेज़ी को भी अपनाया. उसमें अभी और बदलाव हो सकते थे, जो स्वाभाविक तरीक़े से होते जिनमें बनावट के कंकड़ न दिखते शायद. मगर दुर्भाग्य ये है कि देश के बँटने के साथ ही भाषा भी बँट गई और लोग एक नई भाषा गढ़ने में लग गए जो किसी की भाषा नहीं थी, नहीं रही है. यह एक बहुत बड़ी वजह है कि लोग हिंदी को मुश्किल मानकर त्याग देने में सुविधा महसूस करते हैं.
सच बात ये है कि अगर हिंदी को वाक़ई आम ज़बान बनाना है, सबकी बोली बनाना है तो उसे लोगों से दूर नहीं, नज़दीक ले जाना होगा. हिंदू हों या मुसलमान, जब कोई शिकायत होती है तो लोग यही कहते हैं कि हमें शिकायत है, फिर दिल्ली में बसों पर क्यों लिखा होता है कि "प्रतिवाद करने के लिए संपर्क करें"..
उर्दू और हिंदी से पहले एक भाषा है जिसने सारी ज़रूरतें पूरी कीं हिंदुस्तानी के रूप में, जो आज भी उत्तर भारत के रग-रग में बहती है. यह चिट्ठा उसी हिंदुस्तानी में लिखा गया है, उस हिंदी में नहीं जो 1947 में अपंग हुई उसके बाद दिन-ब-दिन इतनी बनावटी होती चली गई कि हिंदी बोलने वाला भी, लिखी हुई हिंदी को अपनी भाषा के तौर पर नहीं पहचानता.
जब पंद्रह अगस्त धूमधाम से मनाइएगा तो याद रखिएगा कि यह हिंदुस्तानी की साठवीं बरसी भी है. साझे की सदियों की विरासत के लिए अगर सिर झुकाने का जज़्बा दिल में आए तो ऐसी भाषा बरतिए जो हिंदुस्तान की है, हिंदुस्तानी है.
साभार : अनामदास का चिट्ठा - ब्लागपोस्ट हमारी अपनी ज़बान की साठवीं बरसी
प्रकाशित : 6 अगस्त 2007
ताज़्ज़ुब है कि, यह आलेख दो वर्ष पहले ब्लागर पर आया, पर हिन्दी की स्थिति हर जगह जस की तस है । समय से पहले ही हॄष्ठ पुष्ट करने के उत्साह में, हमने इसे और भी बीमार बना दिया है । इसे राजकीय प्रश्रय के आई.सी.यू. की ज़रूरत बनी ही रहती है । क्या यह शर्मनाक नहीं है, कि एक अरब से अधिक आबादी वाला मुल्क अपनी सम्पर्क भाषा का अभाव, आज भी विदेशी भाषा से पूरा कर रहा है ? यदि सामान्य बोलचाल की हिन्दुस्तानी को सम्पर्क भाषा ( Lingua franca ) बने रहने दिया जाता, तो आज यह स्थिति न होती ।
हाँ एक मज़ेदार बात और, सत्ता के जोड़-तोड़ की गुप्त वार्तायें अवश्य ही किसी कूटभाषा में होती होगी , मसलन मायावती को केवल हिन्दी आती है, फिर भी वह जयललिता से सँवाद स्थापित कर लेती हैं, जो केवल अँग्रेज़ी और तमिल ही जानती हैं । चन्द्रबाबू नायडू ज्योति वसु से बतिया लेते हैं !
अनामदास का यह आलेख अपने आप में इतना विश्लेष्णात्मक और सशक्त है कि, इसमें सँकलनकार की इससे इतर कोई टिप्पणी या इपिलाग ( Epilogue ) बेमानी ही ठहरेगी । बस आवश्यकता एक बार फिर ईमानदारी से विचार किये जाने की है । - डा. अमर कुमार
इस पोस्ट पर आयी हुई कुछ टिप्पणियाँ भी बाँचिये ।
विमल वर्मा : अनामदासजी आपने बडे सरल तरीके से अपनी बात कही है. मुझे लग रहा था कि इस मुद्दे पर टिप्पणियां ज़्यादा आएंगी पर इतनी कम टिप्पणी देख कर आश्चर्य हुआ. क्योकि किसी भी लेख को पढ़ने के बाद, टिप्पणी पढ़ना अनिवार्य हो जाना स्वाभाविक है..पर इतने तथ्यपरक लेख को पढने के बाद यही कह सकता हूं कि सटीक लिखा आपने,पर कम टिप्पणियों को देख कर लगा कि इस चिट्ठाजगत में बहुत लोग हैं जो हिन्दी हिन्दी करते रहते हैं, पर अन्दर से अभी उदासीनती की भारी चादर तान के सो रहे है... मंगलवार, अगस्त 07, 2007
इष्टदेव साँकृत्यायन : शिक़ायत को परिवाद लिखे जाने का कारण है. सोचिए, अगर शिक़ायत लिख दिया जाएगा तो लोग समझ नहीं जाएँगे और जब समझ जाएंगे तो करने भी लगेंगे. लोग शिक़ायत करने लगेंगे तो उनका समाधान भी करना पड़ेगा. फिर पूरी व्यवस्था सुधारनी पडेगी. व्यवस्था सुधरेगी तो राजनेताओं और उनकी काली कमाई का क्या होगा? इसीलिए शिक़ायत की जगह परिवाद, काबिलियत की जगह अर्हता लादी जाती है. एक बात और, जिस कचहरी वाली भाषा की बात आप कर रहे हैं, वह भी एक जमाने में लादी ही गयी है. इस संदर्भ में चंद्रभूषण की टिप्पणी बिल्कुल सही है. अगस्त 07, 2007
2 सुधीजन टिपियाइन हैं:
हिन्दुस्तानी जो दिलों में बस गई है. वह आप को अफगानिस्तान में भी सुनने को मिल सकती है।
अच्छा संकलन तैयार हो रहा है .. हिन्दी की कमजोर स्थिति पर चिंता होना स्वाभाविक है .. मेरे चिट्ठा जगत में जुडने से पूर्व के भी महत्वपूर्ण आलेखों को भी पढ पाने का सौभाग्य मिल पा रहा है .. बहुत बहुत धन्यवाद !!
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !