#कल डा० अनुराग की पोस्ट ने कुछ समय तक अशाँत रखा। मेरे ख़्याल से यह कथ्य कोलाज़ समाज के विस्तृत कैनवास के चित्रण का एक फ़ैशनेबुल रिपीटेशन था, जो एक कोने पर ही टिक कर रह गया है । कुश के स्वर में निहित प्रतिवाद और अनूप शुक्ल की प्रशँसात्मक उलाहना से जैसे मुझे भी बल मिला हो
विसँगतियों के विद्रूप का एक अन्य पहलू ’ यह भी खूब रही ’ के प्रयास कुछ अलग तरह से रखते हैं ।
सिग्नल पर होता मेकअप
अप्रैल 16, 2008
दफ्तर आते हुए ट्रैफिक सिग्नल पर एक अजीब सा नजारा देखा…
एक ३०-३२ वर्ष की गोरी-चिट्टी मोहतरमा अपनी लंबी सी गाडी में बैठी सिग्नल के हरे होने के इंतज़ार कर रही हैं. इंतजार कुछ लंबा है क्यों ना दर्पण से गुफ्तगु की जाये. बस रियर-व्यु मिरर्र में लगी अपना चेहरा निहारने और गाडी बन गयी ब्यूटी पार्लर.
तभी ठक-ठक की आवाज से उनकी एकाग्रता भंग हुई. देखा कोई २५-२८ साल का एक नौजवान, अपने दोनों हाथों और दोनों पैरों की साहयता से एक चौपाये की तरह चल रहा था, भीख माँग रहा था. उन मोहतरमा ने एक नफरत भरी नजर उस पर डाली और फिर लिप्स्टिक निकाल कर अपने होटों की आभा बढाने लगी.
मैं उनके लाल-गुलाबी चमकते होठों को निहार रहा था तभी मुझे उस भिखारी का ख्याल आया और मैंने उसके होटों की तरफ देखा. उसके सुखे होटों पर ना खत्म होने वाली एक प्यास थी. फिर उस सुंदरी ने आई-लाईनर लगा कर अपनी सुंदर आँखों को और सुंदर बनाया. मैने भिखारी की उनींदी और अलसाई आँखों की तरफ देखा, उनमें कुछ पाने की लालसा अभी भी दम साधे खडी थी. आँखों के बाद गालों का नम्बर आया. धूप से गुलाबी हुए गालों को और गुलाबी किया जा रहा था. भिखारी के पिचके और भीतर धंसे हुए गाल शायद गुलाबी गालों से इर्ष्या कर रहे थे.
इस दौरान कभी-कभी स्वप्न सुंदरी भिखारी की तरफ भी देख लेती थी शायद पूछ रही हो-कैसी लग रही हूँ ? हल्की सी मुस्कुराहट के साथ हाथ अब रंग-बिरंगी बिंदी को एड्जैस्ट करने के लिये माथे पर पहुँच चुके थे. और वो भिखारी उसके हाथ भी माथे पर थे पसीना पोंछ रहा था या शायद अपनी तकदीर को एड्जैस्ट कर रहा था…पता नहीं.
तभी सिग्नल हरा हो गया और गाडी फर्राटे से निकल गयी. पता नहीं कितने सिग्नलों पर कितनी बार वह गाडी रुकेगी और कितनी बार वह अपने रूप को सँवारेगी और कितने ही भिखारीयों को उनके वाकई भिखारी होने का एहसास करवायेगी.
उस भीखारी को मैंने बहुत ध्यान से देखा था. उसके चेहरे पर एक सवाल मुँह बाये खडा था. क्यों भगवान, इतना फर्क क्यों किया ? तूने अमीर को अमीर बनाया मुझे उससे शिकायत नहीं. किंतु कम-से-कम मेरे हाथ-पैर तो सलामत बना देता.
तभी ड्राईवर की आवाज से तंद्रा टूटी, “क्यों सर मजा आ गया” ? मैं फीकी सी हँसी हँस दिया.
पोस्ट आभार: सिग्नल पर होता मेकअप / ब्लागपृष्ठ : यह भी खूब रही / 16 अप्रैल 2008 / लेखक-प्रयास
14 सुधीजन टिपियाइन हैं:
खूबसूरत पोस्ट डा० साहब।
कोई अर्श पे कोई फर्श पे, ये तुम्हारी दुनिया अजीब है
कहते इसे कोई कर्मफल, कोई कह रहा है कि नसीब है
यदि है नसीब तो इस कदर, तूने क्यों लिखा ऐ मेरे खुदा
समदर्शिता छूटी कहाँ, क्यों अमीर कोई गरीब है
आजकल के साहित्य में इस तरह की विद्रूप -उभार कथाओं का प्रचलन है क्या ? कहीं इसलिए ही तो ब्लॉग लेखन को साहित्य मानने में उन्हें (हमें नहीं -हम तो मुरीद हुए जाते हैं इस कौशल पर ) हिचक होती है !
पढ़े! फ़ीकी वाली मुस्कराहट छोड़ रहे हैं।
प्रयास के ब्लॉग की लिंक हेतु आभार
बढ़िया लगा वहाँ जा कर
वाह !
ऐसन हम नाही सोच पाते हालंकि पढ़े थे इसे. सच्चे, जना गये मुस्कराहट का सलीका..कि कब और कैसन!! अब आपे मुस्कैयाइये. :)
पैदा होने पर सब सामान होते है.. लोग अपनी किस्मत खुद बनाते है.. जिंदगी में भगवान् हमें कई दरवाजे दिखाता है.. अन्दर किस्मे जाना है ये फैसला हमारा होता है.. उस इंसान ने कही ना कही मेहनत की ही होगी जो आज सक्षम है.. वरना वो भी सड़क पर भीख मांग रहा होता.. चैलेंजेस को एक्सेप्ट करके मैंने लोगो को जिंदगी से लड़ते देखा है.. भिखारी बन जाना कोई आप्शन नहीं होता.. मुझे भिखारी बिलकुल पसंद नहीं है.. इश्वर ने सबको कुछ ना कुछ दिया ही है... इतने भी मोहताज नहीं बन जाना चाहिए..
अनुरोध : टिप्पणियों की फॉण्ट साइज़ बढाई जाए..
यह साहित्य ही है।
एक क्रैश में मुख्यमंत्री मरता है हर जगह न्यूज़ में छाया हुआ है. उस हेलीकाप्टर में और भी कोई था क्या? कहीं सुना नहीं न्यूज़ में !
"बहुत सी ऎसी रचनायें हैं जो ( हमारी दृष्टि में ) बेहतरीन तो हैं, पर किन्हीं कारणों से अनदेखी उपेक्षित सी रह गयी हैं । एक वर्ष या इससे पुरानी ऎसी रचनाओं को एक स्थान पर सहेज रहा हूँ ।"
यह पोस्ट पढ़कर मुझे कुछ ऐसा महसूस नही हुआ.
तो आपने मुस्कराहट छोड़ ही दी
ये जिन्दगी के मेले ,
दुनिया में कम न होंगें
- लावण्या
इसे किस्मत का खेल कहें या करनी का फल या पिछले जन्म का भोगमान -- जो भी हो, भगवान की लाठी में आवाज़ नहीं होती।
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !