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छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

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28 August 2009

पुनर्जन्म चक्र पर एक चिंतन : गांधीजी के परिप्रेक्ष्य में

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                                                                                                         अतिथि पोस्ट           
विज्ञान का कोई भी छात्र अमूमन पुनर्जन्म जैसे विषय को एक गप्प मान नकार देगा। लेकिन मैं कहीं -न कहीं पुनर्जन्म को पूर्णतः नकारने को तैयार नहीं हो पाता। इसका कारण भी विज्ञान ही है। मैं भूगर्भ-विज्ञान का छात्र हूँ। प्रकृति को वैज्ञानिक ही नहीं आध्यात्मिक नजरिये से भी देख पाता हूँ। मैग्मा से आग्नेय (Igneous) चट्टानें बनते और इनके विभिन्न रूपान्तरणों द्वारा पुनः मैग्मा में परिवर्तित होते और इस चक्र के सतत् चलते रहने को देखता हूँ। जल चक्र, सौर चक्र आदि कई प्राकृतिक साक्ष्य हैं जो स्पष्ट करते हैं कि प्रकृति में कहीं विराम नहीं. सतत् गति ही प्रकृति का अमिट सत्य है। तो भला मृत्यु जैसे मात्र एक पड़ाव पर आकर मानवजीवन कैसे रुक सकता है !

प्रकृति के चक्रों के समान ही मैं भी मानता हूँ कि मानव जीवन का चक्र भी चलता रहता है। जिस प्रकार प्रकृति में भी सतत evolution का क्रम जारी रहता है, मनुष्य भी पूर्व जन्म में छुटी अपनी अधूरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अतिरिक्त तैयारी या evolution के साथ नया जन्म लेता है. क्या हमारे दशावतारों में evolution का यह क्रम नहीं दिखता !
इसी प्रकार यदि इतिहास में झांकें तो क्या फांसी पर चढ़ते मंगल पांडे के दिमाग में यह बात नहीं आई होगी कि हमारे देश की भीरु जनता और स्वार्थग्रस्त शासकों के साथ सशस्त्र क्रांति की सफलता संभव नहीं। तो क्या यही evolution गांधीजी द्वारा किन्ही नए हथियारों के साथ उसी आम जनता में आत्मविश्वास जगा नए सिरे से प्रयास करने में नहीं दिखती !
उनकी मृत्यु  के  समय  तक  रावण  के  परिवार  की  तरह  सर्वत्र  व्याप्त  हो  चुकी विभाजनकारी शक्तियों को देख बापू को भी यह आभास हो गया होगा कि एक अकेला गाँधी इन आसुरी शक्तियों से नहीं निपट सकता। नतीजा आज देश कई छोटे-छोटे गांधियों से भरा पड़ा है, जो अनजान - गुमनाम सी जिंदगी जीते हुए भी सीमित स्तर पर ही सही क्रांतिकारी परिवर्तन ला रहे हैं। लो, एक गाँधी को तो मार दिया, मगर अब और कितने गांधियों को मारोगे ! सुन्दर लाल बहुगुणा, बाबा आम्टे, राजेंद्र सिंह, और कई अनगिनत,अल्पज्ञात आत्माएं गांधीजी के उसी विशाल प्रकाश पुंज की विभक्त ज्योतियाँ हैं; जिनसे सारा देश प्रकाशित है। आज यदि हमारा देश कायम है और निरंतर आगे बढ़ रहा है तो इसका श्रेय पक्ष-प्रतिपक्ष के राजनीतिक नेतृत्व को नहीं बल्कि इन्ही दीपों को है,जो स्वयं प्रज्जवलित हो आने वाली पीढी को नई राह दिखा रहे हैं। और यही राज है, इन पंक्तियों का कि-
"कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी;
सदियों रहा है दुश्मन(सिर्फ बाहरी ही नहीं), दौरे जहाँ हमारा।"
आज जरुरत गाँधी या भगत सिंह के पुनर्जन्म (पड़ोसी के घर में) की प्रतीक्षा करने की नहीं,बल्कि अपने आस-पास की ऐसी विभूतियों को पहचान उनके कार्यों में यथासंभव योगदान कर उनका उत्साह बढ़ाने की है।
तस्वीर : साभार गूगल

4 सुधीजन टिपियाइन हैं:

विवेक सिंह टिपियाइन कि

प्रेरणादायक लेख,

आभार !

संगीता पुरी टिपियाइन कि

इतने कम उम्र के बावजूद गंभीर लेखन में अभिषेक जी का जवाब नहीं !!

Arvind Mishra टिपियाइन कि

यह लेख यहाँ संकलन के उपयुक्त नहीं है -चार्वाक ने स्पष्ट कहा था -पुनरागमन्म कुतः ? और यह शाश्वत सत्य है !

L.Goswami टिपियाइन कि

कपोल - कल्पना से ज्यादा कुछ नही ..और स्पस्ट है की संकलन का सर्वाधिकार अमर जी के पास सुरक्षित है, तथापि हम अपना मंतव्य तो कहेंगे ही.

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