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मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
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27 September 2009

क्राँति की तलवार - इन्क़लाब ज़िन्दाबाद

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शहीद भगत सिंह जन्मदिन पर विशेष

From INTERNET

अलीपुर बमकाँड के आरोपी श्री यतीन्द्रनाथ दास 63 दिन के  singh_b_unshavenआमरण  अनशन  के  पश्चात   ब्रह्मलीन हो गये  । सँभवतः ब्रिटिश सरकार उनको मिसगाइडेड हूलीगन से अधिक कुछ और न मानती थी । यह इसलिये भी कि शायद न तो इनका कोई राजनैतिक कद बन पाया था और न ही इनके सत्याग्रह को कोई राजनैतिक समर्थन मिल सका । नेतृत्व स्तर पर यह उपेक्षित रखे गये । इसके बावज़ूद भी आम जनता ने इनकी मृत्यु को शहादत का दर्ज़ा दिया और पूरे देश में इन्क़लाब ज़िन्दाबाद की लहर गूँज उठी । यह इन्क़लाब का सही मायनों में सूत्रपात था, जब यह नारा खुल कर प्रयोग हुआ । इस नारे के औचित्य पर अँग्रेज़ी सरकार तो क्या भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी प्रश्नचिन्ह लगाये और इसकी भरपूर आलोचना हुई । इनमें मार्डन रिव्यू के सम्पादक रामानन्द चट्टोपाध्याय प्रमुख थे । भगत सिंह और बी.के.दत्त (  बटुकेश्वर दत्त ) ने सम्पादक को इसका जोरदार उत्तर दिया । प्रस्तुत है, इस पत्र का अविकल रूप, जिसमें वह स्पष्ट करते हैं कि’ इन्क़लाब ज़िन्दाबाद क्या है ? ’Bhagat_singh_Batukeshwer

श्री सम्पादक जी,                                                                                                            मार्डन रिव्यू

आपने अपने सम्मानित पत्र के दिसम्बर, 1929 के अँक में एक टिप्पणी ’ इन्क़लाब ज़िन्दाबाद ’ शीर्षक से लिखी है और इस नारे को निरर्थक ठहराने की चेष्टा की है । आप सरीखे परिपक्व विचारक तथा अनुभवी और यशश्वी सम्पादक की रचना  में  दोष  निकालना  तथा  उसका  प्रतिवाद  करना, जिसे  प्रत्येक भारतीय सम्मान की दृष्टि से देखता है, हमारे  लिये  एक  बड़ी  घृष्टता  होगी । तो भी इस प्रश्न का उत्तर देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि इस नारे से हमारा क्या अभिप्राय है ।

यह आवश्यक है, क्योंकि  इस  देश  में इस  समय  इस  नारे  को  सब लोगों  तक  पहुँचाने  का  कार्य  हमारे हिस्से में अया है । इस नारे की रचना हमने नहीं की है । यही नारा रूस के क्राँतिकारी आँदोलन में प्रयोग किया गया था है । प्रसिद्ध समाजवादी लेखक अप्टन सिक्लेयर ने अपने उपन्यासों ’ बोस्टन ’ और ’ आईल ’ में यही नारा कुछ अराजकतावादी क्रान्तिकारी पात्रों के मुख से प्रयोग कराया है । इसका अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सशस्त्र सँघर्ष सदैव जारी रहे और कोई भी व्यवस्था अल्प समय के लिये भी स्थायी न रह सके, दूसरे शब्दों में- देश  और समाज में अराजकता फैली रहे ।

दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऎसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है, जो सँभव है कि भाषा के नियमों  एवँ  कोष  के  आधार  पर  इसके  शब्दों  से  उचित  तर्कसम्मत  रूप  से  सिद्ध  न  हो  पाये, परन्तु   इसके  साथ  ही  इस  नारे  से  उन  विचारों को पृथक नहीं किया जा  सकता, जो  इसके साथ जुड़े हुये हैं । ऎसे समस्त नारे एक ऎसे स्वीकृत अर्थ के द्योतक हैं, जो  एक  सीमा  तक  उनमें  उत्पन्न  हो  गये  हैं तथा एक सीमा तक उसमें निहित है ।

उदाहरण के लिये हम यतीन्द्रनाथ ज़िन्दाबाद का नारा लगाते हैं । इससे हमारा तात्पर्य यह होता है कि उनके  जीवन  के  महान  आदर्शों  तथा  उस  अथक  उत्साह  को  सदा सदा  के  लिये   बनायें  रखें, जिसने  इन महानतम  बलिदानी को उस  आदर्श के  लिये  अकथनीय कष्ट झेलने एवँ असीम बलिदान करने की प्रेरणा  दी । यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है कि हम भी अपने आदर्शों के लिये ऎसे ही अचूक उत्साह को अपनायें । यही वह भावना है, जिसकी हम प्रशँसा करते हैं । इसी  प्रकार ’ इन्क़लाब ’ शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिये । इस  शब्द  का उचित  एवँ  अनुचित  प्रयोग करने  वालों  के  हितों  के  आधार  पर  इसके  साथ  विभिन्न  अर्थ  एवँ  विभिन्न  विशेषतायें  जोड़ी  जाती  हैं । क्रान्तिकारियों की दृष्टि में यह एक पवित्र वाक्य है । हमने इस बात को ट्रिब्यूनल के सम्मुख अपने वक्तव्य में स्पष्ट करने का प्रयास किया था ।

इस वक्तव्य में हमने कहा था कि क्राँति ( इन्क़लाब ) का अर्थ अनिवार्य रूप से सशस्त्र  आन्दोलन  नहीं  होता । बम और पिस्तौल कभी कभी क्राँति को सफल बनाने के साधन हो सकते हैं । इसमें भी सन्देह नहीं है कि  कुछ  आन्दोलनों  में  बम  एवँ  पिस्तौल  एक महत्वपूर्ण  साधन  सिद्ध होते हैं, परन्तु  केवल  इसी  कारण  से बम और पिस्तौल क्राँति के पर्यायवाची नहीं हो जाते ।  विद्रोह  को  क्राँति  नहीं  कहा  जा  सकता, यद्यपि हो सकता है कि विद्रोह का अन्तिम परिणाम क्रान्ति हो ।

एक  वाक्य  में  क्रान्ति  शब्द  का  अर्थ ’ प्रगति के लिये परिवर्तन की भावना एवँ आकाँक्षा ’ है । लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार से ही काँपने लगते हैं । यही एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके  स्थान  पर  क्रान्तिकारी  भावना  जागृत करने  की आवश्यकता है । दूसरे  शब्दों  में  कहा जा  सकता  है  कि  अकर्मण्यता का  वातावरण  निर्मित  हो  जाता  है और रूढ़ीवादी शक्तियाँ मानव समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं । यही परिस्थितियाँ मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं ।

क्रान्ति की इस  भावना  से  मनुष्य  जाति  की  आत्मा  स्थायी  रूप  पर  ओतप्रोत  रहनी  चाहिये, जिससे कि रूढ़ीवादी शक्तियाँ मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिये सँगठित न हो सकें । यह आवश्यक  है  कि  पुरानी  व्यवस्था  सदैव  न  रहे  और  वह  नयी  व्यवस्था  के  लिये  स्थान  रिक्त  करती  रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था सँसार को बिगड़ने से रोक सके । यह है हमारा अभिप्राय जिसको हृदय में रख कर हम ’ इन्क़लाब ज़िन्दाबाद ’ का नारा ऊँचा करते हैं ।

22, दिसम्बर, 1929                                                                                         भगत सिंह - बी. के. दत्त

पत्र का मूलपाठ आभार - भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़ / प्रथम सँस्करण 1986 / सँकलन सँपादन – जगमोहनसिंह  & चमनलाल / राजकमल प्रकाशन
अँतर्जाल सँदर्भ
: 1. On the slogan of 'Long Live Revolution'
                        2.Bhagat Singh Study        
                        3.sepiamutiny.com
                        4.wikibrowser.net/dt/hi/भगत सिंह

चलते चलते : इतिहास से कुछ छवियाँbhagat%20singh%201liveindia_Bhagat_Singhletter by bhagat singh from lahore jail


 

6 सुधीजन टिपियाइन हैं:

Anonymous टिपियाइन कि

लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार से ही काँपने लगते हैं ।

कितना कटु सत्य है

बी एस पाबला

दिनेशराय द्विवेदी टिपियाइन कि

इंकलाब जिन्दाबाद का सही अर्थ यही है जो इस पत्र में समझाया गया है। इस पत्र की इस अवसर पर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

Khushdeep Sehgal टिपियाइन कि

इंकलाब यानि क्रान्ति शब्द का अर्थ ’प्रगति के लिये परिवर्तन की भावना एवँ आकाँक्षा’है...ओबामा ने अमेरिका में चेंज का नारा देकर ही अश्वेत राष्ट्रपति के रूप में इतिहास रचा...हम देश के रूप में 62 साल पहले आज़ाद हो चुके हैं...लेकिन गरीबी, अशिक्षा, भूख और सामाजिक कुरीतियों से हम कब आज़ाद होंगे...वही होगी हमारी टोटल आज़ादी...और इसके लिए राहुल गांधी का मूक इंकलाब ही काफी नहीं है...हर भारतीय को इसके लिए आगे आना होगा, तभी तस्वीर बदल सकेगी...

डॉ टी एस दराल टिपियाइन कि

इन्कलाब की ज़रुरत तो अब पहले से भी ज्यादा महसूस हो रही है. क्योंकि अब लक्ष्य बहुमुखी हो गया है.
बहुत अच्छा लेख लिखा है.
प्रथम दर्शनों के लिए आभार.

डॉ .अनुराग टिपियाइन कि

ओर देखिये गुरुवर आज के टाईम्स ऑफ़ इंडिया ओर दैनिक जागरण में कही जिक्र भी नहीं है ...कल किसी सज्जन ने अपने ब्लॉग पे एक वाजिब सवाल उठाया था के हमें इतिहास पढने की क्यों आवश्यकता है .....आज देख कर लगा .....इसी लिए के हम उन्हें याद रखे ..जिनकी वजह से हम अस्तित्व में है....

Abhishek Ojha टिपियाइन कि

भगत सिंह को बस इसीलिए तो याद किया जाता है कि उन्होंने अस्सेम्बली में बम फेंका. उनके विचारों को कितनो ने पढ़ा है?

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अँतर्जाल एवं मुद्रण से समकालीन साहित्य के
चुने हुये अँशों का अव्यवसायिक सँकलन

(संकलक एवं योगदानकर्ता के निताँत व्यक्तिगत रूचि पर निर्भर सँग्रह !
आवश्यक नहीं, कि पाठक इसकी गुणवत्ता से सहमत ही हों )

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