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छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

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12 April 2010

किसी का मुंह जो यह बात हमारे मुंह पर लावे

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.... ... के हमने यह नायाब अफ़साना जो रानी केतकी के नाम से चलता है, पूरा न किया ?
वापस आकर देखता हूँ,
तो डेढ़ महीने पूरा होना चाहते हैं.. और रानी का किस्सा कोने पड़ा मेरी राह तक रहा है । ज़माने की रुसवाईंयों ने मुझे खुद से रुबरू होने का इतना मौका भी न दिया कि रानी को लेकर किया मेरा कौल वखत पर तामील हो । तो महज़ अफ़सोस व तरद्दुद इसकी भरपाई क्योंकर करें ? गुम रह जाता यह खयाल के हाथ में लिया एक काम रहा जाता है, गर मेरे भाई सरीखे एक यार बातचीत की बेतार मशीन से मुझे आवाज़ न लगाते, " बरखुरदार, कहाँ रहते हो ? इतने ग़ाफ़िल भी न रहो के अपने यार की नाक कटाओ, और ज़लद ब ज़ल्द सबको पूरा किस्सा पढ़वाओ । " उनने हूबहू वही बात कही जो यहाँ बयान है । ज़नाब ने रोज़ी की ख़ातिर  मलेच्छ मुलुक में अपना डौल बनाया तो क्या, दिल तो उनका जैसे यहीं अपने वतन के गिर्द टँगा दिखता है । ऎलान करता हूँ भाईबन्द यार मेरे, कि  चाहे  जो  भी  गुज़र  जाये  पर  आज केतकी के किस्से को पूरा किये बिना अपनी जगह से भी न हिलूँगा । अगर कल को टाला, तो  इन  नाज़ुक  माहज़बीं  रानी  का  किस्सा  मेरे  नामाकूल हाथों से हौलनाक अफ़साना बनने का कलँक दे जायेगा । परवाह नहीं पीछे के बयानात को किसीने गौर न लिया तो भी  क्या.. चँद  पढ़ने  वाले यह नुकसान क्योंकर सहें ?
तो ज़नाब इब्ने ईँशा साहब यह फरमा चुके हैं कि
" खेलो, कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो । अच्छी घडी- शुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीत चाही ठीक कर लावे और शुभ घडी शुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के मां-बाप के पास भेजा । ब्राह्मन जो शुभ मुहूरत देखकर हडबडी से गया था, उस पर बुरी घडी पडी । सुनते ही रानी केतकी के मां-बाप ने कहा - हमारे उनके नाता नहीं होने का " अब आगे का हवाल..... ..

उनके बाप-दादे हमारे बाप दादे के आगे सदा हाथ जोडकर बातें किया करते थे और दो टुक जो तेवरी चढी देखते थे, बहुत डरते थे । क्या हुआ, जो अब वह बढ गए, ऊंचे पर चढ गए । जिनके माथे हम न बाएं पांव के अंगूठे से टीका लगावें, वह महाराजों का राजा हो जावे । किसी का मुंह जो यह बात हमारे मुंह पर लावे ! ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - अगले भी बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं । राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं । यह कुंवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती । नहीं तो ऐसी ओछी बातें कब हमारे मुंह से निकलती । यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की चंगेर फेंक मारी और कहा - जो ब्राह्मण की हत्या का धडका न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता । और अपने लोगों से कहा- इसको ले जाओ और ऊपर एक अंधेरी कोठरी में मूंद रक्खो। जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान ने सुनी। सुनते ही लडने के लिए अपना ठाठ बांध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ आया । जब दोनों महाराजों में लडाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगी; rani-ketki-ki-kahani-dr.amar-at-amar4hindi और दोनों के जी में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा ।
इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे । राजपाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता । सूरजभान के हाथ से आपने बचाया । अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा ? अपने आप में तो सकत नहीं । फिर ऐसे राज का फिट्टे मुंह कहां तक आपको सताया करें । जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा - तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो, दनदनाओ, सुख चैन से रहो । अब वह कौन है जो तुम्हें आंख भरकर और ढब से देख सके । यह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया । जो कुछ ऐसी गाढ पडे तो इसमें से एक रोंगटा तोड आग में फूंक दीजियो । वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुंचेंगे। रहा भभूत, सो इसीलिए है जो कोई इसे अंजन करे, वह सबको देखें और उसे कोई न देखें, जो चाहे सो करें। जाना गुरुजी का राजा के घर गुरु महेंदर गिर के पांव पूजे और धनधन महाराज कहे । उनसे तो कुछ छिपाव न था । महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए । सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगडे । उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी । रानीकेतकी ने भी गुरुजी को दंडवत की; पर जी में बहुत सी गुरु जी को गालियां दी । गुरुजी सात दिन सात रात यहां रहकर जगतपरकास को सिंघासन पर बैठाकर अपने बंधवर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ धमके और राजा जगत परकास अपने अगले ढब से राज करने लगा । रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना ।

दोहरा : (अपनी बोली की धुन में)
रानी को बहुत सी बेकली थी । कब सूझती कुछ बुरी भली थी ॥ चुपके-चुपके कराहती थी । जीना अपना न चाहती थी॥ कहती थी कभी अरी मदनबान । हैं आठ पर मुझे वही ध्यान ॥ यां प्यास किसे किसे भला भूख । देखूं वही फिर हरे हरे रुख ॥ टपके का डर है अब यह कहिए । चाहत का घर है अब यह कहिए ॥ अमराइयों में उनका वह उतरना । और रात का सांय सांय करना ॥ और चुपके से उठके मेरा जाना । और तेरा वह चाह का जताना ॥ उनकी वह उतार अंगूठी लेनी । और अपनी अंगूठी उनको देनी ॥ आंखों में मेरे वह फिर रही है । जी का जो रूप था वही है ॥ क्योंकर उन्हें भूलूं क्या करूं मैं । मां बाप से कब तक डरूं मैं ॥ अब मैंने सुना है ऐ मदनबान । बन बन के हिरन हुए उदयभान ॥ चरते होंगे हरी हरी दूब । कुछ तू भी पसीज सोच में डूब ॥ मैं अपनी गई हूं चौकडी भूल । मत मुझको सुंघा यह डहडहे फूल ॥ फूलों को उठाके यहां से ले जा । सौ टुकडे हुआ मेरा कलेजा ॥ बिखरे जी को न कर इकट्ठा । एक घास का ला के रख दे गट्ठा ॥ हरियाली उसी की देख लूं मैं । कुछ और तो तुझको क्या कहूं मैं ॥ इन आंखों में है फडक हिरन की । पलकें हुई जैसे घासवन की ॥ जब देखिए डबडबा रही हैं । ओसें आंसू की छा रही हैं ॥ यह बात जो जी में गड गई है । एक ओस-सी मुझ पे पड गई है ।

इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती । रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत का, जो गुरुजी दे गए थे, आँख मिचौबल के बहाने अपनी मां रानी कामलता से । एक रात रानी केतकी ने अपनी मां रानी कामलता को भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा - गुरुजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया है, वह कहां रक्खा है और उससे क्या होता है ? रानी कामलता बोल उठी - आंख मिचौवल खेलने के लिए चाहती हूं । जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूं और चोर बनूं तो मुझको कोई पकड न सके । महारानी ने कहा - वह खेलने के लिए नहीं है । ऐसे लटके किसी बुरे दिन के संभलने को डाल रखते हैं । क्या जाने कोई घडी कैसी है, कैसी नहीं । रानी केतकी अपनी मां की इस बात पर अपना मुंह थुथा कर उठ गई और दिन भर खाना न खाया । महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं । तब रानी कामलता बोल उठी - अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आंख मिचौवल खेलने के लिए वह भभूत गुरुजी का दिया मांगती थी । मैंने न दिया और कहा, लडकी यह लडकपन की बातें अच्छी नहीं । किसी बुरे दिन के लिए गुरुजी गए हैं । इसी पर मुझसे रूठी है । बहुतेरा बहलाती है, मानती नहीं ।

राजा इंदर का कुँवर उदैभान का साथ करना राजा इंदर ने कह दिया, वह रंडियाँ चुलबुलियाँ जो अपने मद में उड चलियाँ हैं, उनसे कह दो-सोलहो सिंगार, बास गूँधमोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड न खटोलों का इस राज से लेकर उस राज तक अधर में छत बाँध दो । कुछ इस रूप से उड चलो जो उडन-खटोलियों की क्यारियाँ और फुलवारियाँ सैंकडों कोस तक हो जायें । और अधर ही अधर मृदंग, बीन, जलतरंग, मँुहचग, घँुगरू, तबले घंटताल और सैकडों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ। और उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनवेधे मोतियों के झाड और लाल पटों की भीड भाड की झमझमाहट दिखाई दे और इन्हीं लाल पटों में से हथफूल, फूलझडियाँ, जाही जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब से छूटने लगें तो देखने वालों को छातियों के किवाड खुल जायें । और पटाखे जो उछल उछल फूटें, उनमें हँसती सुपारी और बोलती करोती ढल पडे । और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से मोतियों की लडियाँ झडें जो सबके सब उनको चुन चुनके राजे हो जायें। डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड छेड सोहलें गाओ। दोनों हाथ हिलाके उगलियाँ बचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह ताव भाव वह चाव दिखाओ; ठुड्डियाँ गिनगिनाओ, नाक भँवे तान तान भाव बताओ; कोई छुटकर न रह जाओ । ऐसा चाव लाखों बरस में होता है । जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की झपक के साथ वही होने लगा । और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने कह दिया था, सब कुछ उसी रूप से ठीक ठीक हो गया । जिस ब्याह की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ फैलावा  क्या  कुछ  होगा, यही  ध्यान  कर  लो । ठाटो करना गोसाई महेंदर गिर का जब कुँवर उदैभान को वे इस रूप से ब्याहने चढे और वह ब्राह्मन जो अँधेरी कोठरी से मुँदा हुआ था, उसको भी साथ ले लिया और बहुत से हाथ जोडे और कहा-ब्राह्मन देवता हमारे कहने सुनने पर न जाओ । तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो । एक उडन खटोले पर वह भी रीत बता के साथ हो लिया । राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर ऐरावत हाथी ही पर झूलते झालते देखते भालते चले जाते थे । राजा सूरजभान दुल्हा के घोडे के साथ माला जपता हुआ पैदल था । इसी में एक सन्नाटा हुआ । सब घबरा गए । उस सन्नाटे में से जो वह 90 लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले मोतियों की लडियों की गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढब की बाँधे हुए मिरिगछालों और बघंबरों पर आ ठहर गए । लोगों के जियों में जितनी उमंगें छा रही थी, वह चौगुनी पचगुनी हो गई । सुखपाल और चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महारानी लछमीदास के पीछे चली आतियाँ थीं । सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी का सवाँग आया । कहीं जोगी जातियाँ आ खडे हुए । कहीं कहीं गोरख जागे कहीं मुछंदारनाथ भागे । कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामन रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम लछमन सीता सामने आई, कहीं रावन और लंका का बखेडा सारे का सारा सामने दिखाई देने लगा कहीं कन्हैया जी की जनम अष्टमी होना और वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ चलना, गाए चरानी और मुरली बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका रहस और कुब्जा का बस कर लेना, वही करील की कुंजे, बसीबट, चीरघाट, वृंदावन, सेवाकुंज, बरसाने में रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का सब ज्यों की त्यों आँखों में आना और द्वारका जाना और वहाँ सोने का घर बनाना, इधर  बिरिज  को  न  आना  और  सोलह  सौ  गोपियों  का तलमलाना सामने आ गया । उन गोपियों में से ऊधो क हाथ पकड कर एक गोपी के इस कहने ने सबको रूला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रूँधे हुए जी को खोले थी । चौचुक्का जब छांडि करील को कुँजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय बसे । कलधौत के धाम बनाए घने महाजन के महाराज भये । तज मोर मुकुट अरू कामरिया कछु औरहि नाते जाड लिए । धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए । अच्छापन घाटों का कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे, पक्के चाँदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे। निवाडे, भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर, और जितनी ढब की नावे थीं, सुनहरी रूपहरी, सजी सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं । उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, डोमिनियाँ भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती कूदती फाँदती घूमें मचातियाँ अँगडातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढुली पडतियाँ थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो साने रूपे के पत्तरों से मढी हुई और सवारी से भरी हुई न हो । और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे । उन पर गायनें बैठी झुलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हडों में गा रही थीं । दल बादल ऐसे नेवाडों के सब झीलों में छा रहे थे ।

आ पहुँचना कुँवर उदैभान का ब्याह के ठाट के साथ दूल्हन की ड्योढी पर बीचों बीच सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी छत और किवाड और आंगन में आरसी छुट कहीं लकडी, ईट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी । चाँदनी सा जोडा पहने जब रात घडी एक रह गई थी । तब रानी केतकी सी दुल्हन को उसी आरसी भवन में बैठकर दूल्हा को बुला भेजा । कुँवर उदैभान कन्हैया सा बना हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाँधे उसी तडावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखडा लिए जा पहुँचा । जिस जिस ढब में ब्राह्मन और पंडित बहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होती चली आई थी, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठजोडा हो लिया । अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले । घास के जो फूल कुम्हालाए हुए थे फिर खिले ॥     चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन । रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन ॥ ऐ खिलाडी यह बहुत सा कुछ नहीं थोडा हुआ। आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोडा  हुआ । चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें। दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें ॥  वह उडनखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थी, भर भर झोलियाँ और मुठ्ठियाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के लिए उतर आइयाँ और उडन-खटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे हुए खडे रहे । और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेर होने में पिस गइयाँ । सभों को एक चुपकी सी लग गई । राजा इंदर ने दूल्हन को मुँह दिखाई में एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक पेडी पुखराज की दी और एक परजात का पौधा जिसमें जो फल चाहो सो मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया । और एक कामधेनू गाय की पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लौंडि या उन्हीं उडन-खटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी गाती बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और उन्हें कह दिया-रानी केतकी छूट उनके दूल्हा से कुछ बातचीत न रखना, नहीं तो सब की सब पत्थर की मूरत हो जाओगी और अपना किया पाओगी । और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख रत्ती जो उसकी इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा-यह भी एक खेल है । जब चाहिए, बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटकी छोड दीजै; कंचन हो जायेगा । और जोगी जी ने सभी से यह कह दिया-जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन रात सोने की नदियों के रूप में मनि बरसे । जब तक जिएँ, किसी बात को फिर न तरसें । 9 लाख 99 गायें सोने रूपे की सिगौरियों की, जड जडाऊ गहना पहने हुए, घुँघरू छमछमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड दिया गया । बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊँट रूपयों के तोडे लादे हुए लुटा दिए । कोई उस भीड भाड में दोनों राज का रहने वाला ऐसा न रहा जिसको घोडा, जोडा, रूपयों का तोडा, जडाऊ कपडों के जोडे न मिले हो । और मदनबान छुट दूल्हा दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जाए । बिना बुलाए दौडी आए तो वही और हँसाए तो वही हँसाए । रानी केतकी के छेडने के लिए उनके कुँवर उदैभान को कुँवर क्योडा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को सौ सौ रूप से सँवारती थी

दोहरा
घर बसा जिस रात उन्हीं का तब मदनबान उसी घडी । कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कडी ॥ जी लगाकर केवडे से केतकी का जी खिला । सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पडी ॥ क्या न आई लाज कुछ अपने पराए की अजी । थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हडबडी ॥ मुसकरा के तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा । मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलछडी ॥ जी में आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी । बल बें ऐं रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी की घडी ॥

बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाडों में उदैभान उदैभान चिघाडती हुई आ निकली । एक ने एक को ताडकर पुकारा-अपनी तनी आँखें धो डालो । एक डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड हुई । गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाडों में कूक सी पड गई । दोहरा छा गई ठंडी साँस झाडों में । पड गई कूक सी पहाडों में । दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छांव को ताडकर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने लगीं । बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा । जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी । रानी केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी- दोहरा हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे । हैं वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे ॥ अब तो सारा अपने पीछे झगडा झाँटा लग गया । पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग गया ॥ पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पँुछते चले । उन्ने यह बात कही-जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजडे हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ । गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजडे हुओं की मुट्ठी में हैं । अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं । पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पडी बकती है । मैं इस पर बीडा उठाती हूँ । बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें । मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना चितचाही बात सुनना मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खडी हुई और कहने लगी-लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये । रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ । उन्हीं के हाथों की लिखी चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए । महाराज ने उस बधंबर में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के फूँक दिया । बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सर्वाग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और कहा- बघंबर इसीलिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो तो इसका एक बाल फूँक दीजियो । तुम्हारी यह गत हो गई । अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे ? पर तुम क्या करो यह खिलाडी जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे । भभूत लडकी को क्या देना था । हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था । फिर उन तीनों को जैसा का तैसा करना कोई बडी बात न थी । अच्छा, हुई सो हुई।  अब उठ चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो । अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूँगा । महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घडी यह कह दिया सारी छतों और कोठों को गोटे से मढो और सोने और रूपे के सुनहरे सेहरे सब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की लडियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठा रहूँगा, और छ: महिने कोई चलने वाला कहीं न ठहरे । रात दिन चला जावे । इस हेर फेर में वह राज था । सब कहीं यही डौल था । जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी केतकी के लिये फिर महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे । गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढावा दिया और कहा-तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने घर सिधारो । अब मैं बेटे उदैभान को लिये हुए आता हूं । गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो  तो  वह  सिधारते  हैं । आगे  जो  होगी  सो  कहने  में  आवेंगी -यहाँ पर धूमधाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये । महाराज जगतपरकास ने अपने सारे देश में कह दिया-यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी । गाँव गाँव में अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपडे उन पर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने बड पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के सेहरे बडे-बडे ऐसे जिसमें सिर से लगा पैदा तलक पहुँचे बाँधो । चौतुक्का पौदों ने रंगा के सूहे जोडे पहने । सब पाँण में डालियों ने तोडे पहने ।। बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने । जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहने ॥ जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेहंदी की रचावट के साथ जितनी सजावट में समा सके, कर  लिये  और  जहाँ  जहाँ  नयी  ब्याही  ढुलहिनें  नन्हीं नन्हीं फलियों की ओर सुहागिनें नई नई कलियों के जोडे पंखुडियों के पहने हुए थीं । सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे जिस ढण  से  हो  सकता  था  खेती  बारी  करके, हल जोत के और कपडा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें । और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड सालों की खँडसालें उनमें उडेल गई और सारे बानों और पहाड तनियाँ में लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी । और जितनी झीलें थीं उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड गया और केसर भी थोडी थोडी घोले में आ गई ।

तो.. इस प्रकार यहाँ हिन्दी की पहली कहानी का समापन हुआ । प्रस्तुत यह अँतिम कड़ी  समय-व्यवधान सँभावी मान कर लम्बी हो गयी है । अतः पाठकगण क्षमा करें पर बुकमार्क  सोपान बनाने का यथासँभव प्रयास किया गया है । केवल अपने विस्तार के चलते ही इसे लघु-औपन्यासिक कृति कहा जा सकता है, और इसके कहानी होने पर सवाल उठाये जाते रहे हैं । इसके कहानी होने के सवाल पर  विस्तृत जानकारी अनिल कान्त के ब्लॉग पर उपलब्ध है, जिसमें से मैं केवल इतना अँश उद्घृत करना पर्याप्त समझता हूँ । " समझ नहीं आता कि शुक्ल जी का ध्यान 'इन्दुमती' से पहले लिखी गयी 'रानी केतकी की कहानी' और 'ग्यारह वर्ष का समय' से पहले लिखी गयी 'एक टोकरी भर मिट्टी' पर क्यों नहीं जाता.क्या उन्हें इन दोनों में मार्मिकता नहीं दिखाई देती. डॉक्टर गणपति चन्द्र गुप्त पहले तो लिखते हैं कि हिंदी गद्य में कहानी शीर्षक से प्रकाशित होने वाली रचना 'रानी केतकी की कहानी' है जो सन् 1803 में लिखी गई, किन्तु आगे चलकर वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि किशोरीलाल गोस्वामी हिंदी के प्रथम कहानीकार हैं. डॉक्टर रामरतन भटनागर ने भी 'रानी केतकी की कहानी' को हिंदी की पहली कहानी माना है किन्तु वह जयशंकर प्रसाद की 'ग्राम' नामक कहानी को आधुनिक हिंदी की पहली मौलिक कहानी मानते हैं.डॉक्टर देवेश ठाकुर लिखते हैं कि 'रानी केतकी की कहानी' कहानी नहीं है, बल्कि औपन्यासिक कहानी है. भले ही इंशाअल्लाह ने इसे कहानी कहा है लेकिन इसमें कहानी तत्व की अपेक्षा कथा तत्व ही अधिक है और आगे चलकर अपनी विवेचना में यह कहते हैं कि कालक्रम की दृष्टि से 'रानी केतकी की कहानी' ही पहली कहानी ठहरती है. "

3 सुधीजन टिपियाइन हैं:

Udan Tashtari टिपियाइन कि

पूरा उपन्यास ही लिख मारे क्या भाई..अभी पढ़ते हैं. जरा दफ्तर में छुट्टी के लिए एप्लाई कर दें. :)

RAJ SINH टिपियाइन कि

बंधुवर ,
बहुत दिनों बाद ( जब साहित्य रत्न कर रहा था ६३ में ) फिर से रानी केतकी .................पढी .मज़ा भीआया .
अब यह कहनी है, कहानी है , उपन्यास है या पहली है ............ये सब आलोचकों पर .लेकिन हिन्दी उदय का मील का पत्थर जरूर है.

बाकी जरा मेल पढ़ जबाब जरूर दैह्यो .

डॉ .अनुराग टिपियाइन कि

jhakas hai guruvar.....

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