at-hindi-weblog

छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

पोस्ट सदस्यता हेतु अपना ई-पता भेजें

12 May 2010

तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके, मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ........

Technorati icon
गुलज़ार पर कुछ लिखना जैसे मन के कितने कोनो से गुजरना है .....कितनी जिंदगियो को रिवाइंड करना है .....वो मेरे लिए उस कोर्स की किताब की  माफिक है जिसे जितनी बार पढ़ा जाये.भीतर से
हर बार नया कुछ निकाल देती है ........
इक नज़्म की चोरी इक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में,
गोल तिपाई के ऊपर थी!
विस्की वाले ग्लास के नीचे रक्खी थी
शाम से बैठा,
नज़्म के हल्के-हल्के सिप मैं घोल रहा था होठों में,
शायद कोई फ़ोन आया था-
अंदर जा के, लौटा तो फिर नज़्म वहाँ से गायब थी।

अब्र के ऊपर नीचे देखा
सुर्ख़ शफ़क़ की जेब टटोली
झाँक कर देखा पार उफुक के
कहीं नज़र न आई, फिर वो नज़्म मुझे!

आधी रात आवाज़ सुनी, तो उठ के देखा
टाँग पे टाँग रखे, आकाश में
चाँद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया को अपनी कहके नज़्म सुनाने बैठा था।


रिश्तो को गर केनवस पर रोका जाता .तो शायद सबसे अलहदा रंग उनके केनवस पर होता ....."मैंने तो एक ही बार बुना था रिश्ता "लिखने वाले गुलज़ार ...एक ही रिश्ते को अलग अलग एंगल से देखते है ....
रिश्ता शायद उनके फेवरेट टोपिक है ......शायद   रिश्तो   से उनका भी कोई रिश्ता है ....... तभी रिश्तो   पर कोई भी नज़्म .....अजीब सा  पर्सनल टच देती है ....
मसलन.....तीन मिसाले .......




वक़्त वक़्त को जितना गूँध सके हम! गूँध लिया
आटे की मिक़्दार कभी बढ़ भी जाती है
भूख मगर इक हद से आगे बढ़ती नहीं
पेट के मारों की ऐसी ही आदत है-
भर जाए तो दस्तरख़्वान से उठ जाते हैं।

आओ, अब उठ जाएँ दोनों
कोई कचहरी का खूँटा दो इंसानों को
दस्तरख़्वान पे कब तक बाँध के रख सकता है
कानूनी मोहरों से कब रुकते हैं, या कटते हैं रिश्ते
रिश्ते राशन कार्ड नहीं हैं।


ख़ुदकुशी !!

बस एक लमहे का झगड़ा था....
दर-ओ-दीवार पर ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई, उड़ती हुई, जलती हुई किरचियाँ
नज़र में, बात में, लहज़े में
सोच और साँस के अंदर
लहू होना था एक रिश्ते का, सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा कर फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्ज़ें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग ना जाए
बस एक लमहे का झगड़ा था........




इस वाली नज़्म के कई टुकड़े आपके भीतर हमेशा के लिए बस जाते है .......




मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको

मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुँधलाने लगा है अब तख़य्युल* में
बदलने लग गया है अब वह सुबह शाम का मामूल
जिसमें तुझसे मिलने का भी एक मामूल** शामिल था

तेरे खत आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके
मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ
कि जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में

तेरा बे को दबा कर बात करना
वॉव पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गए देखा नहीं ना खत मिला कोई
बहुत दिन हो, गए सच्ची
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं




"सोना" ओर "बिट्टू " दो नाम भर है .पर गुलज़ार ने इन्हें सिर्फ नाम नहीं रहने दिया है ...उनकी  नज्मो के ये चेहरे है ...जिनकी सूरत जाने कितनी सूरतो से मिलती है ....जिनकी सीरत जाने कितनी सीरतो से ....मोहब्बत के जिस रंग को वे कागजो में बिखेरते है .....अजीब बात है के हर शख्स उससे इतेफाक रखता महसूस होता है .....

मुझे अफ़सोस है मुझे अफ़सोस है सोना
कि मेरी नज़्म से हो कर गुज़रते वक़्त बारिश में
परेशानी हुई तुम को

बड़े बे वक़्त आते हैं यहाँ सावन,
मेरी नज़्मों की गलियाँ यूँ भी अक्सर भीगी रहती हैं
कई गढ़ों में पानी जमा रहता है,
अगर पाँव पड़े तो मोच आ जाने का ख़तरा है।

मुझे अफ़सोस है लेकिन
परेशानी हुई होगी कि मेरी नज़्म में कुछ रौशनी कम है
गुज़रते वक़्त दहलीज़ों के पत्थर भी नहीं दिखते
कि मेरे पैरों के नाखून कितनी बार टूटे हैं
हुई मुद्दत कि चौराहे पे
अब बिजली का खंबा भी नहीं जलता
परेशानी हुई तुम को-
मुझे अफ़सोस है सचमुच।


आदमी को ....जिस तरह से वे भीतर से पकड़ते है ...लगता है रूह को कोई फ़कीर अपने हाथो से टटोल रहा है.......ओर  मय  इस्त्री उसे वापस कर रहा है ......

जिस्म मुझे मेरा जिस्म छोड़कर बह गया नदी में
अभी उसी दिन की बात है
मैं नहाने उतरा था घाट पर जब
ठिठुर रहा था-
वो छू के पानी की सर्द तहज़ीब डर गया था।

मैं सोचता था,
बग़ैर मेरे वो कैसे काटेगा तेज़ धारा
वो बहते पानी की बेरुखी जानता नहीं है।
वो डूब जाएगा-सोचता था।

अब उस किनारे पहुँच के मुझको बुला रहा है
मैं इस किनारे पे डूबता जा रहा हूँ पैहम
मैं कैसे तैरूँ बग़ैर उसके।

मुझे मेरा जिस्म छोड़कर बह गया नदी में।


सिग्नल !!!!!

होठ हिलते है भिखारी के 

सुनाई नहीं देता /

हाथ के लफ्ज़ उछालते है ,

वो कुछ बोल रहा है /

थपथपाता है हर इक कार का शीशा आकर/ 

ओर /

उजलत में है .ट्रेफिक के सिग्नल पे नज़र है

/ चेंज है तो सही/कौन इस गर्मी में ..

.अब कार का शीशा खोले/

अगले सिग्नल पे सही/ 

रोज कुछ देना जरूरी है/

खुदा राजी रहे



सिर्फ एक पोस्ट में उन्हें रोकना किसी समन्दर को हथेली में भरने जैसा है ....इसलिए उनकी  कुछ  नज्मो को यहाँ ला के रखने की कोशिश करूँगा .के शायद किसी  किताब के पन्ने से अलग कंप्यूटर के परदे पर भी ये नज्मे .....जिंदा रहे ....बरसो .धड़कती रहे....नए सेलो के साथ.....


12 सुधीजन टिपियाइन हैं:

sonal टिपियाइन कि

अगर हम गुलज़ार साहिब पर कुछ लिख पाते तो हमारा लैपटॉप भी धन्य हो गया होता
ये पोस्ट अनमोल है ,जब भी मन करेगा तो चले आयेंगे एक बार पढने से तो मन भरने से रहा

सतीश पंचम टिपियाइन कि

वाह,

इतनी बेहतरीन नज्मों को पढ़वाने के लिए शुक्रिया।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen टिपियाइन कि

सूरज को दिया दिखाने जैसा ही गुलजार साहब के मामले में कुछ बोलना. लेकिन आपका संकलन बहुत बढ़िया है, बहुत उम्दा. शब्दों से नहीं कहा जा सकता. धन्यवाद..

vandana gupta टिपियाइन कि

gulzaar sahab ki behtreen nazamein padhwane ke liye aapke shukrgujar hain.

अवनीश उनियाल 'शाकिर' टिपियाइन कि

gulzaar ji ki nazm ke har lafz main tazgi hoti hai..ye nazmain padkar man taaza ho gaya....dhanyavaad

संगीता स्वरुप ( गीत ) टिपियाइन कि

बहुत अच्छी प्रस्तुति..गुलज़ार साहब की नायब नज्में पढवाने का शुक्रिया.....पर थोडा बड़े आकार के शब्द होते तो पढने में इतनी मुश्किल ना होती

pallavi trivedi टिपियाइन कि

जितनी बार पढो गुलज़ार को....हर बार उतना ही नया एहसास होता है! बहुत उम्दा संकलन पेश किया आपने उनकी नज्मों का....

Himanshu Mohan टिपियाइन कि

जब ईर टिपियाएन,
तब बीर टिपियाएन,
फिर फत्ते टिपियाएन।
अउर हम दिया निपोर खीस…
काहे से कि नीक लगत रहा हमका…

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) टिपियाइन कि

इनके बारे मे अब क्या ही कहे.. जिन्होने लिखा है और जिनके लिये लिखा है.. दोनो ही जबरदस्त है और दोनो का ही मै एसी हू..

"इसलिए उनकी कुछ नज्मो को यहाँ ला के रखने की कोशिश करूँगा .के शायद किसी किताब के पन्ने से अलग कंप्यूटर के परदे पर भी ये नज्मे .....जिंदा रहे ....बरसो .धड़कती रहे....नए सेलो के साथ....."

आमीन!!

डॉ महेश सिन्हा टिपियाइन कि

बहुत खूब

mukti टिपियाइन कि

गुलज़ार, बस अपने से हैं उनसा कोई नहीं. गुलज़ार जब विशाल भारद्वाज से मिलते हैं तो कहीं कहानियों के गुच्छे बनते हैं, कहीं चड्ढी पहनकर फूल खिलता है, कहीं जिगर से बीडी जलती है और कहीं दिल बच्चा हो जाता है...गुलजार तो गुलजार हैं कोई उनसा नहीं.

vandana khanna टिपियाइन कि

यूं ही घूमते-घूमते इस गली में आ पहुंची, नहीं पता था के आपकी कलम के जरिये गुलजार से मिलना होगा... पहली दो लाइंस में ही लगा कि ये तो अनुराग सर हैं... और वैसा ही पाया....

लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...

आपकी टिप्पणी ?


कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !

इन रचनाओं के यहाँ होने का मतलब
अँतर्जाल एवं मुद्रण से समकालीन साहित्य के
चुने हुये अँशों का अव्यवसायिक सँकलन

(संकलक एवं योगदानकर्ता के निताँत व्यक्तिगत रूचि पर निर्भर सँग्रह !
आवश्यक नहीं, कि पाठक इसकी गुणवत्ता से सहमत ही हों )

उत्तम रचनायें सुझायें, या भेजे !

उद्घृत रचनाओं का सम्पूर्ण स्वत्वाधिकार सँबन्धित लेखको एवँ प्रकाशकों के आधीन
Creative Commons License
ThisBlog by amar4hindi is licensed under a
Creative Commons Attribution-Non-Commercial-Share Alike 2.5 India License.
Based on a works at Hindi Blogs,Writings,Publications,Translations
Permissions beyond the scope of this license may be available at http://www.amar4hindi.com

लेबल.चिप्पियाँ
>

डा. अनुराग आर्य

अभिषेक ओझा

  • सरल करें! - बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था – “अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।” यादों का ऐसा है कि क...
    2 years ago
  • तुम्हारा दिसंबर खुदा ! - मुझे तुम्हारी सोहबत पसंद थी ,तुम्हारी आँखे ,तुम्हारा काजल तुम्हारे माथे पर बिंदी,और तुम्हारी उजली हंसी। हम अक्सर वक़्त साथ गुजारते ,अक्सर इसलिए के, हम दोनो...
    4 years ago
  • मछली का नाम मार्गरेटा..!! - मछली का नाम मार्गरेटा.. यूँ तो मछली का नाम गुडिया पिंकी विमली शब्बो कुछ भी हो सकता था लेकिन मालकिन को मार्गरेटा नाम बहुत पसंद था.. मालकिन मुझे अलबत्ता झल...
    9 years ago

भाई कूश