राही मासूम रज़ा को पढ़ना अपने आप में एक तज़ुर्बा तो है, ख़ास तौर से तब जबकि उनके बयान-ए-अफ़साना का अँदाज़ टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी,आधा गाँव से बिल्कुल अलहदा हो । हालही में उनका उपन्यास ’ दिल एक सादा कागज़ पढ़ा, कई कई जगह उनके अँदाज़े-बयाँ की खूबसूरती से ठिठक गया । मन बनाया कि इसे आप सब से साझी ज़रूर करूँगा, पर वह सारे टुकड़े एक साथ यहाँ परोसना मुमकिन न होता, सो बस एक हिस्सा आपसे बाँट रहा हूँ, जिसका उन्वान है, ” जला है जिस्म जहाँ |” ( पेज़ 188 )
आदमी को यह भूलने में खासी देर लगती है कि वह एक अच्छा साहित्यकार है । काफी दिन तो यह फैसला करने ही में लग जाते है कि यह बात भूल जायी जाये या न भूली जाये ।
रफ़्फ़न भी इसी दोराहे पर था । साहित्य जरूरी है या घर का किराया ? साहित्य का महत्व ज्यादा है या राशन कार्ड का ? जिन्दगी को एक खूबसूरत नज्म, एक उदास चैपाई ज्यादा खूबसूरत बनाती है या पत्नी की एक आसूदा मुस्कुराहट ? गालिब का दीवान या धोबी का हिसाब ? लड़ाई या कम्प्रोमाइज ?
कम्प्रोमाइज ।
पर जिन्दगी और सयद अली रफअत जैदी, बागी आजमी के झगड़े में बीच-बचाव कराने वाला था कौन ।
भाई जानू ढाके में है ।
जन्नत बाजी रफअत से मिलने लन्दन गयी हुई है।
जैदी विला गाजीपुर में है ।
रामअवतार नारायणगंज में कांग्रेस कमेटी का सेक्रेटरी हो गया है ।
चन्द्रशेखर जेल में है ।
और जन्नत सामने बैठी चाय बना रही है । यह भी नहीं पूछ रही थी कि घर आने में इतनी देर क्यों हुई ।
रफ़्फ़न ने जो सिगरेट सुबह की चाय के लिए बचा रखी थी, उसे वह जलानी पड़ी ।
थक गये होंगे । जन्नत ने कहा, सो जाओ ।
उसने अपने आपमें जन्नत की तरफ देखने की हिम्मत न पायी । वह जन्नत का यह राज भांप चुका था कि उसने सपने देखना छोड़ दिया है । रूपये के साथ-साथ सपने भी सिकुड़ गये है । अब मनुष्य भविष्य के सपने नही देखता । वर्तमान के सपने देखता है । यह देखता है कि अरहर की दाल दो रूपये किलो नहीं है बल्कि रूपये की चार किलो है। यह सोचने तक की हिम्मत नहीं पड़ती कि दाल रूपये की बीस किलो या घी रूपये किलो है । बढ़ती हुई कीमतों ने आदमी को कितना यर्थाथवादी बना दिया है ।
तेज चलने लगी गुरबत में हवा
गर्द पड़ने लगी आईने पर
जागते रहने का हासिल क्या है
आओ, सा जाओ मेरे सीने पर
ख्वाब तो दोस्त नहीं है कि बदल जायेंगे।
ख्वाब तो दोस्त नहीं है,
कि हमें,
धूप में देखे तो कतरायेंगे
ख्वाब तो दोस्त नहीं है,
कि जो बिछड़ेगे तो याद आयेंगे
जागते रहने का हासिल क्या ळे
अव्वले ‘शब उसे देखा था जहां
चांद ठहरा है उसी जीने पर
आओ, सो जाओ मेरे सीने पर
जन्नत ने उसके सीने में मुंह छिपा लिया । वह बन्द आंखों से छत की तरफ देखता रहा । और जागते हाथों से जन्नत को थपकता रहा…
आओ, हम तुम चले,
नींद के गांव में
धुन्ध के ‘शहर में सारी परछाइयां सो गयी ।
इस पसीने के गहरे समुन्दर के साहिल पे टूटी हुई,
सारी अंगडाइयां सो गयीं ।
सो गये क्या ? जन्नत ने पूछा ।
नहीं । उसने जन्नत को बांहों में कस लिया । उसके बालों की महक अब भी बिल्कुल वैसी ही थी । नये-नये खिले हुए फूल की तरह ।
‘शोर कम हो गया ।
कहकहे सो गये ।
सिसकिंया सो गयीं ।
सरी सरगोशियां सो गयी ।
क्हानी नहीं बिकी तो घबराते क्यों हो । जन्नत ने कहा, मैं घर का खर्चा और कम कर लूंगी ।
रास्ते चलते-चलते घरों में समाते गये
शहर अकेला खड़ा रह गया
क्यों न हम
इस अकेले, भटकते हुए ‘शहर को।
साथ लेते चलें
नींद के गांव में
“जन्नो, मैं तो थक गया यार ।” उसने कहा “सोचता हूं…..”
जन्नत ने उसके होठों पर अपने होंठ रख दिये । बात अधूरी रह गयी ।
रात ढलने लगी
आंख जलने लगी
लफ़्ज़ खुद अपनी आवाज के बोझ से दब गये ।
तुमने सरगोशियों की रिदा ओढ़ ली
आओ,
सरगोशियों ही को,
रख्ते-सफर की तरह बांध लें
आओ,
हम-तुम चलें
नींद के गांव में
धुन्ध के ‘शहर में सारी परछाइयां खो गयी ।
जन्नत उसके होंठों पर अपने होठ रखे-रखे सो गयी थी और रफ़्फ़न अपने गालों पर उसके आसुंओं की नमी महसूस कर रहा था और जाग रहा था । जाग रहा था क्योंकि नींद नहीं आ रही थी ।
एक चुटकी नींद की मिलती नहीं
अपने जख्मों पर छिड़कने के लिए
हाय हम किस ‘शहर में मारे गये !
रफ़्फ़न ने, बड़े एहतिआत से जन्नत का सिर अपने सीने से उठाकर तकिये पर रख दिया । तकिये से उसका सीना बहुत दूर नहीं था, पर उसे लगा कि जैसे जन्नत बहुत दूर चली गयी है और वह अपने बिस्तर के लम्बे-चैड़े रेगिस्तान में अकेला खड़ा अपनी परछाइयों को ढूंढ रहा है।
जैदी विला
मिसेज नाथ्
अब्दुस्समद खां
शर्फ़ुआ
मौलवी तकी
सैदानी बी
भाई जानू
जन्नत बाजी
नारायणगंज
रामअवतार
शेखर
शायदा…………जिसने आज पहचानने से इन्कार कर दिया । आज इन्कार किया है या कल इन्कार किया था ?
रात के जगमगाते हुए शहर में
मेरी परछाइयां खो गयी है कहीं
गैर है आस्मां
अजनबी है जमीं
मैं पुकारू किसे
चल के जाउं कहाँ
रात के जगमगाते हुए ‘शहर में
खो गयी मेरी परछाइयां!
रफ़्फ़न ने जन्नत की तरफ देखा । वह बहुत खुश दिलायी दे रही थी। आंसू की सूखी हुई लकीर गाल पर थी । पर वह खुश दिखायी दे रही थी। वह शायद कोई ख्वाब देख रही थी।
जन्नत की तरफ देखते रहने की हिम्मत न पड़ी तो वह पलटकर अपनी पिछली जिन्दगी की तरफ देखने लगा ।
आखिर मैंने क्या खोया है
आखिर मैंने क्या पाया है ।
खोया तो शायद सब-कुछ है ।
पाया ‘शायद कुछ भी नहीं है ।
और तब उसे एकाएक याद आया कि आज उसकी शादी की साल-गिरह है ।
कौन सी साल-गिरह है ? पता नहीं बुरे दिनों के बरस कितने दिनों के होते है ।
वह जाग रही थी । मुस्कुरा कर उसने उसके गले में बांहें डाल दी ।
वह उस चुम्बन की अनकही, बेशब्दी जबान समझ गयी थी ।
रफफन ने जन्नत को अपनी बांहों में ले लिया ।
यार जन्नत एक बात बताओ ।
क्या बात
जो कहानी मैंने उस हरामजादे को आज सुनायी थी, वह खासी बुरी थी, पर इतनी बुरी नहीं थी कि वह सुनकर फड़क जाता ।
जन्नत ने कुछ नहीं कहा ।
मैं इससे भी ज्यादा खराब कहानी लिख सकता हूँ ।
जन्नत फिर भी कुछ नहीं बोली ।
अब तुम यह फैसला करो कि बुरी कहानियां लिखूँ या तुम्हें तलाक दे दूँ ।
मुझे तलाक दे दो ।
रफ़्फ़न ने जन्नत को भींच लिया । बिस्तर पर थोड़ी देर सन्नाटा रहा । फिर नीचे, सड़क से बसों और टकों और दूध बेचने वाले भईयों की आवाजें आने लगी नहीं । रफफन ने कहा, मैं खराब कहानियां लिखूंगा ।
बिस्तर पर फिर सन्नाटा हो गया ।
जन्नत के रोने में यही तो कमाल था कि बेआवाज रोती थी ।
स्रोत: दिल एक सादा कागज़ ( उपन्यास )
लेखक: राही मासूम रज़ा
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
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ये कहाँ आ गए हम....ब्लॉगजगत का एक कोना यह भी था जो अछूता रह गया था..भला हो डॉ अनुराग का....हमें यहाँ पहुँचाने का...
itni achhi rachna padhwane ka .... abhar, guruwar.
charcha munch par anurag bhaijee ke sojanya se yahan tak aaya...
hardik pranam.
waah ! der se aaye par aa to gaye
लाजवाब...बहुत बहुत बधाई...
बहुत अच्छे | सुन्दर | पढ़कर दिल खुश हो गया |
Tamasha-E-Zindagi
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Waaaaaah... kya baat hai... Ye kahan aa gaye hum...
लाजवाब लेखन | आभार
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