इस उद्धरण में विन्सेंट स्मिथ ने हिन्दू-धर्म और हिन्दूपन शब्दों का प्रयोग किया है । मेरी समझ में इन शब्दों का इस तरह इस्तेमाल करना ठीक नही । अगर इनका इस्तेमाल हिंदुस्तानी तह़जीब के विस्तृत मानी में किया जाय, तो दूसरी बात है । आज इन शब्दों का इस्तेमाल, जबकि ये बहुत संकुचित अर्थ में लिये जाते हैं और इनसे एक खास मजहब का ख्याल होता है, गलतफहमी पैदा कर सकता है ।
हमारे पुराने साहित्य में तो हिन्दू शब्द कहीं आता ही नहीं । मुझे बताया गया है कि इस शब्द का हवाला हमें जो किसी हिन्दूस्तानी पुस्तक में मिलता है, वह है आठवीं सदी ईसवी के एक तांत्रिक ग्रंथ में, और वहां हिंदू का मतलब किसी खास धर्म से नहीं, बल्कि खास लोगों से है । लेकिन यह जाहिर हैं कि यह लफ़्ज़ बहुत पुराना है और अवेस्ता में और पुरानी फारसी में आता है। उस समय, और उस समय से हजार साल बाद तक पश्चिमी और मध्य-एशिया के लोग इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल हिन्दुस्तान के लिए, बल्कि सिंधु नदी के इस पर बसने वाले लोगों के लिए करते थे । यह लफ़्ज़ साफ-साफ सिंधु नदी से निकला है और यह इंडस का पुराना और नया नाम है । इस सिंधु शब्द से हिंदू और हिंदुस्तान बने हैं और इंडोस और इंडिया भी। मशहूर चीनी चात्री इत्-सिंग ने, जो हिंदुस्तान में सातवीं सदी ईसवी में आया था, अपनी यात्रा के बयान में लिखा है कि उत्तर की जातियां, यानि मध्य-एशिया के लोग हिंदुस्तान को हिन्दू सीन-तु कहते हैं, लेकिन उसने यह भी लिखा है कि यह आम नाम नहीं है..... हिंदुस्तान का सबसे मुनासिब नाम आर्य-देश है ।
एक खास मजहब के माने में हिंदू शब्द का इस्तेमाल बहुत बाद का है।
हिंदुस्तान में मजहब के लिये पुराना व्यापक शब्द आर्य-शब्द था । दरअसल धर्म का अर्थ मजहब या रिलिजन से ज्यादा विस्तृत है । इसकी व्युत्पत्ति जिस धातु शब्द से हुई है, उसके मानी हैं एक साथ पकड़ना । यह किसी वस्तु की भीतरी आकृति, उसके आंतरिक जीवन के विधान के अर्थ में आता है । इसके अंदर नैतिक विधान, सदाचार और आदमी की सारी जिम्मेदारियां और कर्तव्य आ जाते है । आर्य-धर्म के भीतर वे सभी मत आ जाते हैं, जिनका आरंभ हिन्दुस्तान में हुआ है, वे मत चाहे वैदिक हो, चाहे अवैदिक । इसका व्यवहार बौद्धों और जैनों ने भी किया है । और उन लोगों ने भी, जो वेदों को मानते हैं । बुद्ध अपने बनाये मोक्ष के मार्ग को हमेशा आर्य-मार्ग कहते थे ।
हिंदुस्तान में मजहब के लिये पुराना व्यापक शब्द आर्य-शब्द था । दरअसल धर्म का अर्थ मजहब या रिलिजन से ज्यादा विस्तृत है । इसकी व्युत्पत्ति जिस धातु शब्द से हुई है, उसके मानी हैं एक साथ पकड़ना । यह किसी वस्तु की भीतरी आकृति, उसके आंतरिक जीवन के विधान के अर्थ में आता है । इसके अंदर नैतिक विधान, सदाचार और आदमी की सारी जिम्मेदारियां और कर्तव्य आ जाते है । आर्य-धर्म के भीतर वे सभी मत आ जाते हैं, जिनका आरंभ हिन्दुस्तान में हुआ है, वे मत चाहे वैदिक हो, चाहे अवैदिक । इसका व्यवहार बौद्धों और जैनों ने भी किया है । और उन लोगों ने भी, जो वेदों को मानते हैं । बुद्ध अपने बनाये मोक्ष के मार्ग को हमेशा आर्य-मार्ग कहते थे ।
पुराने जमाने में वैदिक धर्म शब्दों का इस्तेमाल खासतौर पर उन दर्शनों, नैतिक शिक्षाओं, कर्मकांड, और व्यवहार के लिए होता था, जिनके बारे में समझा जाता था कि वे वेद पर अवलंबित हैं । इस तरह से, वे सभी लोग, जो वेदों को आमतौर पर प्रमाण मानते थे, वैदिक धर्म वाले कहलाये ।
सभी कदीम हिंदुस्तानी मतों के लिये - और इनमें बुद्ध मत, और जैन मत भी शामिल है-सनातन-धर्म यानि प्राचीन धर्म का प्रयोग हो सकता है । लेकिन इस पर आजकल हिंदुओं के कुछ कट्टर दलों के एकाधिकार कर रखा हैं, जिनका दावा है कि वे इस प्राचीन मत के अनुयायी है ।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म यकीनी तौर पर हिंदू धर्म नहीं है और न वैदिक धर्म ही है । फिर भी उनकी उत्पत्ति हिंदुस्तान में ही हुई और ये हिंदुस्तानी जिंदगी, तहजीब और फ़लसफे के अंग हैं । हिंदुस्तान में बौद्ध और जैनी हिंदुस्तानी विचार-धारा और संस्कृति की सौ फीसदी उपज हैं, फिर भी इनमें से कोई भी मत के ख्याल से हिंदू नहीं है ।
सभी कदीम हिंदुस्तानी मतों के लिये - और इनमें बुद्ध मत, और जैन मत भी शामिल है-सनातन-धर्म यानि प्राचीन धर्म का प्रयोग हो सकता है । लेकिन इस पर आजकल हिंदुओं के कुछ कट्टर दलों के एकाधिकार कर रखा हैं, जिनका दावा है कि वे इस प्राचीन मत के अनुयायी है ।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म यकीनी तौर पर हिंदू धर्म नहीं है और न वैदिक धर्म ही है । फिर भी उनकी उत्पत्ति हिंदुस्तान में ही हुई और ये हिंदुस्तानी जिंदगी, तहजीब और फ़लसफे के अंग हैं । हिंदुस्तान में बौद्ध और जैनी हिंदुस्तानी विचार-धारा और संस्कृति की सौ फीसदी उपज हैं, फिर भी इनमें से कोई भी मत के ख्याल से हिंदू नहीं है ।
इसलिये हिंदुस्तानी संस्कृति को हिंदू संस्कृति कहना एक सरासर गलतफहमी फैलाने वाली बात है । बाद के वक्तों में इस संस्कृति पर इस्लाम के संपर्क का बड़ा असर पड़ा, लेकिन यह फिर भी बुनियादी तौर पर और साफ-साफ हिंदुस्तानी ही बनी रही । आज यह सैकड़ों तरीकों पर पश्चिम की व्यावसायिक सभ्यता के जोरदार असर का अनुभव कर रही है और यह ठीक-ठीक बता सकना मुश्किल है कि इसका नतीजा क्या होकर रहेगा ।
हिंदू-धर्म जहां तक कि वह एक मत है, अस्पष्ट है, इसकी कोई निष्चित रूपरेखा नहीं, इसके कई पहलू हैं और ऐसा है कि जो चाहे इसे जिस तरह का मान ले । इसकी परिभाषा दे सकना या निश्चित रूप में कह सकना कि साधारण अर्थ में वह एक मत है, कठिन है । इसकी मौजूदा शक्ल में, बल्कि बीते हुए जमाने में भी इसके भीतर बहुत से विश्वास और कर्मकाण्ड आ मिले हैं, ऊँचे से ऊँचे और गिरे से गिरे, और अकसर इनमें आपस का विरोध भी मिलता है ।
इसकी मुख्य भावना यह जान पड़ती है कि अपने को जिंदा रखो ओर दूसरे को भी जीने दो । महात्मा गांधी ने इसकी परिभाषा देने की कोशिश की है-अगर मुझसे हिंदू मत की परिभाषा देने को कहा जाय, तो मैं सिर्फ यह कहूंगा कि यह अहिंसात्मक साधनों से सत्य कीखोज है । आदमी चाहे ईश्वर में विश्वास न रखे, फिर भी वह अपने को हिंदू कह सकता है ।
हिंदू-धर्म सत्य की अनथक खोज है......... हिंदू-धर्म सत्य को मानने वाला धर्म है । सत्य ही ईश्वर है । हम इस बात से परिचित हैं कि ईश्वर से कईयों द्वारा इन्कार किया गया है । हमने सत्य से कभी इन्कार नहीं किया है । गांधी जी इसे सत्य ओर अहिंसा बताते हैं, लेकिन बहुत से प्रमुख लोग, जिनके हिंदू होने में काई संदेह नहीं, यह कह देते हैं कि अहिंसा, जैसा उसे गांधी जी समझते हैं, हिंदू मत का आवश्यक अंग नहीं हे । तो फिर हिंदू मत का अकेला सूचक चिन्ह सत्य रह जाता है । जाहिर है यह कोई परिभाषा नहीं हुई ।
इसलिस हिंदू और धर्म शब्दों का हिंदुस्तानी संस्कृति के लिए इस्तेमाल किया जाना न तो शुद्ध है और न मुनासिब ही है, चाहे इन्हें बहुत पुराने जमाने के हवाले में ही क्यों न इस्तेमाल कर रहे हों, अगरचे बहुत से विचार, जो प्राचीन ग्रन्थों में सुरक्षित हैं, इस संस्कृति के उद्गार हैं । ओर आज तो इन शब्दों का इस अर्थ में इस्तेमाल किया जाना और भी गलत है । जब तक पुराने विश्वास और फिलसफे सिर्फ जिंदगी के एक मार्ग और संसार को देखने के एक रूख के रूप थे, तब तक तो अधिकतर हिंदुस्तानी संस्कृति का पर्याय हो सकते थे । लेकिन जब एक से ज्यादा पाबंदीवाले मजहब का विकास हुआ, जिसके साथ न जाने कितने विधि विधान और कर्म-कांड लगे हुये थे, तब यह उससे कुछ आगे बढ़ी हुई चीज थी और साथ ही उस मिली-जुली संस्कृति के मुकाबले में घटकर भी थी । एक ईसाई या मुसलमान अपने को हिंदुस्तानी जिंदगी और संस्कृति के मुताबिक ढाल सकता था और अक्सर ढाल लेता था, और साथ ही जहां तक मजहब का ताल्लुक है, वह कट्टर ईसाई या मुसलमान बना रहता था । उसने अपने को हिंदुस्तानी बना लिया था और बिना अपना मजहब बदले हुये हिंदुस्तानी बन गया था ।
हिंदुस्तानी के लिए ठीक शब्द हिंदी होगा, चाहे हम उसे मुल्क के लिए, चाहे संस्कृति के लिए और चाहे अपने भिन्न परंपराओं के तारीखी सिलसिले के लिए इस्तेमाल करें। यह लफ़्ज़ हिंद से बना है, जो हिंदुस्तान का छोटा रूप है । अब भी हिंदुस्तान के लिए हिंद शब्द का आमतौर पर प्रयोग होता है । पश्चिमी एशिया के मुल्कों में, ईरान और टर्की में, इराक, अफगानिस्तान, मिस्त्र और दूसरी जगहों में, हिंदुस्तान के लिए बराबर हिंद शब्द का इस्तेमाल किया जाता है और इन सभी जगहों में हिंदुस्तानी को हिंदी कहते हैं । हिंदी का मजहब से कोई संबंध नहीं और हिंदुस्तानी मुसलमान और ईसाई उसी तरह से हिंदी है, जिस तरह कि एक हिंदू मत का मानने वाला ।
हिंदुस्तानी के लिए ठीक शब्द हिंदी होगा, चाहे हम उसे मुल्क के लिए, चाहे संस्कृति के लिए और चाहे अपने भिन्न परंपराओं के तारीखी सिलसिले के लिए इस्तेमाल करें। यह लफ़्ज़ हिंद से बना है, जो हिंदुस्तान का छोटा रूप है । अब भी हिंदुस्तान के लिए हिंद शब्द का आमतौर पर प्रयोग होता है । पश्चिमी एशिया के मुल्कों में, ईरान और टर्की में, इराक, अफगानिस्तान, मिस्त्र और दूसरी जगहों में, हिंदुस्तान के लिए बराबर हिंद शब्द का इस्तेमाल किया जाता है और इन सभी जगहों में हिंदुस्तानी को हिंदी कहते हैं । हिंदी का मजहब से कोई संबंध नहीं और हिंदुस्तानी मुसलमान और ईसाई उसी तरह से हिंदी है, जिस तरह कि एक हिंदू मत का मानने वाला ।
अमरीका के लोग जो सभी हिंदुस्तानियों को हिंदू कहते हैं, बहुत गलती नहीं करते । अगर वे हिंदी शब्द का प्रयोग करें, तो उनका प्रयोग बिलकुल ठीक होगा । दुर्भाग्य से हिंदी शब्द हिंदुस्तान में एक खास लिपि के लिए इस्तेमाल होने लगा है-यह भी संस्कृत की देवनागरी लिपि के लिए-इसलिए इसका व्यापक और स्वाभाविक अर्थ में इस्तेमाल करना कठिन हो गया है । शायद जब आजकल के मुबाह से खत्म हो लें, तो हम फिर इस शब्द का इस्तेमाल उसके मौलिक अर्थ में कर सकें और वह ज्यादा संतोषजनक होगा । आज हिंदुस्तान के रहने वाले के लिए हिंदुस्तानी शब्द का इस्तेमाल होता है और जाहिर है कि वह हिंदुस्तान से बनाया गया है, लेकिन बोलने में यह बड़ा है और इसके साथ वे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक ख्याल नहीं जुड़े हैं, जो हिंदी के साथ जुड़े है, निश्चय ही, प्राचीन काल की हिंदुस्तान की संस्कृति के लिए हिंदुस्तानी शब्द का इस्तेमाल अटपटा जान पड़ेगा ।
अपनी सांस्कृतिक परंपरा के लिए हम हिंदी या हिंदुस्तानी, जो भी इस्तेमाल करें, हम यह देखेंगे कि पुराने जमाने में समन्वय के लिए यहां एक भीतरी प्रेरणा रही है और हमारी तहजीब और कौम के विकास का आधार, खासकर हिंदुस्तान का, फिलासफियाना रूख रहा है । विदेशी तत्वों का हर हमला इस संस्कृति के लिए एक चुनौती था और उनका सामना इसने हर बार एक नये समन्वय के जरिये, उन्हें अपने में जज्ब करके किया है । इस तरीके से उसका काया-कल्प भी होता रहा है और अगरचे पृष्ठभूमि वही रही है और बुनियादी बातों में कोई खास तब्दीली नहीं हुई है ।इस समन्वय के कारण संस्कृति के नये-नये फूल खिले हैं । सी०ई०एम० जोड ने इसके बारे में लिखा है-इसकी वजह जो कुछ भी हो, वाकया यह है कि कौमों के जुदा तत्वों के समन्वय की ओर विभिन्नता से एकता पैदा करने की योग्यता और तत्परता दिखाई है ।लेखक- जवाहरलाल नेहरू
आलेख स्रोत - भारत एक खोज Discovery Of India
6 सुधीजन टिपियाइन हैं:
नेहरू की दृष्टि बहुत साफ़ है -और उन्होंने कितने सरल तरीके से एक जटिल और उलझे हुए विषय को समझाया है -यह वही कर सकता है जो गहन अध्येता हो और मनसा वाचा कर्मणा ईमानदार हो .मैं नेहरू की इसी वैचारिक साफगोई के लिए बहुत कद्र करता हूँ और उन सभी से भी जो उनके प्रशंसक हैं ! बहुत आभार !
जटिल विषय है हमारे लिए मगर आप लिखें है तो फिर से पढ़कर बतायेगे सुबह!
आप वर्ड वेरीफिकेशन लगाये अजीब से लगते हो, हटाओ इसे.
नेहरु जी के विचार परिपक्व मस्तिष्क और गहन चिन्तन का प्रतिफलन हैं । बेहद खूबसूरत विवेचना । इसे ही याद रखना चाहता हूँ - "हिंदू-धर्म सत्य की अनथक खोज है......... हिंदू-धर्म सत्य को मानने वाला धर्म है ।"
आप ही हैं न डाक्टर साहब?.. टेम्पलेटवा और बाकि साज-सज्जा देख कर यही लगता है आप ही होंगे ...आपको नए ब्लॉग में, नए विषय पर लिखते देखना अच्छा लगा ..हाजरी लगा लीजिये आज की.
मेरे ख्याल से हिन्दू हिन्दुस्तान की जीवनशैली मानी जा सकती है .. क्यूंकि इसके सारे पर्व त्यौहार और रीति रिवाज पूरे हिन्दुस्तान के लिए नहीं .. तो खासकर उत्तर भारत के लिए अभी भी आवश्यक दिखता है !!
धर्म के सन्दर्भ में यहाँ देखें
धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !