कुछ दिनों पहले डा० महेश परिमल की एक पोस्ट पढ़ी थी.. उन्होंनें एक विचारोत्तेजक और ज़ायज़ मुद्दा उठाया था । सरकार व जनसाधारण की बात तो दूर.. ब्लागर पर ही उनकी बात दब कर रह गयी । कई दिनों के प्रयास के बाद लिंक मिल पाया है । देखिये तो..
बच्चों को समय से पहले बड़ा बना रहे हैं धारावाहिक – डा. महेश परिमल
उस दिन टीवी पर प्रसारित होने वाले बच्चों के धारावाहिकों की सूची देख रहा था, तब यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आजकल बच्चोें के लिए टीवी पर ऐसा कुछ भी देखने लायक नहीं है, जिससे उनके मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान भी बढ़े. आजकल जो कुछ भी बच्चों के नाम पर टीवी पर परोसा जा रहा है, उससे लगता है कि एक साजिश के तहत बच्चों को 'ग्लोबल इंडियन ' बनाया जा रहा है. यह एक खतरनाक सच्चाई है, जिसे आज के पालक भले ही समझें, पर सच तो यह है कि आगे चलकर यह निश्चित रूप से समाज के लिए एक पीड़ादायी स्थिति का निर्माण होगा, जिसमें बच्चे केवल बच्चे बनकर नहीं रह पाएँगे, बल्कि उनका व्यवहार ऐसा होगा, जिससे लगेगा कि वे समय से पहले ही बड़े हो गए हैं, उनका बचपन तो पहले ही मारा जा चुका है.
अब ंजरा बच्चों के उन धारावाहिक के नाम ही पढ़ लें,जो उन्हें भा रहे हैं. उस दिन एक बच्चे से उन धारावाहिकों के नाम सुने, वह बता रहा था कि उसे तो ड्रेगन फ्राम ओटावा, हाफ टिकट एक्सप्रेस, मिकी माऊस प्ले हाऊस, शीनचिन, गली-गली सिमसिम, मैड (म्युजिक, आर्ट, डांस), कार्टून नेटवर्क की दुनिया आदि धारावाहिक अच्छे लगते हैं. कभी आपको फुरसत मिले, तो इनमें से कोई एक धारावाहिक देखने की जहमत उठा लीजिए. आपको पता चल जाएगा कि विदेशी पृष्टभूमि पर आधारित इन धारावाहिकों के पात्र बोलते तो हिंदी ही हैं, पर कभी-कभी कुछ ऐसा कह जाते हैं, जो उनके क्या पालकों के भी पल्ले नहीं पड़ता. ऐसे में लगता है कि ये सब क्या हो रहा है? क्या यह सब पालकों की मर्जी से हो रहा है या फिर अनजाने में ही सब कुछ हो रहा है और पालकों को पता ही नहीं है.
अधिक समय नहीं हुआ है, अभी दस वर्ष पहले ही बच्चों को सामने रखकर कई धारावाहिकों का प्रसारण विभिन्न चैनलों पर हो रहा था. पोटली बाबा की, अलीफ लैला, सिंदबाद की कहानियाँ, वेताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, विक्रम और वेताल, तेनाली राम, कैप्टन व्योम, मालगुड़ी डेज, कैप्टन हाऊस, दादा-दादी की कहानियाँ, जंगल बुक पर आधारित मोगली का धारावाहिक ये सब ऐसे कार्यक्रम थे, जिनसे बच्चों को न केवल भारतीय संस्कृति से परिचित कराते थे, बल्कि काफी हद तक उसका पोषण भी करते थे. पर अब वह बात नहीं रही. अब तो सारे कार्यक्रमों पर व्यावसायिकता हावी हो गई है. अब तो बच्चों को वह सब कुछ दिखाया जा रहा है, जिससे केवल कंपनियों को ही लाभ हो. बच्चे क्या चाहते हैं, इसे जानने की फुरसत किसी के पास नहीं है. जो बड़े चाहते हैं, बच्चे वही देख रहे हैं.
बच्चों के धारावाहिकों के संबंध में इंडियन चिल्ड्रंस सोसायटी की चेयरमेन नफीसा अली का कहना है कि आजकल बच्चों को धारावाहिकों के रूप में जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह कमोबेश अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों के डब संस्करण हैं. यह एक चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि इन कार्यक्रमों की सांस्कृतिक भूमिका हमारे देश के बच्चों की सामान्य समझ से मेल नहीं खाती. दूसरी ओर यू टीवी की वाइज प्रेसीडेंट मनीषा सिंह कहती हैं कि हम यदि कोई कार्यक्रम आयात करते हैं,तो उसमें से भारतीय संस्कृति और सामाजिक स्तर पर उचित न लगने वाले भाग को हम काट देते हैं. लेकिन उनका यह दावा कितना उचित है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी बच्चे इन धारावाहिकों से वह सब कुछ सीख रहे हैं, जिसे उन्हें कुछ वर्ष बाद जानना है. आज बच्चों को बड़ों की बातें धारावाहिकों के माध्यम से बताई जा रही हैं. बच्चे इसे देखकर समय से पहले ही बड़ों की बातें न केवल समझ रहे हैं, बल्कि उसे अमल में भी ला रहे हैं.
अभी तक बच्चों के लिए कोई ऐसा चैनल तैयार नहीं किया गया है, जिससे भारतीय संस्कृति का पोषण होता हो. इस दिशा में पोगो के माध्यम से दिन भर बच्चोें से जुड़ी जानकारियों का प्रसारण होता रहता है, पर उसमें काफी कुछ आयातित और भारतीय संस्कृति से अलहदा होता है. कहीं-कहीं हल्की सी झलक अवश्य मिलती है, पर उसे ऊँट के मँह में जीरा ही कहा जा सकता है. बच्चों पर आज के धारावाहिक किस तरह से हावी हो रहे हैं, यह तो बच्चों के व्यवहार से ही पता चलता है. आज उनके आदर्श बदल गए हैं. अब वे सामान्य बच्चों से हटकर सोचते हैं. पर उनकी सोच के पीछे अपराध की एक दुनिया होती है. आज कई बच्चे इन्हीं धारावाहिकों से प्रेरणा लेकर अपने विचार को गलत दिशा दे रहे हैं.
बचपन में पढ़ी गई गीजू भाई की बाल कहानियाँ और चीनी लेखिका का बच्चों की मानसिकता को लेकर किया गया सफल प्रयास तोतो चान आज पुस्तकालयों में धूल खा रहीं हैं. बच्चों की कल्पनाशीलता में इन कहानियों के पात्र नहीं उभरते. चाँद पर रहती परियों के बजाए अब उनके मस्तिष्क को अंतरिक्ष की दुनिया में ले जाने वाले आयातित धारावाहिकों के पात्र प्रभावित करने लगे हैं. ऐसे में आवश्यकता है ऐसे धारावाहिकों की, जो बच्चों को उनके वास्तविक संसार से परिचित कराए, उनके बचपन को सींचे, उनकी कल्पनाओं को ऊँची उड़ान दे और उनकी कोमल भावनाओं को एक ऐसा आकार दे, जिससे वे वास्तव में बच्चे बनकर बच्चों का जीवन जी सकें. क्या है हमारी सरकार में ऐसा साहस? यदि इस दिशा में सरकार ही एक कदम बढ़ाए, तो एक नहीं गुलजार, अमोल पालेकर, सईद मिर्जा, सई परांजपे जैसी कई हस्तियाँ सामने आ जाएँगी और वे बनाएँगी बच्चों की ऐसी दुनिया, जिसमें बच्चे अपना भारतीय बचपन जी सकें.
अब ंजरा बच्चों के उन धारावाहिक के नाम ही पढ़ लें,जो उन्हें भा रहे हैं. उस दिन एक बच्चे से उन धारावाहिकों के नाम सुने, वह बता रहा था कि उसे तो ड्रेगन फ्राम ओटावा, हाफ टिकट एक्सप्रेस, मिकी माऊस प्ले हाऊस, शीनचिन, गली-गली सिमसिम, मैड (म्युजिक, आर्ट, डांस), कार्टून नेटवर्क की दुनिया आदि धारावाहिक अच्छे लगते हैं. कभी आपको फुरसत मिले, तो इनमें से कोई एक धारावाहिक देखने की जहमत उठा लीजिए. आपको पता चल जाएगा कि विदेशी पृष्टभूमि पर आधारित इन धारावाहिकों के पात्र बोलते तो हिंदी ही हैं, पर कभी-कभी कुछ ऐसा कह जाते हैं, जो उनके क्या पालकों के भी पल्ले नहीं पड़ता. ऐसे में लगता है कि ये सब क्या हो रहा है? क्या यह सब पालकों की मर्जी से हो रहा है या फिर अनजाने में ही सब कुछ हो रहा है और पालकों को पता ही नहीं है.
अधिक समय नहीं हुआ है, अभी दस वर्ष पहले ही बच्चों को सामने रखकर कई धारावाहिकों का प्रसारण विभिन्न चैनलों पर हो रहा था. पोटली बाबा की, अलीफ लैला, सिंदबाद की कहानियाँ, वेताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, विक्रम और वेताल, तेनाली राम, कैप्टन व्योम, मालगुड़ी डेज, कैप्टन हाऊस, दादा-दादी की कहानियाँ, जंगल बुक पर आधारित मोगली का धारावाहिक ये सब ऐसे कार्यक्रम थे, जिनसे बच्चों को न केवल भारतीय संस्कृति से परिचित कराते थे, बल्कि काफी हद तक उसका पोषण भी करते थे. पर अब वह बात नहीं रही. अब तो सारे कार्यक्रमों पर व्यावसायिकता हावी हो गई है. अब तो बच्चों को वह सब कुछ दिखाया जा रहा है, जिससे केवल कंपनियों को ही लाभ हो. बच्चे क्या चाहते हैं, इसे जानने की फुरसत किसी के पास नहीं है. जो बड़े चाहते हैं, बच्चे वही देख रहे हैं.
बच्चों के धारावाहिकों के संबंध में इंडियन चिल्ड्रंस सोसायटी की चेयरमेन नफीसा अली का कहना है कि आजकल बच्चों को धारावाहिकों के रूप में जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह कमोबेश अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों के डब संस्करण हैं. यह एक चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि इन कार्यक्रमों की सांस्कृतिक भूमिका हमारे देश के बच्चों की सामान्य समझ से मेल नहीं खाती. दूसरी ओर यू टीवी की वाइज प्रेसीडेंट मनीषा सिंह कहती हैं कि हम यदि कोई कार्यक्रम आयात करते हैं,तो उसमें से भारतीय संस्कृति और सामाजिक स्तर पर उचित न लगने वाले भाग को हम काट देते हैं. लेकिन उनका यह दावा कितना उचित है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी बच्चे इन धारावाहिकों से वह सब कुछ सीख रहे हैं, जिसे उन्हें कुछ वर्ष बाद जानना है. आज बच्चों को बड़ों की बातें धारावाहिकों के माध्यम से बताई जा रही हैं. बच्चे इसे देखकर समय से पहले ही बड़ों की बातें न केवल समझ रहे हैं, बल्कि उसे अमल में भी ला रहे हैं.
अभी तक बच्चों के लिए कोई ऐसा चैनल तैयार नहीं किया गया है, जिससे भारतीय संस्कृति का पोषण होता हो. इस दिशा में पोगो के माध्यम से दिन भर बच्चोें से जुड़ी जानकारियों का प्रसारण होता रहता है, पर उसमें काफी कुछ आयातित और भारतीय संस्कृति से अलहदा होता है. कहीं-कहीं हल्की सी झलक अवश्य मिलती है, पर उसे ऊँट के मँह में जीरा ही कहा जा सकता है. बच्चों पर आज के धारावाहिक किस तरह से हावी हो रहे हैं, यह तो बच्चों के व्यवहार से ही पता चलता है. आज उनके आदर्श बदल गए हैं. अब वे सामान्य बच्चों से हटकर सोचते हैं. पर उनकी सोच के पीछे अपराध की एक दुनिया होती है. आज कई बच्चे इन्हीं धारावाहिकों से प्रेरणा लेकर अपने विचार को गलत दिशा दे रहे हैं.
बचपन में पढ़ी गई गीजू भाई की बाल कहानियाँ और चीनी लेखिका का बच्चों की मानसिकता को लेकर किया गया सफल प्रयास तोतो चान आज पुस्तकालयों में धूल खा रहीं हैं. बच्चों की कल्पनाशीलता में इन कहानियों के पात्र नहीं उभरते. चाँद पर रहती परियों के बजाए अब उनके मस्तिष्क को अंतरिक्ष की दुनिया में ले जाने वाले आयातित धारावाहिकों के पात्र प्रभावित करने लगे हैं. ऐसे में आवश्यकता है ऐसे धारावाहिकों की, जो बच्चों को उनके वास्तविक संसार से परिचित कराए, उनके बचपन को सींचे, उनकी कल्पनाओं को ऊँची उड़ान दे और उनकी कोमल भावनाओं को एक ऐसा आकार दे, जिससे वे वास्तव में बच्चे बनकर बच्चों का जीवन जी सकें. क्या है हमारी सरकार में ऐसा साहस? यदि इस दिशा में सरकार ही एक कदम बढ़ाए, तो एक नहीं गुलजार, अमोल पालेकर, सईद मिर्जा, सई परांजपे जैसी कई हस्तियाँ सामने आ जाएँगी और वे बनाएँगी बच्चों की ऐसी दुनिया, जिसमें बच्चे अपना भारतीय बचपन जी सकें.
एक और पोस्ट जो मैं आपसे साझा करना चाहूँगा : मेरा [V] महान बनाम एकता कपूर अवश्य पढ़िये
8 सुधीजन टिपियाइन हैं:
बहुत ही सटीक विचारणीय सार्थक पोस्ट. आभार.
टीवी का नाम 'बुद्धू बक्सा' किसी ने सोच कर ही रखा था, तभी तो ये बुद्धू बनाने वाले अतार्किक प्रोग्राम लगातार आये जा रहे हैं। और हम बुद्धू बने जा रहे हैं।
अच्छी पोस्ट।
Dr amar
The so called program for children are worse . they are dubbed in hindi and the kids enjoy them but they have no essence what so ever . most of them are based on teenage love stories
चैनल चलाने वालों न ये चैनल नोट छापने के लिए खोल रखे हैं. इनका ईमान-धर्म केवल पैसा कमाना है. सस्ते या मुफ़्त में इन्हें कुछ भी मिल जाए, चला देंगे...इसके अलावा इन्हें किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं दीखता. कहीं सरकार ने कुछ सोच भी लिया तो प्रेस की आज़ादी के नाम पर चिल्ला का गला बैठा लेते हैं...एेसे में बच्चों की सुध कौन ले !
हाँ ,पते की बात !
हमारे घर के बच्चो का भी यही हाल है.. मेरे कमरे में घुसते ही मेरा भतीजा आकर कहता है.. हैंड्स अप.. और जब में उस से बन्दूक छीन लेता हूँ तो वो कहता है मेरा तो प्लान ही चौपट हो गया.. अभी वो क्लास फर्स्ट में आया है.. गुलज़ार साहब और साईं परांजपे जैसे नाम वाकई बहुत कुछ कर सकते है.. लेकिन सवाल ये है कि उन्हें साधन मुहैया कैसे कराये जाए..
वाकई एक विचारोतेजक पोस्ट है .....ओर बाजारवादी ताकतों की मीठी नींद में डूबी हुई मीडिया के लिए एक अलार्म भी.
बहुत अच्छी पहल है यह। हिन्दी ब्लॉगजगत में चिठ्ठो की भीड़ तो बढ़ रही है लेकिन, कदाचित् इसीलिए, अब सार्थक आलेख पाने के लिए बहुत समय और श्रम खर्च करना पड़ रहा है। ऐसे में आपके प्रयास से काफी सहूलियत हो जाएगी।
आपका यह प्रयास बहुतों के लिए अत्यन्त उपयोगी साबित होगा। बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद।
लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...
कुछ भी.., कैसा भी...बस, यूँ ही ?
ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !