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छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

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31 August 2009

हमारी अपनी ज़बान की साठवीं बरसी

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हमारी हिंदी, जिसे हम इतना प्यार करते हैं अपंग है, वह जन्म से विकलांग नहीं थी लेकिन उसका अंग-भंग कर दिया गया. वह बहुत बड़ी सियासत का शिकार हुई, अभी वह बड़ी हो ही रही थी कि 1947 में उसके हाथ-पैर काटके उसे भीख माँगने के लिए बिठा दिया गया. करोड़ों लोगों की भाषा क्या हो, कैसी हो, उसमें काम किस तरह किया जाए, इसका फ़ैसला रातोरात दफ़्तरों में होने लगा.राजभाषा विभाग बना और लोग उस अपंग की कमाई खाने लगे जिसका नाम हिंदी है. ऐसा दुनिया में...
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30 August 2009

क्यों नाराज़ है, यह शायर ?

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आइये फ़र्ज़ करें कि, अडवानी  प्रधानमन्त्री  बन  ही  जाते । तो, इस दौर के एक विवादित राजनीतिज्ञ निश्चय ही कबिनेट को सुशोभित कर रहे होते । अल्ला अल्ला ख़ैर सल्ला तीन साल तो निकाल ही लेते । फिर उनकी किताब आती या न आती, कौन जानता है ? यह न हुआ, और किताब आ भी गयी और अपुन का इन्डिया में भूचाल आ गया । वह पार्टी बदर किये गये, मानों ...
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28 August 2009

पुनर्जन्म चक्र पर एक चिंतन : गांधीजी के परिप्रेक्ष्य में

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जो कभी हुआ करता, अपना इन्डिया

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यद्यपि इन सँकलित चित्रों का ब्लागपोस्ट से कोई सरोकार नहीं है, फिर भी इन्हें एक स्थान पर सँजो रखने की गरज़ से बटोरा है । यदि हमारी अपनी पीढ़ी को यह चित्र विचित्र किन्तु सत्य लग सकते हैं, तो आने वाले कई दशकों के बाद इन्हें देखना रोमाचँक कम लोमहर्षक अधिक होगा । क्या पता, अपने विनाश का ताना बाना बुन रही हमारी सभ्यता इन चित्रों को साबूत रहने भी...
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25 August 2009

एक और रात - गुलजार

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सदाबहार ग़ुलज़ार का 75 वाँ जन्मदिन 18 अगस्त को चुपचाप आकर निकल भी गया । कोई शोर नहीं, कोई हलचल नहीं !  मैं उनके लिये कुछ लिखना चाहता था, लेकिन हज़ार चेहरों वाले ग़ुलज़ार के लिये लिखने का मेरा क़द नहीं, बल्कि ईमानदारी से कहूँ कि ड्राफ़्ट को लगभग पाँच दफ़े सुधारने के बाद भी लगता रहा कि “ समपूरन सिंह ग़ुलज़ार “ के लिये मेरी शब्दानुभूति बहुत बौनी...
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23 August 2009

ब्लागपोस्ट की पहेली ?

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पिछले हफ़्ते, मैंने ( अपनी समझ के अनुसार ) एक  अच्छी पोस्ट सहेजी,  और लिंक व लेखक का नाम न देकर इसे पहेली का रूप दे दिया । यह एक तरह से ख़ुराफ़ात ही कहा जायेगा । लोगों ने सोचा होगा, एक  निट्ठल्ला  बैठे  ठाले  ब्लागजगत  में  अपनी  उलटबाँसी  ठोंक  रहा है । बिल्कुल वाज़िब बात, आख़िर  क्या  ज़रूरत  है  ऎसे  ब्लागपोस्टों  को सहेजने की... उस पर भी शीर्षक...
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15 August 2009

भारतीय सँस्कृति और इससे जुड़ी एक पहेली

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जबसे इस ब्लाग की परिकल्पना बनी, तभी से एक पोस्ट मन में बार बार घुमड़ रहा था ।  शायद        अक्टूबर 2007 के आस पास पढ़े  गये  इस पोस्ट का कन्टेन्ट तो मोटा मोटी  याद था, शीर्षक याद आये तो  लिंक  टटोलूँ ! मेरे  कम्प्यूटरों  में  कितने  हार्ड  डिस्क  आये  और  चले  भी गये । लिंक क्या रक्खा रहता ? उसका न मिलना जैसे एक अपरिहार्य...
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14 August 2009

तूफ़ान को पहचानने में इतने असमर्थ

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श्री प्रियरँजन जी राँची से हैं, और पेशे से पत्रकार हैं । वह उदयकेशरी जी के ब्लाग सीधी बात ( Dare to say truth ) पर यदा कदा पोस्ट भी देते रहते हैं । जून 2008 में उनकी एक पोस्ट रिंगटोन का बाज़ार और संस्कृति एक साथ कई प्रश्न उठाती है । किंवा किसी पाठक को उनकी बात को आगे बढ़ाने का साहस न हुआ होगा । पर स्थियाँ जस की तस तो क्या हैं, बल्कि बद से बदतर ही होती जा रही हैं, जरा देखिये तो “ बरसों पहले मैंने एक कहानी लिखी थी ‘अजनबीपन’ -...
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12 August 2009

राष्ट्रकवि और ठेठ हिन्दी के ठाठ

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-हिंदुस्तान 7 मार्च, 1956 पहला पेज दो कालम की खबर है, जिसमें प्रख्यात कवि मैथिलीशरण गुप्त ने कवितामय अंदाज में बजट से जुड़े सवाल पूछे हैं- –आह कराह न उठने दे जो शल्य वैद्य है वही समर्थ—राष्ट्रकवि की दृष्टि में बजट- हमारे संवाददाता द्वारा नई दिल्ली 6 मार्च, राज्य सभा में साधारण बजट पर चर्चा में भाग लेते हुए राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने निम्नलिखित कविता पढ़ी- धन्यवाद हे धन मंत्री को करें चाय सुख से प्रस्थान, ...
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9 August 2009

बच्चे.. जो बच्चे न रह पायेंगे

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कुछ दिनों पहले डा० महेश परिमल की एक पोस्ट पढ़ी थी.. उन्होंनें एक विचारोत्तेजक और ज़ायज़ मुद्दा उठाया था । सरकार व जनसाधारण की बात तो दूर.. ब्लागर पर ही उनकी बात दब कर रह गयी । कई दिनों के प्रयास के बाद लिंक मिल पाया है । देखिये तो..बच्चों को समय से पहले बड़ा बना रहे हैं धारावाहिक – डा. महेश परिमल उस दिन टीवी पर प्रसारित होने वाले बच्चों के धारावाहिकों...
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8 August 2009

भारतीय कुत्ते

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आज नीरज जी की एक पुरानी पोस्ट पढ़ने को मिला । यूँ देखें तो कुछ ख़ास नहीं, पर सैटायर या हासपरिहास लेखन में सटीकता की दृष्टि से यह साझा करने का मन हुआ । प्रस्तुत है, एक अँश ; “ और अगर आपको हमारे देश के आवारा कुत्तों की काबिलियत पे शक है, तो दोबारा सोचिये. या रहने दीजिये शायद आप समझ नहीं पायेंगे. वो जूनून जो उनके भीतर है, अगर आपने कभी देखा नहीं है तो मैं आपको बताता हूँ. वो उनका सड़क के किनारे दूर से आते किसी स्कूटर का इन्तेजार...
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4 August 2009

हिन्दू धर्म क्या है ?

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इस उद्धरण में विन्सेंट स्मिथ ने हिन्दू-धर्म और हिन्दूपन शब्दों का प्रयोग किया है । मेरी समझ में इन शब्दों का इस तरह इस्तेमाल करना ठीक नही । अगर इनका इस्तेमाल हिंदुस्तानी तह़जीब के विस्तृत मानी में किया जाय, तो दूसरी बात है । आज इन शब्दों का इस्तेमाल, जबकि ये बहुत संकुचित अर्थ में लिये जाते हैं और इनसे एक खास मजहब का ख्याल होता है, गलतफहमी पैदा कर सकता है । हमारे पुराने साहित्य में तो हिन्दू शब्द कहीं आता ही नहीं । मुझे बताया...
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इन रचनाओं के यहाँ होने का मतलब
अँतर्जाल एवं मुद्रण से समकालीन साहित्य के
चुने हुये अँशों का अव्यवसायिक सँकलन

(संकलक एवं योगदानकर्ता के निताँत व्यक्तिगत रूचि पर निर्भर सँग्रह !
आवश्यक नहीं, कि पाठक इसकी गुणवत्ता से सहमत ही हों )

उत्तम रचनायें सुझायें, या भेजे !

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अँतर्जाल पर अतिथि पोस्ट अभिषेक इतिहास खलील ज़िब्रान गांधीजी चित्र वीथिका जवाहरलाल नेहरू तर्क विवेचन परमाणु प्रकृति प्रो. ए.पी.जे.कलाम बुनो कहानी भारत एक खोज मजहब मीमाँसा मुद्र्ण से.. मुर्दा क्यूँ यह मुद्दे ? यौन शोषण विद्रूपता का सच विविधा व्यँग्य सत्ता व्यवस्था की धमक साथियों की कलम ग़ुलज़ार

डा. अनुराग आर्य

अभिषेक ओझा

  • तुम्हारे लिए - मैं उसकी हंसी से ज्यादा उसके गाल पर पड़े डिम्पल को पसंद करता हूँ । हर सुबह थोड़े वक्फे मैं वहां ठहरना चाहता हूँ । हंसी उसे फबती है जैसे व्हाइट रंग । हाँ व्...
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  • कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क - सामाजिक विज्ञान को विज्ञान की उपाधि जरूर किसी ऐसे व्यक्ति ने दी होगी जिसे लगा होगा कि विज्ञान को विज्ञान कहना *डिस्क्रिमिनेशन* हो चला है। विज्ञान और तार्...
    5 years ago
  • मछली का नाम मार्गरेटा..!! - मछली का नाम मार्गरेटा.. यूँ तो मछली का नाम गुडिया पिंकी विमली शब्बो कुछ भी हो सकता था लेकिन मालकिन को मार्गरेटा नाम बहुत पसंद था.. मालकिन मुझे अलबत्ता झल...
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भाई कूश