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छितरी इधर उधर वो शाश्वत चमक लिये
देखी जब रेत पर बिखरी अनाम सीपियाँ
मचलता मन इन्हें बटोर रख छोड़ने को
न जाने यह हैं किसका इतिहास समेटे

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23 August 2009

ब्लागपोस्ट की पहेली ?

Technorati icon

पिछले हफ़्ते, मैंने ( अपनी समझ के अनुसार ) एक  अच्छी पोस्ट सहेजी,  और लिंक व लेखक का नाम न देकर इसे पहेली का रूप दे दिया । यह एक तरह से ख़ुराफ़ात ही कहा जायेगा ।

लोगों ने सोचा होगा, एक  निट्ठल्ला  बैठे  ठाले  ब्लागजगत  में  अपनी  उलटबाँसी  ठोंक  रहा है । बिल्कुल वाज़िब बात, आख़िर  क्या  ज़रूरत  है  ऎसे  ब्लागपोस्टों  को सहेजने की... उस पर भी शीर्षक ? वह भी तब.. जबकि हर कोई यहाँ बिज़ी है, या कम से कम ’बिज़ी’ दिखना चाहता है । ज़ाहिर है, जैसा सोचा था, वह न हुआ । यह बेचारी पोस्ट अपने स्वयँवर के लिये अभी तक प्रतीक्षारत है । कुल ज़मा 6 अभ्यर्थी, उसमें भी एक की तो इससे रिश्तेदारी ही निकल आयी । बेचारे खुद ही शर्मा कर चले गये ।

पहेलियों पर टूट पड़ने वाली जनता भी सनाका मार गयी । शायद कोरल-ड्रा या फोटोशॉप से बनाये गये सम्मानपत्र की प्रत्याशा यहाँ न थी, यह भी एक कारण हो सकता है । पर यह तो साफ हो गया, यह पोस्ट या तो किसी की जानकारी में न रही हो, या  यह  विस्मृति  की  शिकार  हो  गयी  हो । बहुतों ने शायद पढ़ा ही न हो ?  तो.. यह थी निट्ठल्ले की उलटबाँसी ! वह दूसरों के लिखे पुराने पोस्ट याद रखना चाहता है.. और वर्तमान का बेहतरीन भी कहीं और सहेज रहा है ।

निट्ठल्ला यूँ कि, अपनी पोस्टों में मज़ाहिया अँदाज़ और बेतक्कलुफ़ लफ़्ज़ों की दख़लअँदाज़ी के चलते,  सहज ही ब्लागजगत में एक ’ क्लाउन-स्टेटस’ पा लिया । इस हद तक कि एक बार एक अहम मसले पर भेजे गये मेल के ज़वाब में हिन्दी की अलमबदार विद्वान लेखिका ने मुझसे उल्टे  पूछ ही लिया, " आर यू किडिंग ? इट इज़ हार्ड टू बिलीव ।  प्लीज़ रिप्लाई सून, सो दैट आई शैल पुट इट इन माई चिट्ठाचर्चा । " लीजिये ज़नाब, गोया दुनिया में जो भी दिखता है, सब सच ही होता होगा ?

उलटबाँसी इस करके कि, इस बस्ती में सभी अपनी सुनाना चाहते हैं, दूसरों को सुनना कम पसँद करते हैं.. याकि समय नहीं होता गोकि सभी तो ’बिज़ी’ ठहरे ! तक़रीबन हर ब्लागर के मेल इनबाक्स में इस  समय  भी  एक  न  एक  न्यौता  पड़ा  होगा, कभी  हमारे ब्लाग पर भी घूम जाइये.. " चाँद , मैं और श्मशान में रोता एक खजुहा कुत्ता " , ज़रूर  आइयेगा । क्योंकि न्यौते भेजे जाते हैं..तो ऎसे न्यौते पूरे भी किये जाते हैं । इस बिन्दु पर कहीं न कहीं फँसने की सँभावनायें अवश्य दिखतीं होंगी,क्योंकि लोग फँस भी जाते हैं । जाने वाला अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाने को ’नेग-व्यौहार’ स्वरूप वहाँ कुछ शब्द भी टँकित कर आता है, क्योंकि  इससे  व्यवहार  बनता  है । व्यवहार  बनाने  और  बनाये  रखने  वाले व्यवहारकुशल कहलाते हैं । कुल ज़मा प्रश्न यह कि,क्या ब्लागिंग केवल व्यवहारकुशलता पर ही टिकी है ? यहाँ बेहतर.. और बेहतर, बेहतरीन की पुकार किधर गयी ? हिन्दी ब्लागलेखन में केवल कचरा ही भरा पड़ा है, की धिक्कार ही क्यों छायी हुई है ?

यथासँभव कहीं ऎसी स्मृतिलोप के भय की वज़ह से ही तो नहीं , तात्कालिक  रूप  से  लोकप्रिय  होने वाला लेखन  एक चलन बनता जा रहा है ? याकि वक्ताओं के नित जुड़ने वाले इस समूह में, अध्येता अपने अल्पसँख्यक होते जाने से पलायन कर रहे हों ? फुरसतिया जैसे बिरले ही होंगे, जो कि टिके हुये हैं । अभी हाल में ही उन्होंने ब्लागिंग में अपनी उम्रकैद के पाँच वर्ष पूरे होने पर खुशी जतायी है । समीर भाई भी अपने लिखने और दूसरों को पढ़ने  में 1:10 का मानक मानते हैं । हममें से कितने जन इस सूत्र का आदर करते होंगे ? ब्लागलेखन के शैशवास्था में रखे रहने का युग कब तक रहेगा ? याकि यह शैशवास्था ब्लागजगत में एक और कलयुग उपस्थित होने की अन्यन्त्र-स्थिति ( Alibi ) है ?

शीर्षक या लेखक को पहचानने के लिये रखी गयी, यह  सँदर्भित  पोस्ट  तो  हिन्दी  ब्लागिंग  के  प्रारँभिक दिनों की है, फिर ?  अभी अभी फुरसतिया का जिक्र हुआ है, तो चलिये ऎसी धीर-गँभीर सारगर्भित पोस्ट लिखने का ठीकरा उन्हीं के सिर पर फोड़ते हैं ।
आयोजन : अनुगूँज
प्रकाशित : 14 नवम्बर 2004
प्रकाशन स्थल : http://fursatiya.blogspot.com
पोस्ट शीर्षक : भारतीय सँस्कृति क्या है
लेखक : श्री अनूप शुक्ल

और हाँ, सदा की भाँति पोस्ट के अँत में उन्होंने अपनी पसँद भी दी है, वह रही जा रही थी ।
मेरी पसंद
आधे रोते हैं ,आधे हंसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं
कृपा है ,महाकाल की
आधे मानते हैं,आधा
होना उतना ही
सार्थक है,जितना पूरा होना,
आधों का दावा है,उतना ही
निरर्थक है पूरा
होना,जितना आधा होना
आधे निरुत्तर हैं,आधे बहसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं
कृपा है ,महाकाल की
आधे कहते हैं अवन्ती
उसी तरह आधी है
जिस तरह काशी,
आधे का कहना है
दोनों में रहते हैं
केवल प्रवासी
दोनों तर्कजाल में फंसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं
हंसते हैं
काशी के पण्डित अवन्ती के ज्ञान पर
अवन्ती के लोग काशी के अनुमान पर
कृपा है ,महाकाल की.

--श्रीकान्त वर्मा

3 सुधीजन टिपियाइन हैं:

Udan Tashtari टिपियाइन कि

माफी चाहेंगे, हम तो वो पोस्ट देखे नहीं पाये. जाने कैसे सटक ली. :)

L.Goswami टिपियाइन कि

तब हम नही थे यहाँ ..वैसे कई ब्लोगरों की पुरानी पोस्टें पढ़ चुके हैं एक अनूप जी की ही बाकि बच रही है. वह भी पढ़ा जायेगा फुर्सत से बैठकर.

डॉ .अनुराग टिपियाइन कि

हम तो खैर पिछले दो सालो से ही इस आँगन में खेलना कूदना शुरू किये है .पर आज आपकी पोस्ट ने बड़े वाजिब सवाल उठा दिए है जीना फौरी टिप्पणी से जवाब देना ठीक नहीं होगा ...पर एक बात कहूँगा आपकी ज्यादा तर शंकाए ठीक है ...हिंदी ब्लॉग जगत अभी "टिप्पणी मोह" ओर आपसी मोहब्बत से ऊपर नहीं उठ पा रहा है ...

लगे हाथ टिप्पणी भी मिल जाती, तो...

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ताकि इस ललित पृष्ठ पर अँकित रहे आपकी बहूमूल्य उपस्थिति !

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